तूफ़ान
खुद को रोक पाते हो तो रोक लो
जो तूफ़ान सा उठ रहा है सीने में तुम्हारे
वो दुनियां की ही तो देन है
हो सके तो बदल लो खुद को ज़माने के लिए
माना की खून गर्म है तुम्हारा
पर थोड़ा सा निकालो दिखाने के लिए
युग आये और युग चले गए
कुछ इतिहास बनाके गए कुछ खास बना के गए
जाना तो सबको है एक दिन
परंतु कुछ आस बनाके गए कुछ उदास बनाके गए
तुमको लगता है की व्यवस्था ही ख़राब है
अरे ये जवानी की अवस्था ही ख़राब है
इसीलिए तो वो तुमको बहकाते है
अगर ना बहके तो बहका हुआ बताते है
युवा शक्ति से ही राष्ट्र गतिमान होता है
पर गति की राह में कभी - कभी अभिमान होता है
तभी तो हर जगह
तजुर्बा प्रधान होता है
चलो माना की तुम और हम आजाद है
तुम व्यवस्था के मारे हो
हम अवस्था के मारे है
फिर ये जाति ,धर्म ,क्षेत्र के कैसे नारे है
हमको और तुमको मझधार में फंसा के
हँसते वे किनारे है
लगता है एक तूफ़ान मेरे सीने में भी है
उठते हुए कहता है
क्या मजा.... ऐसे जीने में भी है ?
लेखक की प्रतिलिपि पर प्रकाशित एक रचना
https://hindi.pratilipi.com/read?id=6755373518941614
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