गरीब
पैरो में चप्पल नहीं रहती , तपति सड़को का एहसास होता है
कभी कंकड़ तो कभी कांटो से भी मुलाकात होता है।
कड़ाके की सर्द रातों में खाली पेट नींद नहीं आती
वो फटा कम्बल भी जब छोटा भाई खींच ले जाता है।
वो फटा हुआ पैजामा सिलने के बाद भी क्यों तन को ढँक नहीं पाता है
सबको देने के बाद रोटी, माँ के हिस्से की क्यों घट जाती है।
छप्पर से टपकती बारिश की बूंदो में मैं , कागज की नाव चलाता हूँ
और उन्ही नावों पर बैठकर कल्पना की पतंग उडाता हूँ
डरता हूँ आंधी और तूफानो से , इसलिए नहीं की डर लगता है
छत मेरी कमजोर है , लम्बा ये सफर लगता है
ढिबरी की रोशनी में बैठकर आसमान के तारे गिन जाता हूँ
रात को गोदामों के बाहर पड़े अनाजों को बिन लाता हूँ
वो ऊँची ईमारत वाले घर में माँ मेरी पोंछा लगाती है
मोटी सी वो औरत माँ को खूब सताती है
माँ कहती है सब अपना अपना नसीब है
वे बड़े लोग शरीफ और हम छोटे लोग गरीब है
मैं बोला माँ ' अब तक तेरी चाह थी अब मेरी चाह है
गरीब पैदा होना नहीं गरीब मरना गुनाह है
पढ़े बुढ़ापे पर एक मार्मिक कविता - बुढ़ापा
Bahut simple aur satik likha hai
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया
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