bhai sahab



भाई साहब 

bhai sahab


बचपन से ही भाई साहब का अस्पष्ट नजरिया हमेशा ही मुझे कुछ दुविधा में डाले रहता था । उधर  भाई साहब  इसके उलट  मुझे ही आरोपित किया करते थे । उनके अनुसार मैं लापरवाह और सामाजिकता की गहराई में डूबा हुआ ऎसा इंसान  था जिसने अपन बहुमूल्य समय इन्ही बेफजूल के  कार्यो में व्यर्थ कर दिया  । भाई साहब के लिए समय की परिभाषा अलग थी , अगर उन्हें मुझे समय देना पड़े तो उनकी व्यस्तता प्रधानमंत्री को भी मात दे देती है । यहाँ उनकी प्रेरणा स्त्रोत धर्मपत्नी की बात ना की जाये तो परिवार पुराण कुछ अधूरा सा लगता है । भाभी जी भी व्यस्तता में भाई साहब से कम ना थी, चादर बिछाने से लेकर टीवी का रिमोट ढूंढने तक ना जाने ऐसे कितने जटिल काम थे जो उनकी दिनचर्या से ऊपर थे और उनकी व्यस्तता बढ़ाते थे ,हालांकि मायके पक्ष के सन्दर्भ में उनकी व्यस्तता उसी तरह रफूचक्कर हो जाती थी जिस तरह घर के महत्वपूर्ण अवसरों पर  भाई साहब की उपस्थिति । 

भाई साहब का दर्शन मैं आजतक नहीं समझ पाया भावनाये कभी उनपर हावी नहीं हो पाई हालांकि भाभी जी की भावनाये उनपर जरूर हावी रहती थी।  खुशनसीबी यह थी की ईश्वर की कृपा उनपर बराबर बनी  रही और उनके महत्वपूर्ण कार्य स्वतः ही होते चले गए , हालांकि इन कार्यो का श्रेय भी भाभी जी ने ईश्वर से हटाकर खुद पर ले लिया था ,वैसे  शुरुआत ईश्वर से ही होती थी परन्तु वार्तालाप की अंतिम यात्रा में ईश्वर ठीक  पीछे उसी प्रकार छूट जाते थे जिस प्रकार गांव की पगडंडियों से गुजरने वाली बारात में दूल्हा ।  कभी - कभी तो मुझे ईश्वर पर भी दया आने लगती थी , मैं कितना सोचता था की ईश्वर को किसी बात का श्रेय दूँ , परन्तु भाई साहब की बातो से लगने लगता ईश्वर कुछ नहीं करते, आदमी जो करता है उसे निश्चित रूप से होना ही है । 

भाई साहब को दूसरो को प्रसन्न करने की अदभुत कला थी , हालाँकि यह प्रसन्नता मौखिक रूप से ही होती थी व्यवहारात्मक रूप से इस प्रसन्नता का 90 % हिस्से का स्थानांतरण उनके ससुराल पक्ष में होता और काफी कुछ सुनने के बाद 10 % बाकियो के हिस्से में आता । मुझे भाई साहब से कभी कोई शिकायत नहीं रही क्योंकि बाल्यावस्था से ही मुझे उनकी प्रकृति की आदत सी  हो गई थी ।  वैसे भाई साहब ने कई जगहों पर मेरी मदद अवश्य की थी परन्तु अपनत्व का नमक निकालकर ।  वैसे मैं यह नमक आवश्यकता से अधिक घोल देता था जिसकी वजह से मुझे खुद कभी काल स्वयं पर ग्लानि होने लगती थी ,  वैसे यह आवश्यकता से अधिक मेरे अनुसार नहीं होता था। 

भाई साहब की नजरो में बुद्धिजीवी बनना और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होना एक ही बात थी । वैसे अभी तक यह सम्मान उन्ही को प्राप्त हुआ है जिनकी नजरो में भाई साहब खुद सुकरात या प्लूटो से कम नहीं थे।  भाई साहब द्वारा एक नए दर्शन का ईजाद किया गया, जिसे आधुनिक युग का  द्धिज आचरण सिद्धांत कहा जा सकता है । मैं भाई साहब के दर्शन के पहले अध्याय में ही अनुत्तीर्ण हो जाया करता था जिसके अनुसार व्यवहार लाभकारी और बचतकारी होना चाहिए,  बचतकारी में समय और अर्थ दोनों आते थे।  परन्तु यह बात मेरे पल्ले कभी नहीं पड़ती और शायद मैं यह दोनों ही गँवा बैठता । 

दर्शन के दूसरे अध्याय के अनुसार बातो से महत्ता बताकर दूसरो को भ्रम में रखना और टेढ़ी - मेढ़ी पगडंडियों से घुमाने के बाद  कार्य की जटिलता या कार्य करने में  असमर्थता प्रकट करना मनुष्य का एक सामान्य लक्षण होना चाहिए और  कभी - कभी  ऐसे अवसरों पर मौन व्रत भी रखा जाना चाहिए। भाई साहब ने इस अध्याय को सम्पूर्ण रूप से आत्मसात कर लिया था और और साथ में उनकी  जीवन संगिनी ने भी  ।  वैसे इसे मेरी तरह सीधे शब्दों में " ना " या " हां " बोलने की जहमत और कार्य की प्रकृति पर चर्चा के साथ  उसे हल करने की नीयत से भाई साहब कोसो दूर भागते थे और मुझे अपने इस गुण  के कारण कई जगह भाई साहब द्वारा मूर्ख घोषित कर दिया जाता । 


मुझे भाई साहब का दर्शन अवसरवादिता और संवेदन शून्य सा लगता, हालाँकि भाई साहब संवेदनशील भी थे परन्तु उनके लिए जो मेरी नजरो में इंसानियत के आम गुणों से अभावग्रस्त थे। मेरा अपना कोई दर्शन नहीं था , जिसने मदद मांगी उसकी मदद की भले ही वह उस काबिल हो या  ना हो कम से कम ईश्वर ने तो मुझे इस काबिल बनाया ही होगा । समाज में कुछ समय रूपी धन स्वयं की मर्जी से खर्च किया , शायद आत्मा और मन को प्रसन्नता अवश्य मिली होगी ,परन्तु इस ख़ुशी को पाने के चक्कर में वह दौड़ छूट गई जिसके भाई साहब विजेता थे।  जिस दौड़ में आज हर इंसान शामिल है तथा  आगे बने रहने के लिए भाई साहब के दर्शन को अपनाता है , और मेरे जैसा इंसान उनकी नजर में पढ़ा लिखा तो रहता है लेकिन अक्लमंद नहीं रहता ।   

    

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