mind we and the changing season



मन , हम  और बदलता मौसम 


mind we and the changing season



नौकरी का झमेला और शहरो में परिवार चलाने की कशमकश में मन हमेशा इसी उधेड़बुन में लगा रहता है की, क्या वह समय भी आएगा जब घडी की सुइयों में  9 - 6  के बीच खून और दिमाग दोनों को जलाने के बाद  तनाव रहित फुर्सत के पल  इस शरीर में वास करने वाली आत्मा को भी  मिल पायेगा। 

शरीर तो चूँकि एक ऐसी  मशीन बन चुकी  है जो की धन को साधने हेतु  होने वाली प्रक्रिया से नियंत्रित होती  है। भावनावो के विसर्जन के फलस्वरूप ही प्रभु प्रदत्त काया का ऐसा विनिर्माण संभव हुआ है जिसमे प्रभु भी आस्था का माध्यम ना होकर दिखावटी  फैशन का नया आयाम बन चुके है।  समय के साथ  मनुष्यो ने एक नई संस्कृति का विकास कर लिया है जिसको हम दोहरे आचरण के रूप में जानते है।

पहला  चरण  वाह्य चरण का है , जिसमे वह अपनी ऐसी काया का निर्माण करता है जोकि सामाजिक रूप से जानी जाये ( केवल पहचानी जाए )  नाकि वह कार्यसंगत हो। 

दूसरा चरण अंदरूनी चरण है जोकि मनुष्य का वास्तविक स्वरुप है और इसको ज्ञात करना ब्रह्मा  के पेट के रहस्य को ज्ञात करने से ज्यादा दुष्कर है। और सारे कार्य इसी चरण के अनुसार क्रियाशील होते है। 

पेट के  पापी होने के  सवाल की लम्बाई अब पापी मन तक बढ़ चुकी है।  पापी मन को अब पेट भरने के साथ - साथ अन्य कई कार्यो में लगना पड़ता है। जावेद हबीब के सैलून  से लेकर मैकडोनाल्ड  के बर्गर तक और एप्पल से लेकर फ्लिपकार्ट के फैशन तक  ना जाने पापी मन कहाँ - कहाँ तक पहुँच चुका है । 


कुछ सीधे सादे मन अभी भी 20 - 30  रूपये में दाढ़ी  और बाल बनवाने के बाद नाक और मूंछ के बाल कटवाना नहीं भूलते। हालंकि इस प्रकार के मन, छोटे शहरो और गांव की दहलीज को पार करना ठीक उसी प्रकार समझते है  जैसे बाबर हिन्दुस्तान के वैभव को देखकर यंहा खिंचा तो जरूर चला आया था, परन्तु  इस बात से अनजान था की  गैर मुल्क में उसकी हैसियत एक खानाबदोश के सिवा कुछ नहीं। 

ये मन अभी भी इस बात पर यकीं करते है की चौराहे की वह  सियासत जिसमे धनिया की चटनी के साथ  गरमागरम गोभी और प्याज के पकौड़े  हो ,का मुकाबला नौटंकी से दिखने वाले  न्यूज़ चैनलों के कानफाडू डिबेट कभी  नहीं कर सकते  जिसमे एंकर कॉफी की चुस्की के साथ दी गई स्क्रिप्ट को अमल करवाने का प्रयास करते है । 

खुद को धुरंधर समझने वाले संबित पात्रा से लेकर राजबब्बर तक  और प्रियंका चतुर्वेदी से लेकर सुधांशु द्धिवेदी तक के पास उनके सवालों के जवाब मिलना नामुमकिन है। पकौड़ी के बाद मिट्टी के  भरूके में मिलने वाली चाय, सभा के अंतिम चरण का ईशारा करती  है।  जिसके साथ ही घरेलु समस्याओ के निराकरण की व्यवस्था पर चर्चा होती है । फैशन के नाम पर मिश्रा जी के  नए कुर्ते का रंग और शर्मा जी के नए चश्मे के सजीले फ्रेम पर कुछ चर्चा ठिठोली स्वरुप अवश्य हो जाती है। इन सब के बीच तनाव रूपी खरपतवार के वह  बीज जिनकी बड़े शहरो में पूरी फसल पक कर तैयार रहती है ,के कही भी अंकुरित होने की गुंजाईश नहीं रहती। 

उधर पापी मन शाम को थकेहारे शरीर के साथ झूलता चौखट में प्रवेश करता है , और आरामदायक कुर्सी पर गिरते उम्मीद करता है की कहीं से एक प्याली चाय की मिल जाये ।  कहीं से इसलिए क्योंकि घर की एकलौती महिला सदस्य भी  इस देश की कार्यशील वर्ग में शामिल हो चुकी होती है ।  दोस्तों के नाम पर कुछ स्वार्थसिद्ध लोगो के समूह से  चर्चा  या विमर्श हेतु समय माँगना यानी ना सुनना  । मनोरंजन हेतु  टेलीविजन के माध्यम से समाचार सुनना और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को सुनना कुछ एक सा लगता है। डिबेट में तो सारे तथ्य(औचित्यहीन ) निकलकर सामने आ जाते है सिवा निष्कर्ष के। 

अंत में शरीर को धकेलते हुए रसोई की चौखट में प्रवेश कर चाय बनाते हुए जीवन के इस एकाकी स्वरुप में भी उसे समझ में नहीं आता की क्या वह जिंदगी को जी रहा है या फिर मशीन बनने के उस अंतिम चरण में प्रवेश कर चुका है जहाँ से उसका वापस आना असंभव है। 

  
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2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत कुछ लिख दिया आपने. ये तो समझ में आया की मन उलझन में है, उद्विग्न है. पर ये भी लगा कि रास्ता नहीं मिल रहा है.

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  2. जी शुक्रिया , रास्ता भी जरूर दिखाई देगा.अगला लेख उसी पर आधारित होगा.

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