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construction of pauses and rites

ठहराव और संस्कारो का निर्माण 


  

ठहरना जरुरी है , भागते रहोगे तो  ठहरने का मजा क्या जानोगे


पड़ाव का अर्थ होता है कुछ दूर चलने के बाद ठहरने वाली जगह।  जिंदगी में गतिशीलता भी उतनी जरुरी है जितना की ठहराव। अगर हम बचपन से लेकर जवानी और जवानी से लेकर बचपन तक भागते ही रहे , तब हमें कैसे पता चलेगा की क्या बचपन था और क्या जवानी। बचपन कुछ वक़्त के लिए ठहर के हमें बचपना करने का मौका देता है , जहाँ तनाव के लिए कोई जगह नहीं होती।  उस बचपन की पीठ पर 10 किलो का बस्ता किसी तनाव से कम होता है क्या ।


दरअसल यह एक प्रतिस्पर्धा है की फलां का बेटा 2 साल में ही दस कविताये याद कर चुका है , और हमारा बेटा अभी तक ढंग से बोलना भी नहीं सिख पाया।  यहाँ समझना यह आवश्यक है की  बच्चो को उनकी उम्र के अनुसार ही बढ़ने देना चाहिए ,समय से पहले तो सब्जियाँ  भी अच्छी नहीं लगती । बाकी आप संस्कारो का समावेश जारी रखे तो ज्यादा बेहतर है ,बजाय इसके की उसे बिना मतलब की दौड़ में शामिल करके।  यदि इस प्रकार की नक़ल लोग बंद करना शुरू कर दे तो धीरे - धीरे सम्पूर्ण समाज में बदलाव आना शुरू हो जायेगा क्योंकि हम नकलची जो ठहरे।



संस्कार और अपनत्व की जगह क्रमशः मशीनीकरण और समय के अभाव ने ले लिया है।  बदले में जब आपके पाल बड़े होते है तो इसी मशीनी भाषा को बोलते हुए आपको समय नहीं दे पाते तो आप खीझ उठते है ।  जिन घरो में संस्कार और अपनत्व की बयार बहती है ,वहाँ के पाल्य अपने अभिभावकों को बदले में यही देते है , अब अपवाद तो हर जगह होते है।

धन से सुख तो होता है परन्तु वह भौतिक होता है परन्तु आत्मिक सुख अंदर स्थित आत्मा तक को तृप्त करता है। अपनत्व कभी भी ख़रीदा नहीं जा सकता , संस्कार एक दिन में किसी के अंदर भरे नहीं जा सकते। हमें बस अपने बच्चो को दी जाने वाली परवरिश में ध्यान रखना है की हम उन्हें कैसे समझा सकते है की धन,  गुण , संस्कार , अपनत्व  और सामाजिकता का उचित क्रम क्या होना चाहिए। 

धन की लालसा वही तक , आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति जहाँ तक। धन के लोभ के साथ - साथ इससे उत्पन्न अहंकार से भी बचने की कला आनी चाहिए। यही वर्तमान में हमारे द्वारा किये गए प्रयास भविष्य के  भारत  और  एक  स्वस्थ समाज  का निर्माण करेंगे। 


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नौकरी की पढाई और पढाई की कमाई में खोते हम 




बचपन से पढाई का केवल एक ही उद्देश्य रहा है नौकरी , शायद हर माँ - बाप  अपने अपने बच्चो को तालीम इसीलिए दिलाते ही है की बड़े होने पर वो ऊँचे ओहदे पर पहुँच सके अगर नहीं पहुँचता है तो उसके जीवन भर की मेहनत व्यर्थ हो जाती है अगर शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ नौकरी पाना ही है तो जिसको नौकरी न करनी हो तो वह फिर डिग्री लेकर क्या करेगा। और जो केवल डिग्री के भरोसे नौकरी पाते है उनका क्या ?


और यदि शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानी बनना है तो ऐसे लोगो को क्या कहेंगे जो आलिशान घरो में रहते हुए अपने माता - पिता  को किसी वृद्धाश्रम  में रखे हुए है।  जिनके लिए धन ही सब कुछ है और जिनकी  सभ्यता की पहचान डिस्को से होते हुए क्लब की पार्टियों में वेटरो को टिप देने तक ही सीमित है। जहाँ रिश्ते व्यक्ति की हैसियत और पहुँच देखकर बनाई जाती है , जहाँ ईमानदार और गरीब व्यक्तियों को देखकर मुंह बन जाता है।


 शिक्षा की शुरुआत परिवार से ही होता है जहाँ शुरू से ही सिखाया जाता है की जन्म लिया है तो बस मशीन बनने के लिए, जहाँ दिल और दिमाग से सोचना मना है बस किताबो को रटिये  और परीक्षा देते जाईये  और अगर कक्षा में उच्च स्थान नहीं प्राप्त किया तो  आप वहीं पढाई में कमजोर सिद्ध हो जाते है। और अगर जिंदगी ने कोई कड़ा इम्तेहान ले लिया तो तनाव का शिकार हो जाइये क्योंकि आपकी तालीम में इसका कोई अध्याय नहीं है । 


उसके बाद बच्चो  को कमजोर मानकर भारी भरकम टयुशन लगा दिया जाता है। इन्ही सब के बीच उनका वो बचपन हम छीन लेते है जो प्रकृति ने उन्हें दिया है  . जब हम घर  में मानवीयता और अपनेपन का अध्याय इस अंधाधुंध भौतिक जिंदगी में फाड़ के फेंक देते है तो हम कैसे उम्मीद कर सकते  है की वापसी में हमें ये सारी चीजे मिल भी सकती है।  . 
noukari ki padhai aur padhai ki kamai me khote ham

बड़े होते ही अभिभावकों की इच्छानुसार नौकरी की तलाश शुरू हो जाती है। लक्ष्य तो पहले ही निर्धारित कर दिया जाता है। नौकरी मिल गई तो  आधुनिक संसाधनों को पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत शुरू हो जाती है  ,पैसा आप कितना भी कमा लीजिये कम ही पड़ता है  . ऊपर से हम ठहरे भारतीय  जो सबसे ज्यादा पैसे के पीछे भागने वाले है। पर इसी कमाई और कमाई की पढाई ने एक बेटे को उसके बाप से दूर कर दिया , माँ की  ममता होमवर्क चेक करने तक रह गई , बहन और भाई बेगानो की तरह आपस में मिलते है ,खास रिश्तेदारों से तो सालो में एक बार मुलाकात होने लगी , वो भी औपचारिकता वाली मुलाकातों तक ही दौर सीमित रहता है । दोस्त तो अब मतलब के लिए बनाये जाने लगे उनमे अब पहले जैसी आत्मीयता कहा रही।  यही कारण है की आजकल के बच्चे थोड़े बड़े होते ही अपने अभिभावकों को जवाब देना शुरू कर देते है। और हम खुद से सवाल पूछने की बजाय की ऐसा क्यों हो रहा है उल्टे उनपे दोषारोपण करते है 
noukari ki padhai aur padhai ki kamai me khote ham
हम कहते है की हमारे पास समय नहीं है तो वाकई हमारे पास समय नहीं है क्योंकि अब  आप 100 साल जीने की उम्मीद नहीं कर सकते आप को जो भी करना है उसकी शुरुआत किये रहिये जिंदगी जीने पर यकीं कीजिये। क्योंकि मुर्दा इंसान ना डॉक्टर होता है ना कोई कलेक्टर। 
आपके जीवन यात्रा की शुरुआत हो चुकी है आपको खुद तय करना है की किन रास्तो से होकर गुजरना है बाकि  आखिरी मंजिल तो सबकी एक ही है  ....... 


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झगड़ा  


प्रायः दो व्यक्तियों के बीच होने वाले आपसी तनाव और हिंसा पूर्ण गतिविधियों की वह संलिप्तता है जिसमे भाषा और व्याकरण का ध्यान नहीं रखा जाता है।  रखने को तो शारीरिक हानि  का भी ध्यान नहीं रखा जाता है परन्तु  स्वयं की नहीं बल्कि प्रतिपक्षी की। 

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झगडे का बीज प्रायः  मन मस्तिष्क के किसी कोने से जड़ो में परिवर्तित होने का प्रयास करता है , विद्वान पुरुषो द्वारा इस प्रकार के पौधो का दमन अंकुरण के समय ही ठीक उसी प्रकार कर दिया जाता है जैसे लाभकारी फसलों के बीच जमने वाले खरपतवारो का किया जाता है परन्तु जिस मन मस्तिष्क में सालो से कोई उपजाऊ फसल ना बोई गई हो वहां इस तरह की पौध जीवन की मायावी ऊर्जा में संतुलन का कार्य करती है। 

झगडे को लेकर विद्वान पुरुषो द्धारा अक्सर ही उनसे दुरी बनाये जाने की बात कही जाती है क्योंकि झगड़ा अगर एक बार गड गया तो उसे उखाड़ना इतना आसान नहीं होता और उसे उखाड़ने के चक्कर में हम अपना अमूल्य छण व्यर्थ में ही जाया कर देते है जिसका उपयोग हम स्वयं के विकास में लगा सकते थे।  यदि आप एक नन्हे पौधे है और आपके बगल में कोई दीवार खड़ा कर देता है तो भलाई उससे लड़ने में नहीं है बल्कि अपनी दिशा थोड़ी सी  बदल कर निकलने में है। समय आने पर पौधा जब विशाल पेड़ में परिवर्तित होता है तो वह दीवार स्वयं ही गिर जाती है। 

झगडे का बीज ज्यों - ज्यों  बड़ा होते जाता है उसी प्रकार वह मस्तिष्क में लगे अन्य सुकोमल पौधो (मानवीय विचारो )को हानि पहुंचाने लगता है। बीज को मस्तिष्क में रोपित होने से बचाने के लिए आवश्यक है की हम अहम् का त्याग कर दे वास्तव में झगडे के प्रधान कारणों में से अहम् का प्रथम  स्थान है। जहाँ मैं है वहां कोई और आ ही नहीं सकता और जहा मैं नहीं है वहा  प्रत्येक विचार और व्यक्ति का स्वागत है। 

NOTE - झगडे की औषधि अगर कोई है तो वह है आपकी एक मुस्कान।  





gyan yog


अध्यात्म और ज्ञान योग adhyatm aur gyan yog - 


ज्ञानयोग सांसारिक माया और उसके भ्रम को समझने की उच्च अवस्था है।  वास्तव में हमारे  ध्यान , ज्ञान और वास्तविकता को समझने की चेतन अवस्था जिसमे हम सांसारिक दृश्यों और भौतिक अवस्था की सत्यता का चेतन मन से अवलोकन करते है ज्ञान योग कहलाता है। 

ऐसा ज्ञान स्वयं के माध्यम से अर्जित किया जाता है इसके लिए भौतिकता के आवेश को स्वयं से दूर रखना आवश्यक है।  माया ज्ञान योग के वास्तविक स्वरुप को समझने में बाधक है।  

ज्ञान योग की पहली अवस्था गूढ़ अध्ययन की अवस्था  होती है इसमें पुस्तकों यथा  धार्मिक ग्रंथो का अध्ययन  किया जाता है  .  अवस्था चिंतन और मनन की अवस्था होती है और अंत में ध्यान द्वारा आत्मा को सांसारिक तत्वों से अलग करना होता है।

ध्यान योग में मनुष्य को संसार की वास्तविकता का ज्ञान होता है उसे नश्वर और अमरत्व का ज्ञान होता है और इतने ज्ञान के पश्चात ह्रदय की पवित्रता आने पर ईश्वर का वास होता है।  ज्ञान योग का रास्ता अत्यंत ही जटिल है इसके लिए संयम का होना आवश्यक है क्रोध और ईर्ष्या जैसे तमाम आसुरिक प्रवित्तियों के गुणों का त्याग करना पड़ता है मन को ईश्वर की प्रेरणा से पवित्र बनाना पड़ता है।

वर्तमान समय में मची आपाधापी और अशांति के वातावरण में एक अध्यात्म ही एक ऐसा माध्यम है जो हमें  शांति के पथ पर ले जाता है और ज्ञान योग जीवन की वास्तविकता को समझने में हमारी मदद करता है ताकि हम निरर्थक और सार्थक जीवन को समझ सके और ईश्वर द्वारा प्रदत्त बहुमूल्य मनुष्य योनि का सदुपयोग करते हुए अपने चारो और प्रकाश फैला सके। 



spirituality part2

Adhyatmikta -  jeewan ki aawashyakta   

आध्यात्मिकता -  जीवन की आवश्यकता 

भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में सर्वप्रथम आध्यात्मिकता के विषय में विस्तार से चर्चा की थी  . वर्तमान जीवन की भागदौड़ , रिश्तो की आपाधापी  और जीवन की अस्थिरता मानसिक विचलन का प्रमुख कारण है। आध्यात्मिकता एक ऐसा माध्यम है जिससे इन सारी  समस्याओ का निवारण हो सकता है।  अगर हम अध्यात्म में कच्चे है तो अनेक ऐसे श्रेष्ठ गुरु है जिनकी शरण में और मार्गदर्शन लेकर हम इस पथ पर आगे बढ़ सकते है। 



adhyatmikta
adhyatmikta 


क्या है आध्यात्मिकता (what is spirituality) -  

आध्यात्मिकता ज्ञान की वह शाखा है  जो संसार की वास्तविकता से हमारा साक्षात्कार कराती है और ईश्वर और हमारे बीच समबन्ध स्थापित करती है। आध्यात्मिकता को किसी धर्म विशेष से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है।  अध्यात्म में समूर्ण सृष्टि का  संचालन कर्ता एक ही सर्वशक्ति को माना  गया है. अध्यात्म का प्रारम्भ मन की चेतना से  होता है. जिसमे सर्वप्रथम मन के विकारो को दूर करना और सांसारिक या भौतिक निश्चेतना से  परलौकिक चेतना   की ओर बढ़ना है। 

आध्यात्मिकता और मनोविज्ञान (spirituality and psychology) - 

आधुनिक वैज्ञानिको ने आध्यात्मिकता को मनोविज्ञान से जोड़कर देखा है उनका मानना है की अध्यात्म एक सकारात्मक मनोविज्ञान है जो मनुष्य को निराशा के छड़ो से निकालकर आशा को ओर ले जाता है , जीवन के कठिन छड़ो  में उसका विश्वास ईश्वर और उसके न्याय व्यवस्था पे बनाये रखता है जिससे वह कठिन छड़ो में  भी सकारात्मकता के साथ  खड़ा रहता है। उसे संसार का  भौतिक ज्ञान हो जाता है। अगर मनुष्य के कठिन क्षड़ों  में पूरा संसार उसके विपरीत खड़ा हो या उसका साथ छोड के चला जाये तो यही विश्वास उसकी ताकत बनता है. 

अध्यात्म हमें भौतिक ज्ञान से आत्मीय ज्ञान का अनुभव कराता  है जिसमे हम अपनी आत्मा से भली भांति परिचित होते है। 
शेष अगले अंश में। ....  

   

adhyatm


अध्यात्म की शुरुआत 

अध्यात्म हमारे भीतर की वह चेतना है जो की निष्काम है उसी चेतना को जगाने का प्रयास ही  अध्यात्म  कहलाता।  मनुष्य जन्म कई लाख योनियों में जन्म लेने के पश्चात मिलता है इस जन्म की सार्थकता को प्रत्येक व्यक्ति नहीं समझते और भोग - विलास की प्रवृत्तियों में जीवन का सम्पूर्ण भाग निकल देते है वे भूल जाते है की शरीर नश्वर है जो अमर है वो है आत्मा।


जीवन एक प्रक्रिया है इस धरती पर जन्म के साथ ही यह शुरू हो जाती है और अटल सत्य मृत्यु के साथ ख़त्म चाहे वो राजा हो या रंक  प्रकृति किसी के साथ भेदभाव नहीं करती।

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अध्यात्म 

सूर्य की रौशनी सबपर एक समान भाव से पड़ती है , वायु का प्रवाह भी समान ही होता है , यहाँ कुछ भी वास्तविक नहीं है जिसके पीछे हम अपना समय नष्ट करते है जिस सुख के पीछे हम दिन रात भागते है वो शारीरिक और क्षणिक है .

वास्तविक सुख का अनुभव हमारी आत्मा को होता है। किसी नगर में एक बार कुछ लोग सड़क  पे चले जा रहे थे उनको देख कुछ और उनके पीछे चलने लगे सबको लगने लगा की अवश्य ही कुछ विशेष बात है इस प्रकार भीड़ अत्यधिक बढ़ गई अंत में पता चला की वे लोग इस शहर में नए थे और मार्ग से विचलित हो गए थे उनका अनुसरण करने वाले हजारो लोगो का समय और ऊर्जा बिना किसी बात के ही व्यर्थ चला गया। 

 कुछ लोग ऐसे भी थे जो समझदार थे और वे अपने नित्य के कामो में ही लगे  रहे। कहने का तात्पर्य ये है की यदि समाज का बड़ा वर्ग या पूरा समाज ही गलत दिशा अर्थात भौतिक सुख के पीछे भाग रहा है तो यह  आवश्यक नहीं की हम भी उसके पीछे भागे।  वर्तमान समय में राजनीति ,सत्ता ,धन और भौतिक सुख के पीछे भागने वालो की संख्या सर्वाधिक है पर क्या वे मानसिक रूप से सुखी है ? 

भारतीय समाज में भी वैदिक काल से ही पुरुषार्थ की अवधारणा चली आ रही है जिसके अंतर्गत पुरुषार्थ  करते हुए जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ही सर्वोत्तम होता है।  पुरुषार्थ के अंतर्गत चार श्रेणियाँ होती है धर्म , अर्थ ,काम ,और मोक्ष। अंतिम मोक्ष की प्राप्ति है जिसमे जीवन के अंत काल में सर्वस्य त्याग कर ईश्वर की भक्ति में लीन  होते हुए  अपने अंश को ईश्वर के अंश में समाहित करना है। 

बचपन से लेकर जवानी और जवानी से लेकर बुढ़ापे तक जीवन चक्र अलग अलग अवस्थाओं से गुजरता है।  जहां हम इस मोह रूपी संसार के मायाजाल में फंसकर अनर्गल कार्यो में ही जीवन का वास्तविक सुख और उद्देश्य दोनों ही भूल जाते है। अध्यात्म वही चेतना है जो हमें वास्तविक सुख के प्रति जागृत करती है।  मन से तमाम तरह की बुराइयों को निकाल बहार फेंकती है जिससे एक स्वच्छ मन में ईश्वर का वास हो सके और हमारे और हमारे सर्वशक्तिमान परम पिता के बीच अटूट संपर्क स्थापित हो सके यही अध्यात्म की शुरुआत है बाकी बाते अगले अंश में........ 
              
 अगला भाग -  

आध्यात्मिकता -  जीवन की आवश्यकता

 

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zindaagi ki saarthakta

जिंदगी की सार्थकता zindagi ki sarthakta




zindaagi ki saarthakta
zindaagi ki saarthakta 
उगते सूरज को देखते हुए ये ख्याल आता है की हम भी जगत मे इसी तरह आशा और उम्मीद के साथ प्रतिदिन उठतें है की आज कुछ अच्छा होगा . वही रोजमर्रा की आदते वही घर गृहस्थी की उलझाने ,शायद ज़िंदगी अब उतनी आसान नही रह गई जितनी हमारे पूर्वजो के लिये थी ,
ज़िंदगी मे स्थिरता नही रह गई बल्कि भागमभाग मची रहती है , अंधी प्रतिस्पर्धा है जिसमे हासिल कुछ नही होता बस हम ज़िंदगी जीना भूल जाते है , चेहरो पर मुस्कुराहट की बजाय भय,तनाव,और क्रोध की झलक ज्यादा देखने को मिलती है , सेवा भाव की जगह मेवा भाव की भावना लोगो के अंदर बसने लगी है . थोड़ी बहुत नाते रिश्तेदारिया और मित्रता तो केवल स्वार्थ की वजह से चल रही है. जाता हूँ कभी शमशान तो ज़िंदगी की सारी भागदौड और असलियत आंखो के सामने दिखती है पता नही ये नजारा और ए असलियत सबको क्यो नही दिखाई देती .
यही शाम है हमारी ज़िंदगी की हम भूल जाते है की सूरज की तरह हमको भी एक दिन ढलना है हमारा जन्म सिर्फ और सिर्फ मानवता को उसके शिखर पर ले जाना है, इसी के साथ जगत मे हमारी पहचान होती है और हम निरर्थकता से सार्थकता की तरफ बढते है .

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