पुराने बरगद
मन की बेचैनी को शांत करने के लिए आज सुबह से ही एक शांत चित्त वाले श्रोता की तलाश जारी थी । विषाक्त और उद्देलित रक्त वाले नव युवकों से यह अपेक्षा पूरी ना होती तथा कसौटी जिंदगी वाली गृहणीयां कसौटी पर खरी ना उतरती , इसलिए हमारा सारा ध्यान जिंदगी भर टायर की तरह भार वहन कर , "पीपी और पोंपों " कि शोर युक्त आवाज सुनने वाले उस धीर पुरुष पर लगा था जिसकी चमक घिसने और रिटायर होने के बाद भी बरकरार थी ।
इंग्लिश भी साहब बड़ी अजीब भाषा है , ओपन के आगे रि जुड़ जाए तो रिओपन , न्यू के आगे जुड़ जाए तो रिन्यू और यदि टायर के आगे जुड़ जाए तो रिटायर का अर्थ ही बदल जाता है । बाकी दोनों में तो नई शुरुआत होती है लेकिन यहां टायर की नई शुरुआत ना होकर आदमी के काम की ही छुट्टी हो जाती है ।
आसपास नजर दौड़ाने पर ऐसे बहुत से टायर माफ कीजिएगा रिटायर सज्जन पुरुष ध्यान में आने लगे जो हमारी मानसिक शांति के लिए उपयुक्त हो सकते थे यहां वृद्ध शब्द की अवधारणा उनकी चेतना के आगे सटीक न बैठती , क्योंकि वृद्ध होने का उम्र के आंकड़ों से कोई वास्ता नहीं , इसलिए उनके लिए इस या इसके पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग मेरे द्वारा प्रतिबंधित है।
बड़े शहरों से लेकर कस्बों तथा गांव में रहने वाले इन जैसे ज्ञान की खान को छोड़कर यदि हम अपने प्रत्येक सवाल उस गूगल से ढूंढते हैं तो यह हमारा दुर्भाग्य ही है । खैर आखिर में हमारा सारा ध्यान उन सेवानिवृत्त पुरुषों पर था जो अपने घर की ललिता पवार की सेवा से अभी भी निवृत्त नहीं हो पा रहे थे , और दिन भर के थके हारे अपने दोनों कानों को बहलाने संध्या बेला पर निकला करते थे । कभी-कभी ऐसे पुरुषों के लिए महापुरुष शब्द भी लघुता को प्राप्त होता है । आज के वर्तमान परिदृश्य में जहां छोटी-छोटी बातों पर पति पत्नी के बीच नित्य ही लड़ाई झगड़े आम हैं , वहीं ऐसे पुराने बरगदो ने ताउम्र क्रोध को अपने पास फटकने ना दिया और ना केवल अपनी गृहस्थी बल्कि अपने संपूर्ण परिवार की एकता व अखंडता को विषम परिस्थितियों में भी बनाए रखना सुनिश्चित किया । चाहे वह छोटे भाई का हुड़दंग हो या बीवी की किचकीच के अलावा पिताजी की फटकार ही क्यों ना हो इन सब में भी इन्होंने अपना सामंजस्य और मानसिक संतुलन बनाए रखा ।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकला कि संध्या काल की बेला पर ही हमें ऐसे महापुरुषों के दर्शन हो सकते हैं । इसलिए सर्वप्रथम एक सज्जन पुरुष का रूप धर के ही हमने उनसे भेंट करना उचित समझा । हमने अपनी कटप्पा वाली दाढ़ीयों को काटना मुनासिब समझा और आयुष्मान खुराना बन अपने अमिताभ बच्चन की तलाश में निकल लिए।
आखिर ढूंढने से तो भगवान भी मिल जाते हैं फिर इंसान क्या हैं । मोहल्ले की मेन सड़क पर स्थित चाय की दुकान में हमे बगल की गली वाले उन वर्मा जी में अपनी पूरी संभावना नजर आई जो अपनी राबड़ी देवी के लिए तरकारी (सब्जी ) लेने निकले थे और चाय के दो प्यालो के साथ एक प्लेट प्याज की गरमा गरम पकौड़ियां धनिया की चटनी के साथ ठिकाने लगा चुके थे।
सर्वप्रथम तो नजर मिलने पर उन्होंने अपनी तटस्थता बरकरार रखी परंतु जब मैंने झुक कर उनका अभिवादन किया तो उन्होंने मधुर मुस्कान के साथ दाहिना हाथ ऊपर करते हुए मजबूती से अपनी प्रतिक्रिया दी । जब मैं उनके पास कुर्सी खींचते हुए बैठने लगा तो उन्होंने बैरे से एक चाय की प्याली और लाने का आदेश दिया ।
हां तो मैंने भी वर्मा जी का हाल चाल लेते हुए अपनी जिज्ञासा उनके सामने रखने में तनिक भी देर नहीं की सर्वप्रथम तो वह ध्यान से सुनते रहे परंतु कुछ छण पश्चात उनके चेहरे की चमक फीकी पड़ने लगी और सवाल के खत्म होने पर वह मेरी ओर टकटकी लगाए देखे जा रहे थे तो सवाल यह था कि
ऐसी क्या वजह है कि कुछ ही दशकों पूर्व से चली आ रही संयुक्त परिवार की अवधारणा खत्म होने के बाद , एकल परिवार के पुत्र पिता व मां को अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते , या जिम्मेदारी शब्द को हटा भी दे तो क्या ज्यादातर पुत्र और पुत्रवधू के लिए पिछली पीढ़ी उनके परिवार का हिस्सा नहीं होती , और यदि कुछ जगह साथ-साथ हैं तो भी उपेक्षा का शिकार क्यों है ।
अचानक ही मुझे ध्यान आया कि समाजशास्त्र के नामी प्रोफ़ेसर वर्मा जी के पास इन सवालों के जवाब होते हुए भी वे उसे व्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि बाहर रहने वालें उनके दोनों बेटे विगत 10 वर्षों में एक बार भी उनका कुशलक्षेम पूछने नहीं आए शायद उनके साथ वर्मा जी भी उन्हें भूल चुके थे और आज मैंने अपनी जिज्ञासा हेतू उनकी खोई हुई अभिलाषा की याद दिला दी , अब मेरी जिज्ञासा ग्लानी में बदल चुकी थी ।
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