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Corona majdur aur jindagi


कोरोना , मजदूर और जिंदगी





घर पर  रहते हुए भी सुकून का ना होना मजदूरो और कामगारो के लिए कोई नया नहीं है लेकिन कोरोना से बचने के चक्कर में पापी  पेट की वह चिंता जिससे पूरा परिवार प्रभावित हो ऐसा कोई उपाय या कोरोना की रोकथाम के निश्चित समय के ना होने से यह चिंता जब चिता की ओर बढ़ने लगती है तब बेबसी और लाचारी भरे दृश्यों की कल्पना ही ऐसे तबके को मजबूरी की नई परिभाषा गढ़ने पर मजबूर कर देती है |
 
कम शिक्षित और मज़बूरी में घर छोड़ने वाला यह वर्ग नए शहरो में जब दो जून की रोटी की तलाश में जाता है तो  परिवार की ख़ुशी के लिए कठोर और काँटेदार मजदूरी की चादर ओढ़ लेता है भले ही उसमे उसका दम घुटे या फिर उसकी आदत में शुमार हो जाए , वह उस चादर को नहीं छोड़ता कम पगार निर्वासित जीवन छोटी सी कोठरी फैक्ट्रियों से निकलता दमघोंटू  धुंआ मालिकों और सुपरवाइजरों की फटकार यह सब उसे अपने परिवार की बेबसी और लाचारी के आगे बौने लगने लगते है छोटी सी पगार  में बड़ा दिल रखने वाला यह वर्ग उसी वेतन के लिए पूरे जतन और ईमानदारी से काम करता है, जो उसकी मेहनत का पूरा मूल्य भी नहीं चुका पाती |
 
लॉकडाउन की शुरुआत में जहाँ पूरा देश बंद हो चुका था ये मेहनतकश गरीब एक – एक दिवस और पास पड़ी हुई एक - एक कर जुटाई गई पूंजी दोनों को जाते हुए देख रहे थे आखिर में लॉकडाउन दिन जब बढ़ने लगे और जमा - पूंजी जब ख़त्म होने लगी तो इनके सब्र और माली हालत दोनों ने इन्हे बंद कोठरियों से अपने – अपने घरो की ओर निकलने को मजबूर कर दिया कोरोना तो तब  मारता जब पेट इन्हे जिंदा रहने देता अजीब कश्मकश थी जिंदगी की ना कोई समझने वाला और नाही कोई इनके दर्द को कोई बांटने  वाला  रोजगार छीन चुके थे सबकी हालत एक जैसी हो चुकी थी मदद मिले या ना मिले कम से कम अपने घरौंदों तक  पहुँचने पर अपनों को खोजती हुई निगाहें तो थी वह लोग तो थे जो तकलीफ को समझकर मदद करते वह झोपड़ी तो थी जो किराया ना मांगती वह भाई  - बहन और सगे सम्बन्धियों की दिलासा देती बातें तो थी जो दर्द पर मरहम लगाती |
 
पटरियों पर ट्रेन न थी बसे बंद थी सड़को पर पहरा था जेबे खाली थी , पर हौसला जरूर था जो जानती थी की परिस्थितियां चाहे जितनी भी खराब क्यों ना हो सुकून के कुछ छण उन्हें अपनों के बीच ही मिलेंगे | फिर क्या था निकल लिए अपने कदमो के भरोसे उसी माटी की ओर जिसमे उनका बचपन बीता था , जो नंगे पैर भी मखमल सी मुलायम लगती , जिसमे लेटकर उसकी पवित्रता का एहसास होता | कोई साधन न था, हजारो मील की दूरी भी थी , बस दिलासा जरूर था की वहाँ पहुँच गए तो आपदा चाहे कैसी भी क्यों न हो लड़ने को हौंसला जरूर मिलेगा | सर पर गठरी रखे ,टूटी फूटी चप्पलें पहने लोगो के हुजूम अपने परिवारों समेत  सड़को पर निकलने लगे | कोई साइकिल पर , तो कोई रिक्शा चलाते हुए , तो कोई पैदल ही अपने – अपने घरो की ओर निकल पड़ा | सड़को पर तैनात पहरेदारों की फौज ने पहले तो कुछ को रोकने की कोशिश जरूर की , परंतु बढ़ती भीड़ और मजबूरी को समझते हुए ज्यादा देर रोक नहीं पाये | कुछ स्वयं सेवी संस्थाओ और राज्य सरकारो ने मदद भी की परंतु भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश के इस विशाल वर्ग के लिए यह मदद ऊंट के मुंह मे वह जीरा के समान थी | किसी की चप्पलें टूट गई , तो कइयो के पैरो मे छाले पड़ गए , कुछ बीच रास्ते से ही दुनिया छोड़ गए लेकिन अधिकांश अपनी मंजिल तक पहुँचने मे कामयाब रहे |
घरो पर पहुँच कर तसल्ली तो मिली पर बढ़ते लॉकडाउन और खत्म होते संसाधनो ने इस वर्ग के माथे पर चिंता की लकीरे बढ़ा दी | सवाल ये भी था की अगर घर पर दो जून की रोटी का इंतजाम हो जाता तो ये घर छोड़ते ही क्यों ? फिर भी कुछ ने सब्जी बेचने से लेकर अन्य कामो मे हाथ आजमाया भी , परंतु ऐसा सिर्फ कुछ ही कर पाये | पेट और परिवार ने उन्हे कोरोना के इतर फिर से शहरो की ओर देखने को मजबूर कर दिया | परंतु बाजार की घटती क्रय क्षमता और कंपनियो की नाजुक होती हालत मे केवल कुछ ही कंपनियो ने दोबारा अपनी फ़ैक्टरियों को खोलना शुरू किया |
 
सरकार द्वारा कोरोना को देखकर बनाए गए नए नियमो और कम संख्या मे उपलब्ध रोजगार ने मजदूरो की दुर्दशा को और बढ़ाने का काम किया | छोटे शहरो मे कोरोना तो कब का खत्म हो चुका था बस रोना बाकी था |  बेरोजगारो की नई फौज मे कई और, कोरोना की जंग मे हार चुके सिपाही आ चुके थे | परंतु उनके घर की हालत भी धीरे – धीरे खस्ताहाल होने लगी थी और कोरोना से ज्यादा विकराल  रूप भूख ने ले लिया था इसलिए कोरोना को एक नियमित बीमारी की श्रेणी मे डालते हुए श्रमिकों के झोले फिर से अपनी – अपनी कर्मस्थली के लिए तैयार हो चुके थे और कोरोना कहीं पीछे अमीरों के लिए छूट गया था | आज छोटे शहरो मे कोरोना ना बाजारो मे दिखता है ना आपसी मेल – मिलाप मे | कोरोना तो सिर्फ राजनीति और अमीरों के लिए रह गया है बाकियों के लिए पेट की आग से बढ़कर कोई महामारी नहीं |
 
 

Purane bargad

पुराने बरगद​





मन की बेचैनी को शांत करने के लिए आज सुबह से ही एक शांत चित्त वाले श्रोता की तलाश जारी थी । विषाक्त और उद्देलित रक्त वाले नव युवकों से यह अपेक्षा पूरी ना होती तथा कसौटी जिंदगी वाली गृहणीयां कसौटी पर खरी ना उतरती , इसलिए हमारा सारा ध्यान जिंदगी भर टायर की तरह भार वहन कर , "पीपी और पोंपों " कि शोर युक्त आवाज सुनने वाले उस धीर पुरुष पर लगा था जिसकी चमक घिसने और रिटायर होने के बाद भी बरकरार थी ।

इंग्लिश भी साहब बड़ी अजीब भाषा है , ओपन के आगे रि जुड़ जाए तो रिओपन , न्यू के आगे जुड़ जाए तो रिन्यू और यदि टायर के आगे जुड़ जाए तो रिटायर का अर्थ ही बदल जाता है । बाकी दोनों में तो नई शुरुआत होती है लेकिन यहां टायर की नई शुरुआत ना होकर आदमी के  काम की ही छुट्टी हो जाती है ।

आसपास नजर दौड़ाने पर ऐसे बहुत से टायर माफ कीजिएगा रिटायर सज्जन पुरुष ध्यान में आने लगे जो हमारी मानसिक शांति के लिए उपयुक्त हो सकते थे यहां वृद्ध शब्द की अवधारणा उनकी चेतना के आगे सटीक न बैठती , क्योंकि वृद्ध होने का उम्र के आंकड़ों से कोई वास्ता नहीं , इसलिए उनके लिए इस या इसके पर्यायवाची शब्दों​ का प्रयोग मेरे द्वारा प्रतिबंधित है। 

बड़े शहरों से लेकर कस्बों तथा गांव में रहने वाले इन जैसे ज्ञान की खान को छोड़कर यदि हम अपने प्रत्येक सवाल उस गूगल से ढूंढते हैं तो यह हमारा दुर्भाग्य ही है । खैर आखिर में हमारा सारा ध्यान उन सेवानिवृत्त पुरुषों पर था जो अपने घर की  ललिता पवार की सेवा से अभी भी निवृत्त नहीं हो पा रहे थे , और दिन भर के थके हारे अपने दोनों कानों को बहलाने संध्या  बेला पर निकला करते थे । कभी-कभी ऐसे पुरुषों के लिए महापुरुष शब्द भी लघुता को प्राप्त होता है । आज के वर्तमान परिदृश्य में जहां छोटी-छोटी बातों पर पति पत्नी के बीच नित्य ही लड़ाई झगड़े आम हैं , वहीं ऐसे पुराने बरगदो ने  ताउम्र क्रोध को अपने पास फटकने ना दिया और ना केवल अपनी गृहस्थी बल्कि अपने संपूर्ण परिवार की एकता व अखंडता को विषम परिस्थितियों में भी बनाए  रखना सुनिश्चित किया । चाहे वह छोटे भाई का हुड़दंग हो या बीवी की किचकीच के अलावा पिताजी की फटकार ही क्यों ना हो इन सब में भी इन्होंने अपना सामंजस्य और मानसिक संतुलन बनाए रखा ।

कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकला कि संध्या काल की बेला पर ही हमें ऐसे महापुरुषों के दर्शन हो सकते हैं । इसलिए सर्वप्रथम एक सज्जन पुरुष का रूप धर के ही हमने उनसे भेंट करना उचित समझा । हमने अपनी कटप्पा वाली दाढ़ीयों को काटना मुनासिब समझा और आयुष्मान खुराना बन अपने अमिताभ बच्चन की तलाश में निकल लिए।

आखिर ढूंढने से तो भगवान भी मिल जाते हैं फिर इंसान क्या हैं । मोहल्ले की मेन सड़क पर स्थित चाय की दुकान में हमे बगल की गली वाले उन वर्मा जी में अपनी पूरी संभावना नजर आई जो अपनी राबड़ी देवी के लिए तरकारी (सब्जी ) लेने निकले थे और चाय के दो प्यालो के साथ एक प्लेट प्याज की गरमा गरम पकौड़ियां धनिया की चटनी के साथ ठिकाने लगा चुके थे।

सर्वप्रथम तो नजर मिलने पर उन्होंने अपनी तटस्थता बरकरार रखी परंतु जब मैंने झुक कर उनका अभिवादन किया तो उन्होंने मधुर मुस्कान के साथ दाहिना हाथ ऊपर करते हुए मजबूती से अपनी प्रतिक्रिया दी । जब मैं उनके पास कुर्सी खींचते हुए बैठने लगा तो उन्होंने बैरे से एक चाय की प्याली और लाने का आदेश दिया । 

 हां तो मैंने भी वर्मा जी का हाल चाल लेते हुए अपनी जिज्ञासा उनके सामने रखने में तनिक भी देर नहीं की सर्वप्रथम तो वह ध्यान से सुनते रहे परंतु कुछ छण पश्चात उनके चेहरे की चमक फीकी पड़ने लगी और सवाल के खत्म होने पर वह मेरी ओर टकटकी लगाए देखे जा रहे थे तो सवाल यह था कि

 ऐसी क्या वजह है कि कुछ ही दशकों पूर्व से चली आ रही संयुक्त परिवार की अवधारणा खत्म होने के बाद , एकल परिवार के पुत्र पिता व मां को अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते , या जिम्मेदारी शब्द को हटा भी दे तो क्या​ ज्यादातर पुत्र और पुत्रवधू के लिए पिछली पीढ़ी उनके परिवार का हिस्सा नहीं होती , और यदि कुछ जगह साथ-साथ हैं तो भी उपेक्षा का शिकार क्यों है । 

अचानक ही मुझे ध्यान आया कि समाजशास्त्र के नामी प्रोफ़ेसर वर्मा जी के पास इन सवालों के जवाब होते हुए भी वे उसे व्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि बाहर रहने वालें​ उनके दोनों बेटे विगत 10 वर्षों में एक बार भी उनका कुशलक्षेम पूछने नहीं आए शायद उनके साथ वर्मा जी भी उन्हें भूल चुके थे और आज मैंने अपनी जिज्ञासा हेतू उनकी खोई हुई अभिलाषा की याद दिला दी , अब मेरी जिज्ञासा  ग्लानी में बदल चुकी थी ।

korona and lockdown

कोरोना और लाकडाउन 





लॉक होके डाउन होना जिनको पसंद नहीं है उनके लिए  लॉकअप की सुविधा आसानी से उपलब्ध है।  आसपड़ोस क्या होता है और नए मेहमान का स्वागत हम कैसे करते है लॉकडाउन में पैदा होने वाले बच्चे कभी नहीं जान पाएंगे । कुछ लोग सेहत पर ध्यान दे रहे है तो कुछ नए तरह की पागलपंती करते हुए दिख जायेंगे लेकिन उनका क्या जो बिना कुछ किये ऐसे लम्हो को जाया कर रहे है । 



खैर कोरोना है तो सब खैरियत है , सड़को पर दुर्घटना नहीं हो रही , जालंधर  से हिमालय दिखने लगा , यमुना और अन्य नदिया स्वच्छ होने लगी , महानगरों के  छोटे बच्चो को दादा - दादी क्या होते है छू कर पता लगाने का मौका मिला और तो और पुरुषो के अंदर के संजीव कपूर ने आलू , बैगन पर करतब दिखाना शुरू कर दिया , बची खुची कसर रामायण ने शुद्ध हिंदी सीखकर पूरी कर दी। 

समझ से परे तो यह रहा की महिलाओ ने चुगलियों के इस अथाह सागर को छोटे से उदर में कैसे समाहित कर के रखा हुआ है जिसका आकर समय की धारा में दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। वस्तुओ के आदान प्रदान से सुगन्धित आस पड़ोस के रिश्ते कैसे स्वयं को प्रसार भारती होने से रोके हुए है।  उन भक्तो का तो और भी बुरा हाल है जो प्रतिदिन मंदिर की आरती में अपनी उपस्थिति कार्यालय की उपस्थित से ज्यादा सुनिश्चित किये रहते है।  चाय की दुकानों के वे रणबांकुरे जो पल भर में इस देश की सरकार गिराने का माद्दा रखते थे खुद की सरकार की निगरानी में घरो में कैद है उनपर तो मानो वज्रपात ही हो गया। पान को ईश्वर का भोग और पंसेरी को ईश्वर का दूत समझ कर दिन भर पान का भोग लगाने वाले पीके  सरीखे मानवो की पीक ( थूक ) से दीवारे और सड़के रंगविहीन हो चुकी है। 

 अब इस रंगविहीन दुनियां को चाइना की छालरो से रंगीन भी नहीं बना सकते।  इतने दिनों से सांप सीढ़ी खेलने पर यह समझ में नहीं आया की कैसे सौंवे स्थान पर रहने वाला आदमी विजयी होता है और पहले या दूसरे  स्थान पर रहने वाला आदमी हार जाता है । 

जहाँ एक तरफ इस बिमारी के इलाज में डॉक्टरों और पुलिसकर्मियों की संयुक्त टीमें मुस्तैदी से अपनी भूमिका निभा रही है वही दुनियां से हल्के होने के चक्कर में कुछ लोग इसे हल्के में ले रहे है। खैर सरकार के पास इसके हर रूप के इलाज की व्यवस्था है और हमारे पास इससे बचने का उपाय जिसे मानना या ना मानने का असर हमारे और हमारे परिवार के अतिरिक्त सम्पूर्ण समाज पर पड़ सकता है।  इसलिए हठधर्मिता छोड़े और बचाव धर्म का पालन करे। 

hoshiyar ki talash


होशियार की तलाश 


शरीफ आदमी की तलाश करते - करते ना जाने कितने ही  शराफत वालो के असली रंग देखने को मिले।  शरीफ दिखना और शरीफ होना इस फर्क को समझने में दिमाग  की कई नसों ने काम करना बंद कर दिया । वास्तव में आज बेवकूफ कोई भी नहीं है , लेकिन फिर भी होशियार लोगो की कमी देखने को मिलती है ।  होशियारी की परिभाषा जानने के लिए जब बुजुर्गो का अनुभव लेने पहुंचे तो पता चला की , आज के युग में जो पैसा कमा रहा है ,चाहे माध्यम कोई भी और कैसा भी क्यों ना हो वो सबसे होशियार है।  हालांकि ऐसे अनुभव बांटने वाले खुद अपने बेटे - बहु पर आश्रित थे । कुछ के अनुसार दूसरो से चालाकी पूर्वक काम निकालने वाला भी आज के युग में होशियार की उपाधि धारण करता है। 


कुछ सज्जनो ने आपस में विचार विमर्श के फलस्वरूप  ऐसे लोगो को होशियार बताया जो सरकारी नौकरी करते हुए घर से दूर एकांत में परिवार ( धर्मपत्नी ) के साथ जीवन यापन कर रहे है । ना घर पर रहेंगे ना रिश्तेदारों से लेकर नातेदारों का कोई चक्कर रहेगा । 

महिलाओं की राय इतर थी।  उनके अनुसार वह बहु ज्यादा होशियार है जो शादी के बाद बेटे के साथ चली जाती है और घर पर सास - ससुर का हाल - चाल लेने के लिए हफ्ते में एक बार जिओ के मोबाईल से आमने - सामने बतिया लेती है , हाँ दिखावटी मिठास में कोई  कमी नहीं करती । 

इन तथ्यों से मुझे यह समझ में आ गया की होशियार वही है जिसने अपनापन , दया , मर्यादा , लज्जा , सेवा , मृदुता ,फर्ज और कर्तव्य जैसे अवगुणो का त्याग करते हुए अवसरवादिता , घमंड , लालच , निष्ठुरता , कटुता या कठोरता के साथ धोखा देने जैसे सद्गुणों को अपना लिया है। 

मैंने इतिहास को थोड़ा टटोलने की कोशिश की तो पता चला कबीर गरीब होते हुए भी होशियार थे और सिकंदर विश्व विजेता होने के बावजूद भी नासमझ था। 
अपना काम किसी भी सूरत में निकलने वाले को इतिहास ने मतलबी और और इसकी हद पार करने वाले जयचंद जैसो को गद्दार कहा है।
पारिवारिक  जीवन में ऐसी बहुओं को समाज में कोई इज्जत नहीं दी जाती थी जो अपने घर की मान मर्यादा के साथ बड़ो की सेवा ना करती हो।  इन बड़ो में चचेरे सास - ससुर से लेकर सम्पूर्ण कुटुंबवासी आते थे। 

इतिहास और वर्तमान की बदली हुई यह परिभाषा कहीं  ना कहीं समाज की उस बदलती सोच को दिखाती  है जिसमे जाने - अनजाने खुशियों की नई परिभाषा गढ़ी गई है। और हमरा  मन उसी को पाने की लालसा कर बैठता है।  समाज, परिवार से मिलकर बनता है और परिवार उसके सदस्यों से , सदस्यों को तोड़ कर परिवार का विघटन जारी है और इसी के साथ ही समाज का खोखलापन भी। 

मेरी होशियार की परिभाषा की तलाश जारी है क्योंकि समाज का जो अंश बचा हुआ है, वो निश्चित तौर पर किसी बेवकूफ के भरोसे तो नहीं चल रहा होगा। 




bhai sahab



भाई साहब 

bhai sahab


बचपन से ही भाई साहब का अस्पष्ट नजरिया हमेशा ही मुझे कुछ दुविधा में डाले रहता था । उधर  भाई साहब  इसके उलट  मुझे ही आरोपित किया करते थे । उनके अनुसार मैं लापरवाह और सामाजिकता की गहराई में डूबा हुआ ऎसा इंसान  था जिसने अपन बहुमूल्य समय इन्ही बेफजूल के  कार्यो में व्यर्थ कर दिया  । भाई साहब के लिए समय की परिभाषा अलग थी , अगर उन्हें मुझे समय देना पड़े तो उनकी व्यस्तता प्रधानमंत्री को भी मात दे देती है । यहाँ उनकी प्रेरणा स्त्रोत धर्मपत्नी की बात ना की जाये तो परिवार पुराण कुछ अधूरा सा लगता है । भाभी जी भी व्यस्तता में भाई साहब से कम ना थी, चादर बिछाने से लेकर टीवी का रिमोट ढूंढने तक ना जाने ऐसे कितने जटिल काम थे जो उनकी दिनचर्या से ऊपर थे और उनकी व्यस्तता बढ़ाते थे ,हालांकि मायके पक्ष के सन्दर्भ में उनकी व्यस्तता उसी तरह रफूचक्कर हो जाती थी जिस तरह घर के महत्वपूर्ण अवसरों पर  भाई साहब की उपस्थिति । 

भाई साहब का दर्शन मैं आजतक नहीं समझ पाया भावनाये कभी उनपर हावी नहीं हो पाई हालांकि भाभी जी की भावनाये उनपर जरूर हावी रहती थी।  खुशनसीबी यह थी की ईश्वर की कृपा उनपर बराबर बनी  रही और उनके महत्वपूर्ण कार्य स्वतः ही होते चले गए , हालांकि इन कार्यो का श्रेय भी भाभी जी ने ईश्वर से हटाकर खुद पर ले लिया था ,वैसे  शुरुआत ईश्वर से ही होती थी परन्तु वार्तालाप की अंतिम यात्रा में ईश्वर ठीक  पीछे उसी प्रकार छूट जाते थे जिस प्रकार गांव की पगडंडियों से गुजरने वाली बारात में दूल्हा ।  कभी - कभी तो मुझे ईश्वर पर भी दया आने लगती थी , मैं कितना सोचता था की ईश्वर को किसी बात का श्रेय दूँ , परन्तु भाई साहब की बातो से लगने लगता ईश्वर कुछ नहीं करते, आदमी जो करता है उसे निश्चित रूप से होना ही है । 

भाई साहब को दूसरो को प्रसन्न करने की अदभुत कला थी , हालाँकि यह प्रसन्नता मौखिक रूप से ही होती थी व्यवहारात्मक रूप से इस प्रसन्नता का 90 % हिस्से का स्थानांतरण उनके ससुराल पक्ष में होता और काफी कुछ सुनने के बाद 10 % बाकियो के हिस्से में आता । मुझे भाई साहब से कभी कोई शिकायत नहीं रही क्योंकि बाल्यावस्था से ही मुझे उनकी प्रकृति की आदत सी  हो गई थी ।  वैसे भाई साहब ने कई जगहों पर मेरी मदद अवश्य की थी परन्तु अपनत्व का नमक निकालकर ।  वैसे मैं यह नमक आवश्यकता से अधिक घोल देता था जिसकी वजह से मुझे खुद कभी काल स्वयं पर ग्लानि होने लगती थी ,  वैसे यह आवश्यकता से अधिक मेरे अनुसार नहीं होता था। 

भाई साहब की नजरो में बुद्धिजीवी बनना और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होना एक ही बात थी । वैसे अभी तक यह सम्मान उन्ही को प्राप्त हुआ है जिनकी नजरो में भाई साहब खुद सुकरात या प्लूटो से कम नहीं थे।  भाई साहब द्वारा एक नए दर्शन का ईजाद किया गया, जिसे आधुनिक युग का  द्धिज आचरण सिद्धांत कहा जा सकता है । मैं भाई साहब के दर्शन के पहले अध्याय में ही अनुत्तीर्ण हो जाया करता था जिसके अनुसार व्यवहार लाभकारी और बचतकारी होना चाहिए,  बचतकारी में समय और अर्थ दोनों आते थे।  परन्तु यह बात मेरे पल्ले कभी नहीं पड़ती और शायद मैं यह दोनों ही गँवा बैठता । 

दर्शन के दूसरे अध्याय के अनुसार बातो से महत्ता बताकर दूसरो को भ्रम में रखना और टेढ़ी - मेढ़ी पगडंडियों से घुमाने के बाद  कार्य की जटिलता या कार्य करने में  असमर्थता प्रकट करना मनुष्य का एक सामान्य लक्षण होना चाहिए और  कभी - कभी  ऐसे अवसरों पर मौन व्रत भी रखा जाना चाहिए। भाई साहब ने इस अध्याय को सम्पूर्ण रूप से आत्मसात कर लिया था और और साथ में उनकी  जीवन संगिनी ने भी  ।  वैसे इसे मेरी तरह सीधे शब्दों में " ना " या " हां " बोलने की जहमत और कार्य की प्रकृति पर चर्चा के साथ  उसे हल करने की नीयत से भाई साहब कोसो दूर भागते थे और मुझे अपने इस गुण  के कारण कई जगह भाई साहब द्वारा मूर्ख घोषित कर दिया जाता । 


मुझे भाई साहब का दर्शन अवसरवादिता और संवेदन शून्य सा लगता, हालाँकि भाई साहब संवेदनशील भी थे परन्तु उनके लिए जो मेरी नजरो में इंसानियत के आम गुणों से अभावग्रस्त थे। मेरा अपना कोई दर्शन नहीं था , जिसने मदद मांगी उसकी मदद की भले ही वह उस काबिल हो या  ना हो कम से कम ईश्वर ने तो मुझे इस काबिल बनाया ही होगा । समाज में कुछ समय रूपी धन स्वयं की मर्जी से खर्च किया , शायद आत्मा और मन को प्रसन्नता अवश्य मिली होगी ,परन्तु इस ख़ुशी को पाने के चक्कर में वह दौड़ छूट गई जिसके भाई साहब विजेता थे।  जिस दौड़ में आज हर इंसान शामिल है तथा  आगे बने रहने के लिए भाई साहब के दर्शन को अपनाता है , और मेरे जैसा इंसान उनकी नजर में पढ़ा लिखा तो रहता है लेकिन अक्लमंद नहीं रहता ।   

    

इन्हे भी पढ़े - गरीब और सरकार  

budhapa

बुढ़ापा 



बूढ़ा हो चला हूँ मैं
सब कहते है घर का कूड़ा हो चला हूँ मैं

आजतक मशीन की तरह काम करता गया
अपने साथ अपने संस्कारो का नाम करता गया

औलादो को भी तो वही दिया था मैंने
जाने कहा बदल लिए संस्कार उन्होंने

बचे हुए सफ़ेद बालो के साथ
कमजोर और बेसहारा मेरे हाथ

लकड़ी का एक टुकड़ा ढूंढ रहे है
शायद अब अपनों के साथ छूट रहे है

सिकुड़ती चाम , टूटते दांत
कमजोर निगाहें , पिघलती आंत

शायद अपने  अंत के कुछ करीब जा रहा हूँ मैं
मधुमेह ,रक्तचाप और मोतियाबिंद की दवा खा रहा हूँ मैं

मेहमानो  के उपहास का पात्र
कभी था एक होनहार छात्र
बुढऊ कहकर अब समाज बुलाता है
ऊपर से मंद - मंद मुस्कुराता है

शारीरिक दुर्बलता से ग्रसित मेरा शरीर
मानसिक दुर्बलता वालो से क्यों घबड़ाता है
थोड़ा ठहरो तुम सब भी
देखो इस बुढ़ापे से कौन बच पाता है



इन्हे भी पढ़े  - गरीब (कविता )

goverment and poor


गरीब  और सरकार


मीडिया सब कुछ दिखाती है , उसे चटपटी खबरे दिखाने में मजा आता है। लेकिन गरीब की जिंदगी में शायद कुछ चटपटा नहीं होता।  जीएसटी का उसकी जिंदगी से कोई वास्ता नहीं होता , धर्म उसका हिन्दू - मुस्लिम ना होकर दो जून की रोटी का इंतजाम करना होता है। साहब लोगो की दया का पात्र होता है , नेताओ की वोट बैंक का वो हिस्सा होता है जो सिर्फ बटन दबाने तक ही सिमट कर रह जाता है।



कई लोग गरीबी को गँवारपना से भी जोड़ कर देखते है लेकिन यह भूल जाते है की यह गँवारपना उसकी गरीबी नहीं उनकी अमीरी है। फैक्ट्री में काम करने वाला मजदूर सिवाय दो वक़्त की रोटी के अतिरिक्त इतना धन नहीं बचा पाता की वह अपने बच्चो को अच्छी तालीम दिलवा सके।  सरकारी स्कूल तो जरूर है लेकिन वहाँ मोटी तनख्वाह लेने वाले शिक्षक  अपना मूल कर्तव्य केवल तनख्वाह बढ़ोत्तरी के लिए होने वाले धरना प्रदर्शनों को ही मानते है। सरकार उनकी तनख्वाह तो बढाती है लेकिन वे अपना काम अच्छे से कर रहे है या नहीं इससे आँखे मूँद लेती है क्योंकि शायद उसमे पढ़ने वाले बच्चे गरीब घरो के जो ठहरे।  उनके अभिभावक शिकायत करे तो किससे , जितना समय वह शिकायत करने और इस व्यवस्था को झेलने में लगाएंगे उतने वक़्त उन्हें भूख भी बर्दाश्त करनी पड़ेगी।

सरकारी स्कूलों के शिक्षक कभी इस बात के लिए धरना नहीं देते की उनके स्कूल के बच्चे टाट - पट्टी पर क्यों बैठते है , उनके स्कूल में शुद्ध जल और कम्प्यूटर की व्यवस्था क्यों नहीं है। क्यों उनके स्कूल के बच्चो का परिधान अंग्रेजो के जमाने की वर्दी की तरह लगता है।

उद्योगपतियों और पेट्रोल - डीजल में होने वाला घाटा तो सरकार को दिखता है लेकिन खेती में होने वाला घाटा सरकार को नहीं दिखता। महँगी गाड़ियों के लिए किसानो की जमीन लेकर  एक्सप्रेस वे का तो निर्माण होता है लेकिन सूखे पड़े खेतो के लिए नहरों का निर्माण नहीं होता। क्या उन एक्सप्रेस वे पर कोई किसान खेती से होने वाले लाभ से  गाडी खरीद कर चल सकता  है।

आपके स्मार्ट शहरो और बुलेट ट्रेन की परिकल्पना तब तक बेकार है जब तक आम इंसान उसमे रहने और चलने लायक नहीं हो जाता।  वह तो शहर में आने के लिए भी सौ बार सोचता है की किराए में लगने वाले पैसो का इंतजाम कहा से करेगा , फिर वह गुजरात जाकर मूर्ति के दर्शन कैसे कर सकता है जिससे आपके राजस्व की वसूली हो।

देश में कंक्रीट के और झोपड़पट्टी दोनों ही प्रकार के मकानों की संख्या बढ़ रही है।  चिंता झोपड़पट्टी वाले मकानों की है जहा गर्मी में एक चिंगारी उनके सर की धुप तेज कर सकता है। सरकार की तरफ से चलाई जाने वाली योजनाओ की जमीनी सच्चाई जमीन पर जाकर बखूबी देखीं जा सकती है। रोज - कमाने और रोज खाने की जद्दोजहद से जूझता यह वर्ग इस बात पर कब जागरूक होगा की चुनावों में मुद्दे उसकी चिंताओं से जुड़े होंगे नाकि उसकी जाति से। 







construction of pauses and rites

ठहराव और संस्कारो का निर्माण 


  

ठहरना जरुरी है , भागते रहोगे तो  ठहरने का मजा क्या जानोगे


पड़ाव का अर्थ होता है कुछ दूर चलने के बाद ठहरने वाली जगह।  जिंदगी में गतिशीलता भी उतनी जरुरी है जितना की ठहराव। अगर हम बचपन से लेकर जवानी और जवानी से लेकर बचपन तक भागते ही रहे , तब हमें कैसे पता चलेगा की क्या बचपन था और क्या जवानी। बचपन कुछ वक़्त के लिए ठहर के हमें बचपना करने का मौका देता है , जहाँ तनाव के लिए कोई जगह नहीं होती।  उस बचपन की पीठ पर 10 किलो का बस्ता किसी तनाव से कम होता है क्या ।


दरअसल यह एक प्रतिस्पर्धा है की फलां का बेटा 2 साल में ही दस कविताये याद कर चुका है , और हमारा बेटा अभी तक ढंग से बोलना भी नहीं सिख पाया।  यहाँ समझना यह आवश्यक है की  बच्चो को उनकी उम्र के अनुसार ही बढ़ने देना चाहिए ,समय से पहले तो सब्जियाँ  भी अच्छी नहीं लगती । बाकी आप संस्कारो का समावेश जारी रखे तो ज्यादा बेहतर है ,बजाय इसके की उसे बिना मतलब की दौड़ में शामिल करके।  यदि इस प्रकार की नक़ल लोग बंद करना शुरू कर दे तो धीरे - धीरे सम्पूर्ण समाज में बदलाव आना शुरू हो जायेगा क्योंकि हम नकलची जो ठहरे।



संस्कार और अपनत्व की जगह क्रमशः मशीनीकरण और समय के अभाव ने ले लिया है।  बदले में जब आपके पाल बड़े होते है तो इसी मशीनी भाषा को बोलते हुए आपको समय नहीं दे पाते तो आप खीझ उठते है ।  जिन घरो में संस्कार और अपनत्व की बयार बहती है ,वहाँ के पाल्य अपने अभिभावकों को बदले में यही देते है , अब अपवाद तो हर जगह होते है।

धन से सुख तो होता है परन्तु वह भौतिक होता है परन्तु आत्मिक सुख अंदर स्थित आत्मा तक को तृप्त करता है। अपनत्व कभी भी ख़रीदा नहीं जा सकता , संस्कार एक दिन में किसी के अंदर भरे नहीं जा सकते। हमें बस अपने बच्चो को दी जाने वाली परवरिश में ध्यान रखना है की हम उन्हें कैसे समझा सकते है की धन,  गुण , संस्कार , अपनत्व  और सामाजिकता का उचित क्रम क्या होना चाहिए। 

धन की लालसा वही तक , आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति जहाँ तक। धन के लोभ के साथ - साथ इससे उत्पन्न अहंकार से भी बचने की कला आनी चाहिए। यही वर्तमान में हमारे द्वारा किये गए प्रयास भविष्य के  भारत  और  एक  स्वस्थ समाज  का निर्माण करेंगे। 


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मन , हम  और बदलता मौसम 


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नौकरी का झमेला और शहरो में परिवार चलाने की कशमकश में मन हमेशा इसी उधेड़बुन में लगा रहता है की, क्या वह समय भी आएगा जब घडी की सुइयों में  9 - 6  के बीच खून और दिमाग दोनों को जलाने के बाद  तनाव रहित फुर्सत के पल  इस शरीर में वास करने वाली आत्मा को भी  मिल पायेगा। 

शरीर तो चूँकि एक ऐसी  मशीन बन चुकी  है जो की धन को साधने हेतु  होने वाली प्रक्रिया से नियंत्रित होती  है। भावनावो के विसर्जन के फलस्वरूप ही प्रभु प्रदत्त काया का ऐसा विनिर्माण संभव हुआ है जिसमे प्रभु भी आस्था का माध्यम ना होकर दिखावटी  फैशन का नया आयाम बन चुके है।  समय के साथ  मनुष्यो ने एक नई संस्कृति का विकास कर लिया है जिसको हम दोहरे आचरण के रूप में जानते है।

पहला  चरण  वाह्य चरण का है , जिसमे वह अपनी ऐसी काया का निर्माण करता है जोकि सामाजिक रूप से जानी जाये ( केवल पहचानी जाए )  नाकि वह कार्यसंगत हो। 

दूसरा चरण अंदरूनी चरण है जोकि मनुष्य का वास्तविक स्वरुप है और इसको ज्ञात करना ब्रह्मा  के पेट के रहस्य को ज्ञात करने से ज्यादा दुष्कर है। और सारे कार्य इसी चरण के अनुसार क्रियाशील होते है। 

पेट के  पापी होने के  सवाल की लम्बाई अब पापी मन तक बढ़ चुकी है।  पापी मन को अब पेट भरने के साथ - साथ अन्य कई कार्यो में लगना पड़ता है। जावेद हबीब के सैलून  से लेकर मैकडोनाल्ड  के बर्गर तक और एप्पल से लेकर फ्लिपकार्ट के फैशन तक  ना जाने पापी मन कहाँ - कहाँ तक पहुँच चुका है । 


कुछ सीधे सादे मन अभी भी 20 - 30  रूपये में दाढ़ी  और बाल बनवाने के बाद नाक और मूंछ के बाल कटवाना नहीं भूलते। हालंकि इस प्रकार के मन, छोटे शहरो और गांव की दहलीज को पार करना ठीक उसी प्रकार समझते है  जैसे बाबर हिन्दुस्तान के वैभव को देखकर यंहा खिंचा तो जरूर चला आया था, परन्तु  इस बात से अनजान था की  गैर मुल्क में उसकी हैसियत एक खानाबदोश के सिवा कुछ नहीं। 

ये मन अभी भी इस बात पर यकीं करते है की चौराहे की वह  सियासत जिसमे धनिया की चटनी के साथ  गरमागरम गोभी और प्याज के पकौड़े  हो ,का मुकाबला नौटंकी से दिखने वाले  न्यूज़ चैनलों के कानफाडू डिबेट कभी  नहीं कर सकते  जिसमे एंकर कॉफी की चुस्की के साथ दी गई स्क्रिप्ट को अमल करवाने का प्रयास करते है । 

खुद को धुरंधर समझने वाले संबित पात्रा से लेकर राजबब्बर तक  और प्रियंका चतुर्वेदी से लेकर सुधांशु द्धिवेदी तक के पास उनके सवालों के जवाब मिलना नामुमकिन है। पकौड़ी के बाद मिट्टी के  भरूके में मिलने वाली चाय, सभा के अंतिम चरण का ईशारा करती  है।  जिसके साथ ही घरेलु समस्याओ के निराकरण की व्यवस्था पर चर्चा होती है । फैशन के नाम पर मिश्रा जी के  नए कुर्ते का रंग और शर्मा जी के नए चश्मे के सजीले फ्रेम पर कुछ चर्चा ठिठोली स्वरुप अवश्य हो जाती है। इन सब के बीच तनाव रूपी खरपतवार के वह  बीज जिनकी बड़े शहरो में पूरी फसल पक कर तैयार रहती है ,के कही भी अंकुरित होने की गुंजाईश नहीं रहती। 

उधर पापी मन शाम को थकेहारे शरीर के साथ झूलता चौखट में प्रवेश करता है , और आरामदायक कुर्सी पर गिरते उम्मीद करता है की कहीं से एक प्याली चाय की मिल जाये ।  कहीं से इसलिए क्योंकि घर की एकलौती महिला सदस्य भी  इस देश की कार्यशील वर्ग में शामिल हो चुकी होती है ।  दोस्तों के नाम पर कुछ स्वार्थसिद्ध लोगो के समूह से  चर्चा  या विमर्श हेतु समय माँगना यानी ना सुनना  । मनोरंजन हेतु  टेलीविजन के माध्यम से समाचार सुनना और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को सुनना कुछ एक सा लगता है। डिबेट में तो सारे तथ्य(औचित्यहीन ) निकलकर सामने आ जाते है सिवा निष्कर्ष के। 

अंत में शरीर को धकेलते हुए रसोई की चौखट में प्रवेश कर चाय बनाते हुए जीवन के इस एकाकी स्वरुप में भी उसे समझ में नहीं आता की क्या वह जिंदगी को जी रहा है या फिर मशीन बनने के उस अंतिम चरण में प्रवेश कर चुका है जहाँ से उसका वापस आना असंभव है। 

  
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बड़े शहरो में बहती नई पुरवाई 


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रिश्तो की मौलिकता के साथ ही महसूस होने वाला अपनापन, बड़े शहरो में बदली हुई परिभाषा के साथ स्वार्थ , पैसा और हित  साधने के एक माध्यम के अलावा कुछ और नहीं।  बड़े शहरो का छोटापन और छोटे शहरो का बड़प्पन   इसकी संवेदनशीलता को  बखूबी बयां करते है। 

मशीनी मानव के पास इतना समय ही कहा की वो दिल से सोच पाए। घर से ऑफिस और ऑफिस से घर की भागमभाग में निकलती जिंदगी के पास जब थोड़ा समय होता है तो वह थके हुए शरीर को राहत देने में निकल जाता है।  अगर कुछ समय  बच गया तो परिवार ,जिसमे सिर्फ बीवी और बच्चे शामिल होते है उनके हिस्से चला जाता है।

ख़ुशियों का पता अब नए - नए पिकनिक स्पॉट , मॉल , रेस्त्रां , फॉरेन ट्रिप , सिनेमा और मोबाईल ने ले लिया है। दादा - दादी और नाना - नानी की कहानियो को  छोड़िये, अब तो इनकी स्वयं की कहानी ही हर घर में मार्मिक होते जा रही है।   लाइफ इन ए मेट्रो और बॉलीवुड की अन्य फिल्मो में बड़े शहरो की सच्चाई अभी उतनी ही दर्शाई गई है जितनी तीन घंटे की फिल्मो  में दिखाई जा सकती है। असल में किस्सा उससे कही आगे बढ़ चुका है।  

रास्ते से लेकर नाश्ते की टेबल तक में ही  इंसान  का धैर्य उसके साथ नहीं रह पाता ,उसे तो बात - बात पर धैर्य खोने की आदत सी पड़ गई है। वह इतना धैर्य कहाँ रख पायेगा की बूढी  माँ जब तक अपनी व्यथा उससे कहे तब - तक वह बैठकर सुनता रहे। 

भारतीय संस्कारो की तिलांजलि(त्याग)  देकर पाश्चात्य सभ्यता का दामन थामना ठीक उसी प्रकार है जैसे पिता को डैडी और माँ को मॉम में बदलना। जिस प्रकार का लाभ  रोटी की जगह पिज्जा खाने से मिलता है उसी प्रकार का लाभ पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने से मिलता है। 


ना अब आप किसी से मजाक कर सकते है , ना अपने दिल की बात को बाहर कर सकते है , अगर आपने ऐसा कर दिया तो आप खुद ही मजाक बन जाएंगे।  एक शब्द है ढीठ जितनी जल्दी इसकी परिभाषा समझ कर इसे अपना ले उतनी जल्दी आशा है की आप भी इस बहने वाले नए बयार में अपनी जगह बना लेंगे। 

छोटे शहरो और गांवो ने ही आज भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति की लौ जलाये रखी है। परन्तु वहां के मौसम में  भी पाश्चात्य सभ्यता की हवा के झोंके देखे जा सकते  है। ऊँची एड़ी की सैंडिल पर संभल कर चलती छोटी लड़कियां , बीयर की शॉप पर मॉडल लड़के ,पाउच वाली सेल्फी ,डूड और ब्रो जैसे शब्दों के साथ ही फेसबुक और व्हाट्सअप पर अपडेट होती स्टेटस को देखकर लगता है वह दिन दूर नहीं जब वीडियो कॉलिंग से ही बहन, भाई की कलाई पर राखी बांधेगी और बेटा आजकल के कथित प्रेम विवाह के बाद फेसबुक पर फोटो लगाकर माँ - बाप और दूसरे रिश्तेदारों को टैग करेगा। 



lndian boys


लौंडे 


भोजपुरिया क्षेत्र की समस्या बहुत ही निराली है या कह सकते है की अधिकांश भारतीय क्षेत्र की ।  लौंडे ज्यादा हो गए है और सड़के हो गई है कम , बेचारे अपनी रफ़्तार को कैसे नचा - नचा के  कंट्रोल  करते है, यह कला तो पूछनी ही पड़ेगी।  

ये माचो कट मगरमच्छी बाल  ...... साथ मे  तिकोनी , कोन वाली आइसक्रीम की तरह दाढ़ी  ...... मोबाईल के एप  तो रोज इंस्टाल और अनइंस्टॉल होते रहते है ।  पार्टी  , भाई गिरी  , सेल्फी  और  सेल्फी विवरण तो वाकई दिल दहलाने और  पढ़ने लायक होता है।  इसके  कुछ उदहारण इस प्रकार है -  छोटे भाई के साथ पैजामा ठीक करते हुए बड़े भाई का सानिध्य प्राप्त करने का अवसर मिला ,  आज बड़े भाई के घर पर उनकी माता की पुण्यतिथि में , पूज्यनीय और परम आदरणीय संभ्रांत बड़े भ्राता जी के साथ एक सेल्फी , आज गांव में चूहामार दवा का वितरण करते हुए , एक कप चाय की प्याली छोटे भाइयों के साथ।  इतना आदर तो अपने सगे भाइयो के लिए नहीं रहता है जितना  इन सेल्फी वाले भाइयो के लिए होता है। 


कुछ सवाल जो इनके क्रोध को बढ़ाते है।  

बेटा क्या कर रहे हो  ? 
सेमेस्टर या परीक्षा में कितने नम्बर आये थे  ?

lndianboysकल किन लफंगो के साथ घूम रहे थे  ?

अभी से स्मार्टफोन की क्या जरुरत है ?          
पढाई क्यों नहीं करते  ?
नौकरी क्यों नहीं करते ?

इससे ज्यादा सवालो को  बर्दाश्त करने की क्षमता इनमे नहीं होती , आगे सवाल पूछे जाने पर अपनी सलामती के जिम्मेदार आप स्वयं है। 

चौराहा संस्कृति  आजकल इनकी  पाठशाला का एक प्रमुख हिस्सा  है। पकौड़ो के ठेले , चाय की दूकान , पान की गुमटी पर इनकी राजनीतिक और सामाजिक समझ का नमूना आसानी से मिल जाता है। 

विभिन्न पार्टियों का झंडा पता नहीं कितने दिन और कितने दिनों का रोजगार  इन्हे सुलभ कराता रहेगा भगवान् ही मालिक है । कम समय में प्रसिद्धि पाने की चाह  में खुद ही बड़ी - बड़ी बाते छोड़ते हुए  बड़ा बनना , लो क्लास वाले लड़को का चश्मा और फैशनेबल कपड़ा पहनकर अमीर दिखना,  चेहरे से मुस्कराहट का गायब होना और अकड़ वाकई देखने लायक होती है। चाल  तो इनकी ऐसी की आप डर के कहीं दुबक जायेंगे, बाद में भले ही इनके बारे में जानने के बाद सीना चौड़ा करते हुए सामने आ जाये।  वैसे ये भी मानते है की फर्स्ट इम्प्रेसन इज लास्ट इम्प्रेसन।  लेकिन गलती से इनको कहीं छेड़ मत दीजियेगा  क्योंकि इनको झुण्ड में बदलते समय नहीं लगता। 

वैसे गजब का हौंसला  और धैर्य है इनके अभिभावकों का  एक बार  " कोटिश धन्यवाद " तो उनको बनता ही है की इतने जिम्मेदार और होनहार नौजवानो को इतने बेहतरीन ढंग से भारतीय संस्कृति और सामाजिकता का पाठ पढ़ाया है। अगर उन्होंने नहीं पढ़ाया तो कहीं ना कहीं पढ़ने तो भेजा ही होगा। 


jati sambodhan


जाति  सम्बोधन 



मैं इतिहासकार होते हुए भी इस तथ्य की ऐतिहासिक समीक्षा नहीं करूँगा , क्योंकि इतिहास की कई परम्पराएं और पद्धतियां आज भी सुचारु रूप से संचालित है जिनमे से कुछ सभ्य समाज के लिए सही है और कुछ गलत। जो सही है और और समाज के लिए आवश्यक है वो तो चलनी चाहिए  परन्तु जो गलत है और समाज में विभेद उत्पन्न करे उसका खात्मा जरुरी है। मेरा मानना है जो आज है वही समाज है।

और आज  समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता और कर्मो के अनुसार सम्माननीय है। हम उसकी जाति  और धर्म को लेकर कुछ भी ऐसा नहीं कर सकते जो शोभनीय नहीं है। मेरे अनुसार तो जाति ही नहीं होनी चाहिए परन्तु यह इतना आसान नहीं है। इसलिए वास्तविकता के धरातल पर आते हुए यह आवश्यक हो जाता है की अगर हमें किसी सभा के बीच या किसी समूह और चर्चा में किसी की जाति का उल्लेख करना भी पड़े तो उस जाति को सम्बोधित "शब्द "  का उच्चारण करते समय हमारे मन में  किसी भी प्रकार की हीन भावना न उत्पन्न हो बल्कि शब्द ऐसा होना चाहिए जिससे उस जाति का पद समाज की अन्य जातियों के सामान ही प्रतिष्ठित हो। इसलिए आवश्यक है समाज से इस दलित शब्द को और यदि समाज के किसी कोने में ऐसे ही और शब्दों का प्रयोग होता हो तो उन्हें भी तत्काल प्रभाव से हटा दिया जाये क्योंकि बुराई का खत्म जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा है।  

लेखक के क्वोरा के एक जवाब से उद्धरण 

pitrsatta ki utpatti


पितृसत्ता की उत्पत्ति 



यहाँ मैं प्रत्येक तथ्य के विस्तार में न जाकर केवल मूल तथ्य बताने की कोशिश कर रहा हूँ क्योंकि विस्तारित उत्तर कई पृष्ठों का हो सकता है
हम आज समाज में जो भी देखते है , समाज को उस स्वरुप में आने में सदियाँ लग गई।

इसी प्रकार प्रारम्भ में स्त्री पुरुष के बीच रिश्तो का कोई नाम नहीं था , और नाहि सम्बन्धो की कोई सुनिश्चितता । जिससे समाज का कोई स्वरुप निर्धारित नहीं था। इस कारण स्त्री के गर्भवती होने पर कोई पुरुष यह सुनिश्चित नहीं कर पता था की संतान का पिता कौन है ,ऐसी अवस्था में स्त्रियां गर्भावस्था के समय भोजन और अन्य कार्यो हेतु लाचार हो जाया करती थी. क्योंकि उस समय जानवरो का शिकार और कंदमूल का संग्रहण ही आहार के प्रमुख साधन थे। ऐसी अवस्था को देखते हुए और स्वयं की सुरक्षा हेतु स्त्रियों ने पुरुषो का आश्रय लेना शुरू कर दिया और समय व्यतीत होने के साथ इस व्यवस्था को विवाह का नाम दिया गया जिससे पिता की पहचान की जा सके और यहीं से धीरे - धीरे परिवार की अवधारणा ने जन्म लिया।
अब परिवार की देखरेख हेतु पुरुष शिकार हेतु लम्बी आखेट यात्राओं पर कम जाने लगे और उन्होंने अपने आसपास खाली पड़ी जमीन को घेरकर खेती करना प्रारम्भ कर दिया और पशुओ को पालतू बनाना भी। बाहरी जानवरो से सुरक्षा हेतु मनुष्यो ने संगठित होकर झुण्ड में रहना प्रारम्भ कर दिया , ऐसे समय में जब किसी बात पर दो व्यक्तियों में विवाद होता तो झुण्ड से निकलकर एक व्यक्ति उन्हें सुलझाने चला आता इसी व्यक्ति को झुण्ड (जिसे बाद में कबीला कहा जाने लगा) के सरदार की संज्ञा दी गई।
जमीन पर कब्जे को लेकर कबीलो में होने वाले विवादो ने लड़ाइयों का रूप ले लिया और एक कबीला दुसरे पर आक्रमण करके उसे अपनी सीमा में शामिल करता गया जिससे सरदार की ताकत बढ़ने के साथ ही उसे राजा की पदवी दी जाने लगी और इस प्रकार " राज्य" तथा "राजा" शब्द की उत्पत्ति हुई। इस पूरी प्रक्रिया में सत्ता पुरुषो के पास ही रही चाहे वह घर के अंदर हो या बाहर।

इस पूरी प्रक्रिया में स्त्रीयाँ अपनी रक्षा हेतु पुरुषो पर ही निर्भर रही है और उनका कार्य घर की चारदीवारी के अंदर ही रहा । इस कारण प्रारम्भ से ही परुष वर्चस्ववादी मानसिकता बनी रही । बाद के समय में समाज ज्यों - ज्यों विकसित होता गया और परिवार में पुरुष की मृत्यु होने पर या अन्य कारणों से कुछ स्त्रीयो ने घर और परिवार की जिम्मेदारी जिस तरीके से आगे बढ़कर निभाई, परिवार ने आगे चलकर परिस्थितियों को समझते हुए उस स्त्री का नेतृत्व स्वीकार किया।ऐसी जगहों पर मातृसत्तात्मकता समाज का निर्माण हुआ। समाज के सभ्य स्वरुप ने स्त्रियों को कई अधिकार दिए , लेकिन यह अधिकार भी पुरुषो द्वारा ही दिए गए थे जोकि हर काल में समाज में होने वाले धार्मिक और सत्ता के उतार चढ़ाव के कारण घटते बढ़ते रहते थे। यही कारण है की समाज के मूल में पितृसत्तात्मकता बसी हुई है।

आज संसार भर में विभिन्न क्षेत्रो , परिस्थितियों और समाज की मानसिकता के अनुसार कहीं पितृसत्तात्मक समाज है तो चुनिंदा जगहों पर मातृसत्तात्मक भी .

क्वोरा पर लेखक द्वारा दिए गए जवाब से साभार -

noukari ki padhai aur padhai ki kamai me khote ham



नौकरी की पढाई और पढाई की कमाई में खोते हम 




बचपन से पढाई का केवल एक ही उद्देश्य रहा है नौकरी , शायद हर माँ - बाप  अपने अपने बच्चो को तालीम इसीलिए दिलाते ही है की बड़े होने पर वो ऊँचे ओहदे पर पहुँच सके अगर नहीं पहुँचता है तो उसके जीवन भर की मेहनत व्यर्थ हो जाती है अगर शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ नौकरी पाना ही है तो जिसको नौकरी न करनी हो तो वह फिर डिग्री लेकर क्या करेगा। और जो केवल डिग्री के भरोसे नौकरी पाते है उनका क्या ?


और यदि शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानी बनना है तो ऐसे लोगो को क्या कहेंगे जो आलिशान घरो में रहते हुए अपने माता - पिता  को किसी वृद्धाश्रम  में रखे हुए है।  जिनके लिए धन ही सब कुछ है और जिनकी  सभ्यता की पहचान डिस्को से होते हुए क्लब की पार्टियों में वेटरो को टिप देने तक ही सीमित है। जहाँ रिश्ते व्यक्ति की हैसियत और पहुँच देखकर बनाई जाती है , जहाँ ईमानदार और गरीब व्यक्तियों को देखकर मुंह बन जाता है।


 शिक्षा की शुरुआत परिवार से ही होता है जहाँ शुरू से ही सिखाया जाता है की जन्म लिया है तो बस मशीन बनने के लिए, जहाँ दिल और दिमाग से सोचना मना है बस किताबो को रटिये  और परीक्षा देते जाईये  और अगर कक्षा में उच्च स्थान नहीं प्राप्त किया तो  आप वहीं पढाई में कमजोर सिद्ध हो जाते है। और अगर जिंदगी ने कोई कड़ा इम्तेहान ले लिया तो तनाव का शिकार हो जाइये क्योंकि आपकी तालीम में इसका कोई अध्याय नहीं है । 


उसके बाद बच्चो  को कमजोर मानकर भारी भरकम टयुशन लगा दिया जाता है। इन्ही सब के बीच उनका वो बचपन हम छीन लेते है जो प्रकृति ने उन्हें दिया है  . जब हम घर  में मानवीयता और अपनेपन का अध्याय इस अंधाधुंध भौतिक जिंदगी में फाड़ के फेंक देते है तो हम कैसे उम्मीद कर सकते  है की वापसी में हमें ये सारी चीजे मिल भी सकती है।  . 
noukari ki padhai aur padhai ki kamai me khote ham

बड़े होते ही अभिभावकों की इच्छानुसार नौकरी की तलाश शुरू हो जाती है। लक्ष्य तो पहले ही निर्धारित कर दिया जाता है। नौकरी मिल गई तो  आधुनिक संसाधनों को पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत शुरू हो जाती है  ,पैसा आप कितना भी कमा लीजिये कम ही पड़ता है  . ऊपर से हम ठहरे भारतीय  जो सबसे ज्यादा पैसे के पीछे भागने वाले है। पर इसी कमाई और कमाई की पढाई ने एक बेटे को उसके बाप से दूर कर दिया , माँ की  ममता होमवर्क चेक करने तक रह गई , बहन और भाई बेगानो की तरह आपस में मिलते है ,खास रिश्तेदारों से तो सालो में एक बार मुलाकात होने लगी , वो भी औपचारिकता वाली मुलाकातों तक ही दौर सीमित रहता है । दोस्त तो अब मतलब के लिए बनाये जाने लगे उनमे अब पहले जैसी आत्मीयता कहा रही।  यही कारण है की आजकल के बच्चे थोड़े बड़े होते ही अपने अभिभावकों को जवाब देना शुरू कर देते है। और हम खुद से सवाल पूछने की बजाय की ऐसा क्यों हो रहा है उल्टे उनपे दोषारोपण करते है 
noukari ki padhai aur padhai ki kamai me khote ham
हम कहते है की हमारे पास समय नहीं है तो वाकई हमारे पास समय नहीं है क्योंकि अब  आप 100 साल जीने की उम्मीद नहीं कर सकते आप को जो भी करना है उसकी शुरुआत किये रहिये जिंदगी जीने पर यकीं कीजिये। क्योंकि मुर्दा इंसान ना डॉक्टर होता है ना कोई कलेक्टर। 
आपके जीवन यात्रा की शुरुआत हो चुकी है आपको खुद तय करना है की किन रास्तो से होकर गुजरना है बाकि  आखिरी मंजिल तो सबकी एक ही है  ....... 


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नखड़ा


नई  नवेली बहु ने ससुराल आते ही नखड़ो की लाइन  लगा दी , लम्बी चौड़ी फरमाइशों के साथ मायके में गुड़िया की तरह रहने की कहानियाँ सुना डाली। बेचारी सास यह सोचकर हैरत में थी की ये आजकल की पीढ़ी को हो क्या गया है जहाँ जाओ वहा  यही कहानी सुनने को मिलती है आखिर इनकी माँ ने भी तो मेहनत कर के ही पाला होगा  बेचारी इनके पैदा होने से लेकर ससुराल में जाने तक इनका ख्याल रखा है और साथ में अपने घर के बूढ़े बुजुर्गो का ध्यान भी जिम्मेदारी पूर्वक निभाया है। फिर इनको ऐसा क्या हो जाता है की जवान होने पर भी इनका बचपना नहीं जाता। हमारी तो जैसे तैसे निकल जाएगी लेकिन इनका गुजारा कैसे होगा , खुद के खाने के लिए तो मेहनत करनी ही पड़ेगी।  नौकर चाकर का क्या भरोसा अगर भरोसा कर भी लिया जाये तो बच्चे उनका क्या ? ......  अभी सास इसी उधेड़ बुन में थी की लड़के और बहु की आवाजें उसके कानो में गूंजने लगी। 

बहु ने आते ही नए घर की मांग कर दी थी और लड़का अपने माँ - बाप को छोड़ने को तैयार नहीं था उसने साफ़ तौर पर कह दिया की अगर उसे सबके साथ रहना है तो रहे नहीं तो वापस अपने मायके जा सकती है। जिस माँ ने उसे जन्म दिया बचपन से लेकर आज तक बिना स्वार्थ के पालन किया , जिस पिता ने सालो एक ही कपडे में गुजार दिए की उसके बेटे की परवरिश में कोई कमी ना रह जाये उनसे जुदा होने की बात वो सपने में भी नहीं सोच सकता 


माँ को कोई विशेष आश्चर्य नहीं हुआ , बहु की हरकते देखकर भविष्य की हरकतों का अंदाजा हो गया था।  बल्कि उसे अपने संस्कार पर गर्व था जो उसने अपने बेटे को दिए थे और साथ ही अपने बेटे पर भी। 
बहु अब तक समझ गई थी की इस घर की बुनियाद जिस संस्कार पर टिकी हुई है वहां उसके नखड़े का कोई स्थान नहीं ....  

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प्यार और सियासत 




कल ही देखा था उसको ....हरी साड़ी पहनकर बजार मे गोलगप्पे खाते हुए ..
अभी पिछले बरस की ही बात है जब वो हमारे पड़ोस मे दो मकान छोड़ मिश्रा जी के घर किरायेदार बनकर आई थी , उसके साथ उसका पूरा कुनबा था जिसके मुखिया उसके पिता जी थे जो की शहर मे दरोगा थे.
परिवार मे मां के अलावा एक छोटी बहन और दो बड़े भाई भी थे , भाइयो मे एक की शादी हो चुकी थी और भाभी की गोद मे एक साल भर की लड़की थी नाम था अर्पिता .
गोलगप्पा खाने के दौरान ही उसने मुझे देख लिया था पर देखकर अनदेखा करना शायद नियती की मजबूरी थी ऐसी मजबूरी जिसे पति कहते है जो की उसके साथ मे ही खड़ा था . गोलगाप्पे का स्वाद जो भी हो पर इस मुलाकात ने उन यादों और उन जख्मो को हरा कर दिया था जो वक़्त ने दिये थे .

नये किरायेदार के बारे मे उत्सुकता तब और बढ जाती है जब परिवार की कोई सदस्या अपनी खूबसूरती की छाप आते ही छोड़ देती है , मुहल्लो के लौंडो के बीच चर्चा का विषय राजनीति से बदलकर अचानक ही प्रेमनीति हो जाती है और जिन्होने आजतक प्रेम का ककहरा भी ना सीखा हो वे अपने ज्ञान का प्रदर्शन ऐसे करते है जैसे प्रेमशास्त्र की रचना उन्ही के द्वारा की गई हो .....उसपर से आजकल के नये लौंडे जिनके सिर् पर चारो तरफ रेगिस्तान नजर आता है और बीच मे कपास की फसल उनकी शुरुआत प्रेमशास्त्र के आखिरी पन्ने से होते हुये सीधे रिज़ल्ट तक पहुंच जाती है


मुझे कभी भी अपने मुहल्ले की इस तरह के समुदाय पसंद नही आए थे , मेरी दिनचर्या सीधा यूनिवर्सिटी से घर और घर से यूनिवर्सिटी बस यहीं तक सीमित थी . बीच मे मित्र आसिफ़ के घर पर जरूर कुछ ज्ञान की बाते हो जाया करती थी .
उसका पति पुलिस विभाग मे ही कांस्टेबल था . तथा उसके पिता जी उसके सीनियर हुआ करते थे . मुहल्ले मे अब बात के अलावा आगे की रणनीति पर विचार किया जाने लगा पहली छोटी सी समस्या उसके बाप के आगे सिर् झुकाने की थी जिससे आगे का पथ सुलभ हो जाता.

पर समस्या यह थी की आखिर बिल्ली के गले मे घंटी बांधेगा कौन . शाम के समय अक्सर ही चर्चा करते करते देर हो जाया करती थी ऐसे ही एक शाम मे पैदल ही आसिफ़ के घर से लौट रहा था तभी रास्ते मे लोगो का झुंड एक आदमी को दौड़ाते हुए चला आ रहा था भीड़ के पास आने पर पता चला की वो कोई पत्रकार था जिसने किसी समुदाय विशेष के खिलाफ अपने अखबार मे कुछ लिख दिया था इससे पहले की भीड़ एक ग़ली के घुमावदार रास्ते मे घूमति मैने उस पत्रकार को इशारे से एक घर के अंदर जाने को कहा . वो घर आसिफ़ का था .गजब का खून सवार था उस भीड़ पर जैसे कानून नाम की वस्तु उनके लिये कोई मायने नही रखती उसमे से कुछ लडको को में जानता था जो की पैसे के लिये कुछ भी करने को तैयार रहते थे , उनका सारे राजनीतिक दलो के साथ उतना बैठना था , खैर भीड़ अपने मंसूबो मे नाकाम रही और उसके हाने के बाद मैने पत्रकार जी से पूरी जानकारी ली , पता चला की उनके लेख मे कुछ ऐसा नही था जिससे तनाव का बीज अंकुरित होता , वे  मेरे साथ ही थाने गये और उन्होने पुलिस को सारी बात बताई वही मेरी मुलाकात शेखर अंकल से हुई .... यही नाम था उसके पिता जी का उनसे मिलने पर पता चला की पुलिस मे होते हुए भी उनके अंदर कितनी सौम्यता थी बस उनका चेहरा ही अमरीश पुरी की तरह था पर दिल अंदर से एकदम मुलायम . यही से उनके घर आने जाने का सिलसिला चालू हो गया जिसने धीरे - धीरे  परिवारिक मित्रता का रूप ले लिया . और यही से उससे पहली मुलाकात हुई ....झुकी नजरे, सरल स्वभाव और गुड़ से भी ज्यादा मीठी बोली जो की सामने वाले को मन्त्र मुग्ध कर देती थी .

उसकी नजरे भी सभा से कुछ वक़्त निकाल कर हमारी नजरो को अपने होने का अहसास करा देती थी . बातों मे पता चला की उसकी गणित बहुत ही कमजोर है और मैं  ठहरा गणित से बीससी बस मिल गया हमको भी मौका अपनी काबिलियत दिखाने का हर रोज शम को बस दिक्कत यही थी की आसिफ़ भाई का साथ जरूर छूट गया . इधर आसिफ़ भाई का साथ छूटा उधर हर शाम नये नये पकवानो से रिश्ता जुड़ गया , उसकी भाभी पाककला मे निपुण थी और उन्हे नित नये - नये पकवान बनाने का शौक था हमने भी सोच लिया की दामाद बनेंगे तो इसी घर के.

इधर आती रुझानो ने संकेत देना शुरु कर दिया की अब सही वक़्त आ गया है अपने अंदर के ज़ज्बातो को बाहर निकलने का बस हमने भी एक अच्छा सा मुहूरत देखकर बोल ही दिया जवाब तो पहले से नही मालूम था पर जो कुछ आया उसकी हमने कल्पना भी नही की थी पता चला की उसने दो दिन पहले ही हमारी पुस्तक मे एक पन्ने पर अपना इजहार कर दिया था यहा भी हम पीछे रह गये .

यूनिवर्सिटी मे अभी कक्षाये प्रारंभ ही हुई थी की बाहर शोरगुल मचने लगा पता चला की शहर मे दंगे शुरु हो चुके है . सब अपनी अपनी जान बचाने को भागने लगे . मैं  भी अपने घर तेजी से साइकल चलता हुआ निकल पड़ा रास्ते का नजारा वर्णन करने लायक नही था घर पहुचने से कुछ दूर पहले ही दो लोग मेरी तरफ तलवार लेकर आते हुए दिखाई दिये अचानक उनमे से एक के कदम दौड़ते दौड़ते रुक गये .... आसिफ़ मियां थे वो ............

घर पर सबकी निगाहे मुझे ही ढूंढ रही थी , मुहल्ले के लौंडो ने अपनी अलग टीम बना ली थी जो की 24 घंटे पहरा देते थे . कुछ सियासतदारो ने अपने स्वार्थ के लिये पूरा शहर ही जला दिया और हम सोचते रहे की ये धुंआ सा क्यो है . अगले दिन मुहल्ले मे बड़ी शान्ती थी कुछ के चेहरे बता रहे थे की ए बिजली अपने आस पास ही गिरि है . चढ़ा दी थी बलि सियासत के हकुमराणो ने कुछ ईमानदार पुलिसवालो और निर्दोष इंसानो की .
बस वो आखिरी सुबह थी उसको देखे हुए कुछ अरमान थे जल गये चिता मे कुछ अरमान थे चिता मे जलने वाले के उन्हे पूरा करने के लिये .........ना हमे कुछ मिला ना तुम्हे कुछ मिला फिर भी ना जाने आपस मे कितना है गिला ...सत्ता के जादूगर है वो इस जादू ने जाने कितनो को लीला ....

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