जाति सम्बोधन
मैं इतिहासकार होते हुए भी इस तथ्य की ऐतिहासिक समीक्षा नहीं करूँगा , क्योंकि इतिहास की कई परम्पराएं और पद्धतियां आज भी सुचारु रूप से संचालित है जिनमे से कुछ सभ्य समाज के लिए सही है और कुछ गलत। जो सही है और और समाज के लिए आवश्यक है वो तो चलनी चाहिए परन्तु जो गलत है और समाज में विभेद उत्पन्न करे उसका खात्मा जरुरी है। मेरा मानना है जो आज है वही समाज है।
और आज समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता और कर्मो के अनुसार सम्माननीय है। हम उसकी जाति और धर्म को लेकर कुछ भी ऐसा नहीं कर सकते जो शोभनीय नहीं है। मेरे अनुसार तो जाति ही नहीं होनी चाहिए परन्तु यह इतना आसान नहीं है। इसलिए वास्तविकता के धरातल पर आते हुए यह आवश्यक हो जाता है की अगर हमें किसी सभा के बीच या किसी समूह और चर्चा में किसी की जाति का उल्लेख करना भी पड़े तो उस जाति को सम्बोधित "शब्द " का उच्चारण करते समय हमारे मन में किसी भी प्रकार की हीन भावना न उत्पन्न हो बल्कि शब्द ऐसा होना चाहिए जिससे उस जाति का पद समाज की अन्य जातियों के सामान ही प्रतिष्ठित हो। इसलिए आवश्यक है समाज से इस दलित शब्द को और यदि समाज के किसी कोने में ऐसे ही और शब्दों का प्रयोग होता हो तो उन्हें भी तत्काल प्रभाव से हटा दिया जाये क्योंकि बुराई का खत्म जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा है।
लेखक के क्वोरा के एक जवाब से उद्धरण
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