मंदिरो में भगवान् नहीं मिलते अब (कविता )
शंकर जी बसे हिमालय पर
ना जाने दूध किसे पिलाते हो
बछड़ा भी ना पी पाया जिसे
उसे नाली में क्यों बहाते हो
जो जग के दाता राम है
अयोध्या जिनका धाम है
उस धाम में क्यों आग लगाते हो
अपनी सियासत चमकाते हो
ब्रम्हा जी ने लिख दिया
जनता ने तुमको भीख दिया
उसपे इतना इतराते हो
जाने कौन सी बेशर्मी के साबुन से नहाते हो
है लिखा किसी संत ने, ना अपना आपा खोए
राजा हो या रंक सभी का अंत एक सा होए
बोले कन्हैया, सुन मेरी मइया
देख धरा है मुझमे समाया देख तीनो लोक है मेरे अंदर
फिर भी अकड़े क्यों सर्कस का बन्दर
मैं ना मंदिर में मैं ना मस्जिद में
मुझको न ढूंढो तुम अपनी जिद में
मैं तो हूँ हर उस दिल में समाया
जिसमे ना कोई मोह ना कोईं माया
जिसके दिल में हर प्राणी का मर्म समाया । ........
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