बरेली का पेड़ा - 6
त्रिशा और विजय भोजन समाप्त करने के पश्चात होटल के बगीचे में घूमने निकलते है। बहुत ही सुन्दर नजारा था वो रंग बिरंगे फव्वारे , करीने से लगे अनेको सुन्दर पुष्प वाले पौधे , मखमली घास और चांदनी रात में हलके कोहरे की बरसात मन मोहने के लिए पर्याप्त थी ।
त्रिशा - पता है विजय जी आज से ठीक ३० साल पहले मां और पापा की भी मुलाकात भी इसी कोल्हापुर में हुई थी। माँ यहाँ अपनी छुट्टियां बिताने आई थी और पापा दादा जी के साथ फैक्ट्री के काम से।
यही पर इसी होटल में माँ ठहरी हुई थी और पापा भी।
विजय - एक बात कहे त्रिशा जी आपकी माँ बहुत ही सुन्दर रही होंगी।
त्रिशा - हाँ पर आपको कैसे पता।
विजय (मुस्कुराकर) - क्योंकि आपके पिता जी को देखकर लगता है की आप भी अपनी माँ पर ही गई होंगी।
त्रिशा भी (मुस्कुराते हुए ) - तो इसे मैं क्या समझू अपनी तारीफ या पिता जी की बुराई।
विजय (झेपते हुए ) - नहीं मेरा कहने का मतलब वो नहीं था....
त्रिशा बीच में ही बात काटते हुए - अच्छा तो क्या मतलब था आपका।
विजय बात को सँभालते हुए - जी आपके पिता जी का ह्रदय तो बहुत ही विशाल है उनके विषय में कुछ भी अनुचित कैसे कह सकता हूँ , और आप तो साक्षात् देवी है।
त्रिशा - चलिए कोई बात नहीं .
चांदनी रात थी उस पर था तेरे जुल्फों का घना अँधेरा
फिसलते कैसे नहीं हम तेरे प्यार में
जब सामने हो दुनिया का सबसे खूबसूरत चेहरा
दोनों देर रात एक दूसरे से बातें करते हुए होटल के कई चक्कर लगा लेते है , इन्ही बातों के सिलसिले आगे चलकर कब मुहब्बत में बदल जाते है दोनों को पता ही नहीं चलता , अभी तो बस शुरुआत थी। ........
आगे आगे देखिये इस इश्क में होता है क्या
दीदार -ए - मुहब्बत में रात भर कोई सोता है क्या
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