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New winding flowing in big cities

बड़े शहरो में बहती नई पुरवाई 


 New winding flowing in big cities


रिश्तो की मौलिकता के साथ ही महसूस होने वाला अपनापन, बड़े शहरो में बदली हुई परिभाषा के साथ स्वार्थ , पैसा और हित  साधने के एक माध्यम के अलावा कुछ और नहीं।  बड़े शहरो का छोटापन और छोटे शहरो का बड़प्पन   इसकी संवेदनशीलता को  बखूबी बयां करते है। 

मशीनी मानव के पास इतना समय ही कहा की वो दिल से सोच पाए। घर से ऑफिस और ऑफिस से घर की भागमभाग में निकलती जिंदगी के पास जब थोड़ा समय होता है तो वह थके हुए शरीर को राहत देने में निकल जाता है।  अगर कुछ समय  बच गया तो परिवार ,जिसमे सिर्फ बीवी और बच्चे शामिल होते है उनके हिस्से चला जाता है।

ख़ुशियों का पता अब नए - नए पिकनिक स्पॉट , मॉल , रेस्त्रां , फॉरेन ट्रिप , सिनेमा और मोबाईल ने ले लिया है। दादा - दादी और नाना - नानी की कहानियो को  छोड़िये, अब तो इनकी स्वयं की कहानी ही हर घर में मार्मिक होते जा रही है।   लाइफ इन ए मेट्रो और बॉलीवुड की अन्य फिल्मो में बड़े शहरो की सच्चाई अभी उतनी ही दर्शाई गई है जितनी तीन घंटे की फिल्मो  में दिखाई जा सकती है। असल में किस्सा उससे कही आगे बढ़ चुका है।  

रास्ते से लेकर नाश्ते की टेबल तक में ही  इंसान  का धैर्य उसके साथ नहीं रह पाता ,उसे तो बात - बात पर धैर्य खोने की आदत सी पड़ गई है। वह इतना धैर्य कहाँ रख पायेगा की बूढी  माँ जब तक अपनी व्यथा उससे कहे तब - तक वह बैठकर सुनता रहे। 

भारतीय संस्कारो की तिलांजलि(त्याग)  देकर पाश्चात्य सभ्यता का दामन थामना ठीक उसी प्रकार है जैसे पिता को डैडी और माँ को मॉम में बदलना। जिस प्रकार का लाभ  रोटी की जगह पिज्जा खाने से मिलता है उसी प्रकार का लाभ पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने से मिलता है। 


ना अब आप किसी से मजाक कर सकते है , ना अपने दिल की बात को बाहर कर सकते है , अगर आपने ऐसा कर दिया तो आप खुद ही मजाक बन जाएंगे।  एक शब्द है ढीठ जितनी जल्दी इसकी परिभाषा समझ कर इसे अपना ले उतनी जल्दी आशा है की आप भी इस बहने वाले नए बयार में अपनी जगह बना लेंगे। 

छोटे शहरो और गांवो ने ही आज भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति की लौ जलाये रखी है। परन्तु वहां के मौसम में  भी पाश्चात्य सभ्यता की हवा के झोंके देखे जा सकते  है। ऊँची एड़ी की सैंडिल पर संभल कर चलती छोटी लड़कियां , बीयर की शॉप पर मॉडल लड़के ,पाउच वाली सेल्फी ,डूड और ब्रो जैसे शब्दों के साथ ही फेसबुक और व्हाट्सअप पर अपडेट होती स्टेटस को देखकर लगता है वह दिन दूर नहीं जब वीडियो कॉलिंग से ही बहन, भाई की कलाई पर राखी बांधेगी और बेटा आजकल के कथित प्रेम विवाह के बाद फेसबुक पर फोटो लगाकर माँ - बाप और दूसरे रिश्तेदारों को टैग करेगा। 



lndian boys


लौंडे 


भोजपुरिया क्षेत्र की समस्या बहुत ही निराली है या कह सकते है की अधिकांश भारतीय क्षेत्र की ।  लौंडे ज्यादा हो गए है और सड़के हो गई है कम , बेचारे अपनी रफ़्तार को कैसे नचा - नचा के  कंट्रोल  करते है, यह कला तो पूछनी ही पड़ेगी।  

ये माचो कट मगरमच्छी बाल  ...... साथ मे  तिकोनी , कोन वाली आइसक्रीम की तरह दाढ़ी  ...... मोबाईल के एप  तो रोज इंस्टाल और अनइंस्टॉल होते रहते है ।  पार्टी  , भाई गिरी  , सेल्फी  और  सेल्फी विवरण तो वाकई दिल दहलाने और  पढ़ने लायक होता है।  इसके  कुछ उदहारण इस प्रकार है -  छोटे भाई के साथ पैजामा ठीक करते हुए बड़े भाई का सानिध्य प्राप्त करने का अवसर मिला ,  आज बड़े भाई के घर पर उनकी माता की पुण्यतिथि में , पूज्यनीय और परम आदरणीय संभ्रांत बड़े भ्राता जी के साथ एक सेल्फी , आज गांव में चूहामार दवा का वितरण करते हुए , एक कप चाय की प्याली छोटे भाइयों के साथ।  इतना आदर तो अपने सगे भाइयो के लिए नहीं रहता है जितना  इन सेल्फी वाले भाइयो के लिए होता है। 


कुछ सवाल जो इनके क्रोध को बढ़ाते है।  

बेटा क्या कर रहे हो  ? 
सेमेस्टर या परीक्षा में कितने नम्बर आये थे  ?

lndianboysकल किन लफंगो के साथ घूम रहे थे  ?

अभी से स्मार्टफोन की क्या जरुरत है ?          
पढाई क्यों नहीं करते  ?
नौकरी क्यों नहीं करते ?

इससे ज्यादा सवालो को  बर्दाश्त करने की क्षमता इनमे नहीं होती , आगे सवाल पूछे जाने पर अपनी सलामती के जिम्मेदार आप स्वयं है। 

चौराहा संस्कृति  आजकल इनकी  पाठशाला का एक प्रमुख हिस्सा  है। पकौड़ो के ठेले , चाय की दूकान , पान की गुमटी पर इनकी राजनीतिक और सामाजिक समझ का नमूना आसानी से मिल जाता है। 

विभिन्न पार्टियों का झंडा पता नहीं कितने दिन और कितने दिनों का रोजगार  इन्हे सुलभ कराता रहेगा भगवान् ही मालिक है । कम समय में प्रसिद्धि पाने की चाह  में खुद ही बड़ी - बड़ी बाते छोड़ते हुए  बड़ा बनना , लो क्लास वाले लड़को का चश्मा और फैशनेबल कपड़ा पहनकर अमीर दिखना,  चेहरे से मुस्कराहट का गायब होना और अकड़ वाकई देखने लायक होती है। चाल  तो इनकी ऐसी की आप डर के कहीं दुबक जायेंगे, बाद में भले ही इनके बारे में जानने के बाद सीना चौड़ा करते हुए सामने आ जाये।  वैसे ये भी मानते है की फर्स्ट इम्प्रेसन इज लास्ट इम्प्रेसन।  लेकिन गलती से इनको कहीं छेड़ मत दीजियेगा  क्योंकि इनको झुण्ड में बदलते समय नहीं लगता। 

वैसे गजब का हौंसला  और धैर्य है इनके अभिभावकों का  एक बार  " कोटिश धन्यवाद " तो उनको बनता ही है की इतने जिम्मेदार और होनहार नौजवानो को इतने बेहतरीन ढंग से भारतीय संस्कृति और सामाजिकता का पाठ पढ़ाया है। अगर उन्होंने नहीं पढ़ाया तो कहीं ना कहीं पढ़ने तो भेजा ही होगा। 


mission2019



मिशन 2019 


भारतीय राजनीति के सबसे बड़े राजनीतिक युद्ध  का अघोषित सिंघनाद तीनो राज्यों(मध्यप्रदेश ,छत्तीसगढ़ ,राजस्थान ) के चुनावों की घोषणा के साथ प्रारम्भ  हो  चुका है।  भाजपा और कांग्रेस के साथ ही  देश की अन्य तमाम छोटी बड़ी पार्टियाों ने  इस युद्ध के लिए प्यादो से लेकर मैदान और सारथी की तलाश में  जाल बिछाना शुरू कर दिया है। 


mission2019


भाजपा मगध की सियासत में अपने मजबूत साझेदार नीतीश कुमार के साथ  बड़ी ही विनम्रता से  50 - 50  के सिद्धांत पर झुकती दिख रही है  जिसको भांपते हुए रामविलास पासवान से लेकर कुशवाहा खेमे की बेचैनी साफ़ समझी जा सकती है, क्योंकि पिछली बार सीटों के बंटवारे में इन्हे अच्छी स्थिति प्राप्त थी और मोदी चेहरे के साथ वे भी संसद में पहुँचने में सफल हुए थे। तब भाजपा  ने भी नहीं सोचा था की उसे इतना प्रचंड बहुमत प्राप्त होगा  इस कारण कमजोर और छोटी  पार्टियों से भी समझौता करने में उसे हिचक नहीं हुई  । इस बार चेहरे की चमक फीकी पड़ने के साथ  ही भाजपा को  मजबूत साझेदारों  की आवश्यकता  महसूस हुई जिसका  राजनीतिक लाभ  उसके मजबूत सहयोगियों को मिलना स्वाभाविक है। 


mission2019


कांग्रेस की रणनीति अभी तक मोदी सरकार पर आरोप प्रत्यारोप तक ही सीमित है  2019 को लेकर उसकी नीति अभी स्पष्ट नहीं है लेकिन उम्मीद के मुताबिक अपने पुराने सहयोगियों को साथ लेकर चलने का प्रयास  जारी  रहेगा। 


लोकसभा चुनावों से पहले होने वाले राजस्थान , मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनावों  के परिणाम को  2019  का सेमीफाइनल माना जा सकता है । इन तीनो राज्यों में भाजपा की सरकार है और  राजस्थान में हर पांच साल  में सत्ता परिवर्तित होते रहती है।  शिवराज सिंह चौहान की प्रतिष्ठा भी ऐसे समय में दांव पर लगी है जब व्यापम की आंच  अभी तक ठंडी नहीं हुई है और दूसरी तरफ सत्ता विरोधी रुझान। 





तीसरा मोर्चा अभी तक ख्याली  पुलाव की तरह  धरातल पर नहीं आ सका

हालाँकि अगर इसमें  नीतीश कुमार होते तो मामला कुछ दिलचस्प होता अभी भी यदि संगठित होकर बागडोर ममता बनर्जी के हाथो में जाती है तो  नए सम्भावनाओ के द्वार खुल सकते है। क्योंकि बंगाल में लगातार सेंधमारी के बावजूद बीजेपी को निराशा ही हाथ लगी है , हालांकि थोड़े से बढे हुए वोट प्रतिशत और दो - तीन सीटों की विजय पर वह खुद को सांत्वना दे सकती है लेकिन बंगाल और तमिलनाडु ही ऐसे दो राज्य थे जहाँ  2014 में मोदी लहर  बेअसर साबित हुई थी ,इसलिए  इन दोनों  ही राज्यों में भाजपा द्वारा  कुछ नई  तरह की राजनीति देखने को मिल सकती है। 2019  के लोकसभा चुनाव  जयललिता  के बिना उनकी पार्टी के  लिए भी  अग्नि परीक्षा के  समान होंगे  ।


मुलायम के अखिलेश और उनकी बुआ  के वोट बैंक का ध्रुवीकरण 2014  के चुनावों में  बीजेपी अपने पक्ष में करने में कामयाब रही थी , परन्तु पाँच साल बाद इस तरह के मुद्दे दुबारा मतदाताओं की भावनाये  राजनीतिक रूप से वोट में तब्दील नहीं कर सकते। एससी / एसटी  एक्ट में बाजी जरूर बीजेपी ने मारी है परन्तु  अपने परंपरागत ब्राम्हण वोट बैंको की नाराजगी उसे भारी पड़ सकती है।  वहीँ  सवाल यह भी रहेगा की  बसपा के मूल एससी / एसटी  वोटर बीजेपी में अपना कितना रुझान दिखाते है। 

कुल मिलाकर कांग्रेस और भाजपा  के बीच में होने वाला 2019  का मुकाबला  2014  की अपेक्षा काफी अलग है जहाँ  ना अब किसी की लहर है और नाहीं भ्रष्टाचार  का कोई स्पष्ट मुद्दा।  प्रमुख मुद्दा जो रहने वाला है वो है  मौजूदा सरकार का  कामकाज और  2014 में उसके द्वारा किये गए वादे  तथा  वर्तमान परिदृश्य में  दोनों पार्टियों  के प्रधानमंत्री पद के  प्रमुख  उम्मीदवारों की नेतृत्व क्षमता। 




jati sambodhan


जाति  सम्बोधन 



मैं इतिहासकार होते हुए भी इस तथ्य की ऐतिहासिक समीक्षा नहीं करूँगा , क्योंकि इतिहास की कई परम्पराएं और पद्धतियां आज भी सुचारु रूप से संचालित है जिनमे से कुछ सभ्य समाज के लिए सही है और कुछ गलत। जो सही है और और समाज के लिए आवश्यक है वो तो चलनी चाहिए  परन्तु जो गलत है और समाज में विभेद उत्पन्न करे उसका खात्मा जरुरी है। मेरा मानना है जो आज है वही समाज है।

और आज  समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता और कर्मो के अनुसार सम्माननीय है। हम उसकी जाति  और धर्म को लेकर कुछ भी ऐसा नहीं कर सकते जो शोभनीय नहीं है। मेरे अनुसार तो जाति ही नहीं होनी चाहिए परन्तु यह इतना आसान नहीं है। इसलिए वास्तविकता के धरातल पर आते हुए यह आवश्यक हो जाता है की अगर हमें किसी सभा के बीच या किसी समूह और चर्चा में किसी की जाति का उल्लेख करना भी पड़े तो उस जाति को सम्बोधित "शब्द "  का उच्चारण करते समय हमारे मन में  किसी भी प्रकार की हीन भावना न उत्पन्न हो बल्कि शब्द ऐसा होना चाहिए जिससे उस जाति का पद समाज की अन्य जातियों के सामान ही प्रतिष्ठित हो। इसलिए आवश्यक है समाज से इस दलित शब्द को और यदि समाज के किसी कोने में ऐसे ही और शब्दों का प्रयोग होता हो तो उन्हें भी तत्काल प्रभाव से हटा दिया जाये क्योंकि बुराई का खत्म जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा है।  

लेखक के क्वोरा के एक जवाब से उद्धरण 

rahul and rafal


राहुल का राफेल राग खतरे में देश 

rahul and rafel


चाहे आप किसी दल या नेता के खिलाफ हो परंतु आप सत्ता के लिये देश की सुरक्षा से खिलवाड़ नही कर सकते . राहुल गाँधी भाजपा पर इस कदर हमलावार हैं की देश की सुरक्षा से ही खिलवाड़ करने पर उतारू हो चुके है . उनको लगता है की राफेल डील मे सरकार ने घोटाला किया है , उनको लगता है की सरकार सुरक्षा पर अहम जानकारिया सार्वजनिक करे जिससे वी चीन और पाकिस्तान को इसकी जानकारी दे सके इसीलिये पाकिस्तान ने उनका समर्थन किया है .


एक पूर्व प्रायोजित साजिश के तहत सरकार को रक्षा डील को सार्वजनिक करने पर मजबूर करना कहा तक उचित है , उसपर से आप विपक्ष मे प्रधानमंत्री के उम्मीदवार भी है क्या होता अगर आप प्रधानमंत्री बन जाते आप तो देश की सुरक्षा को ही ताक पर रख देते और पाकिस्तान और चीन को खुश करने मे कोई कसर नही छोड़ते . अभी तक राफेल मे आप सिर्फ फ़्राँस के पूर्व राष्ट्रपति के बयान को आधार बताते है . आप को मालूम होना चाहिये की वे एक पूर्व राष्ट्रपति होने के साथ ईसाई भी है जो की भारत सरकार द्वारा ईसाई मिशनरियो की फंडिंग और इनके द्वारा भारत मे ईसाईकरण पर लगाम लगाने से क्षुब्ध भी .

राहुल गाँधी आजकल खुद को हिन्दू कहलवाना पसंद करते है लेकिन इसकी जरूरत क्यो आ पड़ी और क्या राहुल गाँधी अपनी और प्रियंका गाँधी की कोई ऐसी तस्वीर भी सांझा करना पसंद करेंगे जिसमे वे  रक्षाबन्धन का पर्व प्रियंका गाँधी के साथ मनाना पसंद करते हो .क्या वे अपने बहनोई का धर्म बताना पसंद करेंगे . जिनके हाथो पर रक्षासूत्र नही दिखता .

राफेल कारगिल युद्ध के बाद से ही सेना के लिये जरूरी माना गया परंतु कांग्रेस सरकार और इसके बिचौलियो ने अपने हित पूरी ना होते देख इसे लंबे समय तक लटकाये रखा और अब जब सेना और सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए मोदी सरकार ने इसे अंतिम रूप दिया तो आप उसके पीछे ही प़ड गये . राहुल गाँधी तीन बार राफेल की अलग - अलग कीमते बता चुके है . पहले तो मैं राहुल गाँधी से ये पूछना चाहूंगा की वे ना तो तत्कालीन समय मे प्रधानमंत्री थे और ना ही कांग्रेस के अध्यक्ष फिर उनके पास राफेल की जानकारी कहा से आई और अगर आई भी तो उन्हे इस तरह सार्वजनिक करते हुए क्या वे भारत विरोधी ताकतो की मदद नही कर रहे .

वे बोलते है की भाजपा ने रिलायंस का नाम फ़्राँस को सुझाया था और भाजपा बोलती है की फ़्राँस की कम्पनी का पहले से ही रिलायंस के साथ करार था . अगर भाजपा सही हो तो राहुल गाँधी का क्या ?

कांग्रेस सरकार मे एच ए एल और अन्य सरकारी उपक्रम इनकी कठपुतली मात्र थे जिनसे ये अपनी मंशा पूरी करते थे और इस कारण इन्होने कभी भी तकनीकी रूप से इन्हे इतना विकसित नही होने दिया जितना आज ये इससे अपेक्षा कर रहे है . अगर फ़्राँस की कम्पनी रिलायन्स के साथ पूर्व मे करार कर भी ली है तो इसमे ऐसा कौन सा गुनाह है . आखिर वह भी तो अन्य राष्ट्रो की तरह देश मे रक्षा उपकरणो को बना सकती है ताकि आवश्यकता होने पर और आपात परिस्थितियो मे देश की रक्षा सम्बंधी आवश्यकताओ की पूर्ति की जा सके .

अगर आप को लगता है की मोदी रिलायंस की वफादारी करते है तो आप बता सकते है की केजी बेसिन मे रिलायंस को बढे हुए मूल्य सरकार क्यो चुकाती थी . ऐसे मे मोदी टाटा से करार करते तो भी आप यही कहते, आखिर देश के विकास का बोझ सरकारी कम्पनियाँ कहा तक उठाने मे सक्षम है और आपने इतने सालो मे इन्हे कितना सक्षम बनने दिया आपसे बेहतर कौन जान सकता है .

rahul and rafel

राहुल गाँधी बस राफेल की खामियां गिना दे तो उनकी सारी बातें सही मानी जा सकती है लेकिन अगर एक भी खामी नही गिना पाये तो देश उनसे सवाल जरूर पूछेगा की क्या सत्ता ही उनके लिये सबकुछ है . क्या वे इटली की किसी कम्पनी से सौदा ना किये जाने से खफा है या फिर देश के मजबूत होते रक्षातंत्र से . क्या वे देश मे तेजी से खत्म होते ईसाई मिशनरियो और नक्सलवाद से खफा है या फिर खुद को राजनीति मे स्थापित ना कर पाने से .



इन्हे भी पढ़े - राफेल विमान सौदा  

mediatantra

मीडियातंत्र 


वर्तमान समय में देश की मीडिया एक लाभकारी संस्था बन चुकी है। किसी ज़माने में भारत में अखबार और पत्रकारिता एक घाटे का सौदा हुआ करता था और इसे केवल समाज सेवा हेतु संचालित किया जाता था।  परन्तु आज के दौर में मीडिया एक लाभदायक व्यवसाय का रूप ले चुकी है और कुछ मीडिया संस्थान और पत्रकार सत्ता से करीबी रिश्ता बनाकर खुद को ताकतवर समझने लगे है। जो थोड़े बहुत ईमानदार है वे प्रताड़ना का शिकार है या फिर उनको हाशिये पर डालने का प्रयास जारी है। 



एक जमाना था जब लोग खबरों पर पूर्ण रूप से विश्वास किया करते थे और आजकल खुद के जांचने परखने के बाद ही विश्वास करते है। 

आज मीडिया में इतनी ताकत आ चुकी है की वो मुद्दों को जब चाहे मोड़ सकती है किसी को जमीन से उठाकर आसमान में बैठा सकती है। अभी हाल ही में पकिस्तान द्वारा भारतीय सैनिक नरेंद्र के साथ किये गए व्यवहार से देश में भारी आक्रोश था , तमाम सोशल नेटवर्कींग साइटो पर सरकार को जी भरकर गालियाँ दी जा रही थी,ऐसा लगा की सरकार के प्रति लोगो में गुस्सा अपनी चरम सीमा पर पहुँच जायेगा तब तक मीडिया ने अपना रुख राफेल से लेकर गणेश पूजा में परिवर्तित कर दिया और आम जनता में भरे आक्रोश की हवा निकल गई। 

मैंने अक्सर देखा है मीडिया में आने वाले डिबेट ऐसा लगता है जैसे की पूर्व प्रायोजित होते है।  आप इनके सवाल और कार्यक्रम के शीर्षक देखकर ही बता सकते है की ये किसका पक्ष लेने वाले है सरकार का या सत्य का। मीडिया तो वैसे भी आजकल भारत के सूचना प्रसारण मंत्रालय से संचालित हो रही है।  वहा बैठे पेशेवरों की टीम सारे न्यूज़ चैनलों पर चौबीस घंटे आँख गड़ाए बैठे हुए है। और प्रत्येक चैनल को क्या दिखाना है फ़ोन के द्वारा सूचित कर दिया जाता है। यह बात पुण्य प्रसून जोशी ने भी अपने ब्लॉग में कही है की कैसे सरकार अब मीडिया को नियंत्रित करती है। और सत्ता द्वारा लाभ प्राप्ति हेतु ज्यादातर मीडिया संस्थान इनकी अधीनता स्वीकार भी कर लेते है। सुचना प्रसारण मंत्रालय से ही किस चेहरे को ज्यादा दिखाना है और किस तरह की खबरे चलानी है इसका भी निर्धारण हो जाता है,और जो इनके विपरीत जाता है उसको अपने लहजे में  चेताया भी जाता है। 




ऐसे में सोशल मीडिया ही एक ऐसा प्लेटफार्म है जिसे पूर्ण रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता क्योंकि इसका प्रसार व्यापक है। कोशिश तो इसको भी नियंत्रित करने की होती ही रहती है परन्तु कामयाबी अधूरी ही मिलती है। 

30 मिनट के कार्यक्रम में 10-12  मिनट तो इनके प्रचार में ही निकल जाते है।  उसके बाद कभी  सास बहु की खबरे  जो की उन्ही धारावाहिको की ज्यादा दिखाई जाती है जिन्होंने इन्हे पेमेंट किया होता है, सीरियल के प्रचार का यह अनोखा माध्यम है जिसमे आने वाले एपिसोड को लेकर  दर्शको में जिज्ञासा बनाई जाती है और वह सीरियल खबरों में बना रहता है। नहीं तो कई ऐसे बेहतरीन सीरियल है जिन्हे टीआरपी नहीं मिल पाती। 

कभी ज्योतिष की भविष्यवाणी कभी धन प्राप्ति के उपाय तो कभी आस्था के  नाम पर ना जाने क्या - क्या दिखाते रहते है। पता नहीं ये सब हमारे देश में कबसे खबरों की श्रेणी में आने लगे। 
भारतीय क्रिकेट टीम का फैसला भी इनके एक्सपर्ट न्यूज़ रूम में ही बैठे बैठे कर लेते है। लेकिन अन्य खेलो से इनका अलगाव यह सिद्ध करता है की ये भी टीआरपी हेतु खबरों का चुनाव करते है। बिना टीआरपी वाली खबरे इनके लिए खबरे नहीं होती। 

अभी भी समय है अगर इस देश की मीडिया नहीं जागती तो उसकी विश्वसनीयता के साथ ही उसका अस्तित्व भी संकट में आ सकता है और सोशल मीडिया और इंटरनेट को खबरों का  प्रमुख माध्यम बनते देर नहीं लगेगी। 


इन्हे भी पढ़े - भारतीय मीडिया                   न्यूज़ चैनल डिबेट  


abki baar nahi chahiye aisi sarkar


अबकी बार नहीं चाहिए ऐसी सरकार 


खेलावन के लइका और खेलावन दोनों ही भन्सारी  की दुकान से एक एक थो पान  चबाते हुए चले आ रहे थे।  सामने मोदी सरकार का एक थो पुराना पोस्टर लगा था जो  की सन 2014 से ही तमाम दुश्वारियाँ सहते हुए राहुल गाँधी की तरह टिका हुआ था।  पोस्टर पर मोदी जी का विनम्र चेहरा और एगो  स्लोगन लिखा था " बहुत हुई महंगाई की मार अबकी बार मोदी सरकार " . और उसीके के नीचे लिखा था " अच्छे दिन आने वाले है ".


                  abki baar nahi chahiye aisi sarkar


खेलावन के लइका   - का बाउ जी मोदी जी को देखे है हमको देखके कितना मुस्कुरा रहे है।
खेलावन - गदहा को देख के मुस्कुरायेंगे नहीं तो का करेंगे बुरबक।  इ मोदी भी पूरा जनता को अपने जादू से बकलोल बनाये है।  जौन  चीज परदे पर  दिखाए है पीछे देखने पर पता चला की जादूगर के हाथ की सफाई की तरह इनके  मुंह की सफाई थी। 

खेलावन के लइका  - का कहते है बाउ जी अब ई पोस्टर देख के कंट्रोल नहीं होता और इ पनवो कही न कही विसर्जित करना है।

खेलावन - रहे द बुरबक अगवा ए से बड़ा पोस्टर है जिसपर लिखा है "बहुत हुआ नारी पर वार  अबकी बार मोदी सरकार  "  उहें  मुंह खाली कर देना।

abki baar nahi chahiye aisi sarkar


खेलावन के लइका -  बाउ जी ई  का हमारे अच्छे दिन आ गए। 

खेलावन - आहि न गए है बुरबक टैक्स पे टैक्स बढ़ा है खेत में पानी देंवे पे डीजल बढ़ा है। यूरिया का दाम बढ़ा है।  बैंक में कम पैसा पे जुर्माना बढ़ा है , इहे न गरीबी का मजाक है। एक रूपये में बीमा है लेकिन बैंक में पैसा कम      होने पे वो से बेसी जुरमाना है। इहे  न खेल है जादूगर का। हम कर्जा ले त खेत नीलाम हो जाई और माल्या ले   त   नाम हो जाइ। 

खेलावन के लइका पोस्टर पर पिचकारी मारते हुए आगे बढ़ता है और कहता है की " हमारे अच्छे दिन ना आये तो 2019 में   उनके भी ना आने देंगे ". 


इन्हे भी पढ़े  - फेंकू चच्चा  


hindi diwas kyo ?

हिंदी दिवस 


हिंदी तूं खतरे में है 
सुना है बाबू को तुझे जुबां पर लाने  में शर्म लगती है ,कल को तुझे अपनी मां बताने में शर्म लगेगी।  शाहरुख़ के डायलॉग से प्यार है पर तुझसे नहीं।  तेरी गीतों पर नाचेंगे , तन्हाई में उन्हें गुनगुनायेंगे , शायरियो में दिल का हाल बताएँगे पर बोलने से हिचकिचाएंगे।  

तेरा स्तर  वे गिराते चले जाते है जो तुझे अपना बताते थे , तेरा मान वे बढ़ाने चले आते है जिन पर तेरी ममता की छाँव नहीं। अंग्रेजी हो गए है हम हैलो , हाय , गुड मॉर्निंग से शुरुआत करते है पिता को डैड और दोस्त को डूड कहकर बात करते है।  माँ तो मोम हो गई मोबाइल भगवान हो गया वक़्त से पहले ही अंग्रेजी पढ़कर लड़का जवान हो गया। 

अंग्रेजो की अंग्रेजी हमें अंग्रेज बना रही है और हिंदी इस रिश्ते का मोल चुका रही है। हिंदी दिवस मनाना पड़ता है साल में एक दिन बेटे का फर्ज निभाते हुए अंग्रेजी में मुस्कुराना पड़ता है। 

section 377 and gay



अनुच्छेद - 377  और समलैंगिगता -



विगत 6 सितम्बर को आई पी सी की धारा 377 को सुप्रीम कोर्ट ने अनुचित ठहराते हुए कहा की हमें व्यक्ति की पसंद को आजादी देनी होगी तथा यह गरिमा के साथ जीने के अधिकार का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट ने ताजा फैसले में आईपीसी की धारा-377 को समानता और संवैधानिक  अधिकार का उल्लंघन करार देते हुए आंशिक रूप से खारिज कर दिया है हालाँकि कुछ मसलो में ये प्रभावी रहेगा। 



section 377 and gay


फैसला आते ही बाहर खड़े हजारो समलैंगिको ने अपनी ख़ुशी का इजहार अपने तरीके से किया। अब एक बार फिर इस कानून पर नए सिरे से चर्चा होना स्वाभाविक है।  परन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता की भारत जैसे परम्परागत देश में इस तरह के फैसले कितनी अहमियत रखते है। जहाँ आज भी इन मुद्दों पर खुलकर चर्चा करना भी समाज पसंद नहीं करता वहां अब कानूनन रूप से इसे मान्यता मिलना भारतीय समाज में नए बदलाव  का संकेत है।  इसके साथ ही कुछ नए सवाल सोशल मीडिया में तेजी से वायरल हो रहे है , जोकि इस कानून में दिलचस्पी को बढ़ाते ही है , इनके कुछ उदाहरण निम्न है। 

धारा 377 में कोई रेप केस आया तो न्यायधीश कैसे तय करेंगे कि किसका बलात्कार हुआ? 

बच्चो के जेंडर का निर्धारण कैसे होगा  ?

अब लड़को  को भी डर  है रेप होने का। 


हालाँकि सरकार  ने इस मुद्दे पर अपनी भूमिका नगण्य रखी है और सबकुछ  कोर्ट पर छोड़ दिया है , अभी भी धारा 377 आंशिक रूप से कुछ मसलो में प्रभावी रहेगी , परन्तु देखना यह है की  क्या भारतीय समाज इसे अपनी स्वीकार्यता देता है या नहीं  ? 





noukari ki padhai aur padhai ki kamai me khote ham



नौकरी की पढाई और पढाई की कमाई में खोते हम 




बचपन से पढाई का केवल एक ही उद्देश्य रहा है नौकरी , शायद हर माँ - बाप  अपने अपने बच्चो को तालीम इसीलिए दिलाते ही है की बड़े होने पर वो ऊँचे ओहदे पर पहुँच सके अगर नहीं पहुँचता है तो उसके जीवन भर की मेहनत व्यर्थ हो जाती है अगर शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ नौकरी पाना ही है तो जिसको नौकरी न करनी हो तो वह फिर डिग्री लेकर क्या करेगा। और जो केवल डिग्री के भरोसे नौकरी पाते है उनका क्या ?


और यदि शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानी बनना है तो ऐसे लोगो को क्या कहेंगे जो आलिशान घरो में रहते हुए अपने माता - पिता  को किसी वृद्धाश्रम  में रखे हुए है।  जिनके लिए धन ही सब कुछ है और जिनकी  सभ्यता की पहचान डिस्को से होते हुए क्लब की पार्टियों में वेटरो को टिप देने तक ही सीमित है। जहाँ रिश्ते व्यक्ति की हैसियत और पहुँच देखकर बनाई जाती है , जहाँ ईमानदार और गरीब व्यक्तियों को देखकर मुंह बन जाता है।


 शिक्षा की शुरुआत परिवार से ही होता है जहाँ शुरू से ही सिखाया जाता है की जन्म लिया है तो बस मशीन बनने के लिए, जहाँ दिल और दिमाग से सोचना मना है बस किताबो को रटिये  और परीक्षा देते जाईये  और अगर कक्षा में उच्च स्थान नहीं प्राप्त किया तो  आप वहीं पढाई में कमजोर सिद्ध हो जाते है। और अगर जिंदगी ने कोई कड़ा इम्तेहान ले लिया तो तनाव का शिकार हो जाइये क्योंकि आपकी तालीम में इसका कोई अध्याय नहीं है । 


उसके बाद बच्चो  को कमजोर मानकर भारी भरकम टयुशन लगा दिया जाता है। इन्ही सब के बीच उनका वो बचपन हम छीन लेते है जो प्रकृति ने उन्हें दिया है  . जब हम घर  में मानवीयता और अपनेपन का अध्याय इस अंधाधुंध भौतिक जिंदगी में फाड़ के फेंक देते है तो हम कैसे उम्मीद कर सकते  है की वापसी में हमें ये सारी चीजे मिल भी सकती है।  . 
noukari ki padhai aur padhai ki kamai me khote ham

बड़े होते ही अभिभावकों की इच्छानुसार नौकरी की तलाश शुरू हो जाती है। लक्ष्य तो पहले ही निर्धारित कर दिया जाता है। नौकरी मिल गई तो  आधुनिक संसाधनों को पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत शुरू हो जाती है  ,पैसा आप कितना भी कमा लीजिये कम ही पड़ता है  . ऊपर से हम ठहरे भारतीय  जो सबसे ज्यादा पैसे के पीछे भागने वाले है। पर इसी कमाई और कमाई की पढाई ने एक बेटे को उसके बाप से दूर कर दिया , माँ की  ममता होमवर्क चेक करने तक रह गई , बहन और भाई बेगानो की तरह आपस में मिलते है ,खास रिश्तेदारों से तो सालो में एक बार मुलाकात होने लगी , वो भी औपचारिकता वाली मुलाकातों तक ही दौर सीमित रहता है । दोस्त तो अब मतलब के लिए बनाये जाने लगे उनमे अब पहले जैसी आत्मीयता कहा रही।  यही कारण है की आजकल के बच्चे थोड़े बड़े होते ही अपने अभिभावकों को जवाब देना शुरू कर देते है। और हम खुद से सवाल पूछने की बजाय की ऐसा क्यों हो रहा है उल्टे उनपे दोषारोपण करते है 
noukari ki padhai aur padhai ki kamai me khote ham
हम कहते है की हमारे पास समय नहीं है तो वाकई हमारे पास समय नहीं है क्योंकि अब  आप 100 साल जीने की उम्मीद नहीं कर सकते आप को जो भी करना है उसकी शुरुआत किये रहिये जिंदगी जीने पर यकीं कीजिये। क्योंकि मुर्दा इंसान ना डॉक्टर होता है ना कोई कलेक्टर। 
आपके जीवन यात्रा की शुरुआत हो चुकी है आपको खुद तय करना है की किन रास्तो से होकर गुजरना है बाकि  आखिरी मंजिल तो सबकी एक ही है  ....... 


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man ki baat 2


मन की बात - 2 

man ki baat 2


साहब आज एक बार हम फिर आप से अपने मन की बात करने वाले है पिछली बार तो उ आधार लिंक करवाने जाना था तो थोड़ा सा कहके निकल लिए इस बार साहब हमको लागत  है की आप पिछली बार से भी कम सोने लगे है तभी तो दिन रात एक करके सबके घर में चूल्हा लगवा दिए पर उ रामवृक्षवा के घर एक बार सिलेंडरवा ख़त्म हो गया तो उ फिर से  गोइंठा  पर बनाने लगा , हम पूछे तो झुट्ठे बोल दिया की सरकार  खाने का बेवत लायक छोड़े ही नहीं हमका   गैसवा  कहा से भरवाएंगे जौने मनई के दूकान पर ठेला चलात रहे उ नोटबंदी और जीएसटीये समझे  खातिर परेशान  रहा ये ही चक्कर में  दुकानदारी चौपट रही। व्यापारी तो खुदे कर्जा में चला गया  , आप उसकी बाती पे एकदम विश्वास मत कीजियेगा सरकार एक नंबर का झूठा है अभी पिछले ही महीने देखे थे चौधरी की दुकान से बड़का  नहाने वाला साबुन खरीदा था , इंहा  तो जमाना गुजर गया साबुन खरीदे। 



सुने है सरकार उ चाइना वाले डोकलाम में फिर से घुस आये है , इसीलिए हम कहते है थोड़ा आप भी अब विदेशवा  जाना  कम कर दीजिये इहा रहेंगे तो डर - भय बना रहेगा। वैसे भी आपको चाइना के माल और बात पर कम ही भरोसा करना चाहिए, ई सब हमेशा आपको भाउक करके फायदा उठा ले जाते है। 


सरकार  आप के काम से हम पूरा खुश है ,सुने थे सुप्रीम कोरट  उ छोट जात वाला कानून में कुछ करे रही। .... उ त अच्छा रहा की आप कानून ना बदले दिहे , इ ठकुरवा और पंडितवा  इतने से ही इतरा गए थे की अब कोई उनको झूठ मुठ में नहीं फंसा सकता। इनके पक्ष में सरकार कोई कानून मत बनाइयेगा नहीं तो इ फिर उतरा जायेंगे। एक तो पहले ही नौकरी में अरक्षणवा से जलते थे अब तो अउरी बउरा गए है बुझते थे की सरकार केवल उन्ही के है। अरे उ 200 में से 200 ला देंगे तब्बो सरकार नौकरी हमही को देंगे चाहे हम 50ए  नंबर काहे  ना लाये। 


एक थो हमारा पर्सनल रेक़ुएस्ट था सरकार आप से.......  अब हम गरीब मनई का जानी की आप उ स्मार्ट सिटी कहा बनाये है , और कहा से टिकट कटवाई आप ही दुगो  टिकटवा  निकलवा दीजिये ना.......  उ कलुआ के अम्मा भी कह रही थी की उसको भी देखना है की सरकार कैसा सुन्दर शहर बसाये है। और हाँ  ड्रइवरवा से कह दीजियेगा की ट्रेनवा टाइम पर लेते आएगा। कल्हिये भिनसारे रामखेलावन के लइका को छोड़े स्टेशन गए थे ट्रेन पकड़ाते - पकड़ाते  अगला दिन का दतुअन स्टेशनवे पे करना पड़ा. 
अच्छा सरकार अब हम चलते है अब तो आप भी आइयेगा ही अपने भाइयो और बहनो से मिलने  चुनाव में । ........ 


लेखक की इससे पहले की  प्रसिद्द रचना  -  मन की बात 

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बात 

                                                                        
baat

बात करते करते बात बन जाए तो क्या बात है 
और अगर बात करनी इतनी ही जरूरी थी तो बात की क्यों नहीं 
फिर बात बताते हो की बात हुई 
पर बात बताई नहीं उसको 
बात बताओगे नहीं तो उसकी बात पता कैसे चलेगी 

बात रखे रहने में भी कोई बात नहीं है 

बात बताने से ही बात बढ़ेगी 
फिर कुछ बात उधर से होगी 
हो सके बात ना बन पाए 
हो सके बातों का सिलसिला शुरू हो जाये 
पर बात बताना अदब से 
यही बात की कलाकारी है 
बातों से  ही तो आजकल जंग लड़ी जाती है 
बातों में ही तो सम्मोहन है 

अगर बात बन गई तो क्या बात है 

कुछ बात तुम्हारी होगी कुछ बात उनकी होगी 
औरो की बातों पर ध्यान मत देना 
उनको केवल बातो में मजा लेना है 
पर तुमको बातो से ही जीवन चलाना है 
यही बात है मेरी 
कुछ और बात है तो आओ बातें करे 





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झगड़ा  


प्रायः दो व्यक्तियों के बीच होने वाले आपसी तनाव और हिंसा पूर्ण गतिविधियों की वह संलिप्तता है जिसमे भाषा और व्याकरण का ध्यान नहीं रखा जाता है।  रखने को तो शारीरिक हानि  का भी ध्यान नहीं रखा जाता है परन्तु  स्वयं की नहीं बल्कि प्रतिपक्षी की। 

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झगडे का बीज प्रायः  मन मस्तिष्क के किसी कोने से जड़ो में परिवर्तित होने का प्रयास करता है , विद्वान पुरुषो द्वारा इस प्रकार के पौधो का दमन अंकुरण के समय ही ठीक उसी प्रकार कर दिया जाता है जैसे लाभकारी फसलों के बीच जमने वाले खरपतवारो का किया जाता है परन्तु जिस मन मस्तिष्क में सालो से कोई उपजाऊ फसल ना बोई गई हो वहां इस तरह की पौध जीवन की मायावी ऊर्जा में संतुलन का कार्य करती है। 

झगडे को लेकर विद्वान पुरुषो द्धारा अक्सर ही उनसे दुरी बनाये जाने की बात कही जाती है क्योंकि झगड़ा अगर एक बार गड गया तो उसे उखाड़ना इतना आसान नहीं होता और उसे उखाड़ने के चक्कर में हम अपना अमूल्य छण व्यर्थ में ही जाया कर देते है जिसका उपयोग हम स्वयं के विकास में लगा सकते थे।  यदि आप एक नन्हे पौधे है और आपके बगल में कोई दीवार खड़ा कर देता है तो भलाई उससे लड़ने में नहीं है बल्कि अपनी दिशा थोड़ी सी  बदल कर निकलने में है। समय आने पर पौधा जब विशाल पेड़ में परिवर्तित होता है तो वह दीवार स्वयं ही गिर जाती है। 

झगडे का बीज ज्यों - ज्यों  बड़ा होते जाता है उसी प्रकार वह मस्तिष्क में लगे अन्य सुकोमल पौधो (मानवीय विचारो )को हानि पहुंचाने लगता है। बीज को मस्तिष्क में रोपित होने से बचाने के लिए आवश्यक है की हम अहम् का त्याग कर दे वास्तव में झगडे के प्रधान कारणों में से अहम् का प्रथम  स्थान है। जहाँ मैं है वहां कोई और आ ही नहीं सकता और जहा मैं नहीं है वहा  प्रत्येक विचार और व्यक्ति का स्वागत है। 

NOTE - झगडे की औषधि अगर कोई है तो वह है आपकी एक मुस्कान।  





rahul aur pappu

राहुल और पप्पू 



आज सुबह - सुबह ही प्रिय प्रकाश राज से मुलाकात हो गई ..... बड़ी परेशान थी बेचारी जबसे उसका नैन पिचकाऊ वाला सीन प्रसिद्द हुआ है तबसे जो भी बड़ी हस्ती यह काम करती है बगल की तस्वीर में उसे भी डाल दिया जाता है। जवान की तो बात ठीक थी पर बुड्ढों के साथ कैसी तुलना।  अभी कुछ दिन पहले ही अपने देश के एक होनहार बालक देश के सबसे बड़े क्लास रूम में आँख मारते दिखे , वैसे मारा बड़ा गजब का था स्माइल के साथ , ऐसा प्रदर्शन बिना अथक प्रयास के नहीं किया जा सकता। 

rahul aur pappu


उनकी मम्मी को भी अब समझना चाहिए की हर कोई सलमान खान नहीं होता , जल्दी से एक सुन्दर सुशील  कन्या देखकर उनके हाथ पीले कर दे वर्ना  जिस तरह से वे संसद में गले मिल रहे है उसको देख के लगता है की कही घर में  ही  जमाई न लाना पड़े। बाबू ने तो खुले आम स्वीकार भी कर लिया की लोग उन्हें पप्पू भी कहते है  . वैसे बालक है बड़ा नादान। ऐसी बातो पर सबके सामने मुहर नहीं लगाना चाहिए। 

वैसे जबसे राहुल गाँधी का गले मिलने वाला प्रकरण हुआ है तबसे भाजपा के सांसद उनसे दूर रहने लगे है ,कारण वही की कोई रिश्तेदारी न हो जाये न तो राजनीति में बड़ी भारी पड़ेगी। 

" सोते हुए को जगा दिया तुमने 
   आज किसको गले लगा लिया तुमने  "

मेरी कक्षा में एक बड़ा ही  हंश्मुख लड़का था उसे हमेशा  ही  मॉनिटर बनने का शौक लगा रहता था। पर पढाई में निल बटा सन्नाटा और हरकते अजीबो गरीब होने के कारण  उसका शौक कभी हकीकत में न बदल सका.कर्मठी वह बहुत था परन्तु उसे यह कभी समझ में नहीं आया की उसके अंदर मॉनिटर बनने के एक भी गुण विद्यमान  नहीं थे और नाहीं उसने उन आवश्यक गुणों को कभी ग्रहण करने की कोशिश की।वो तो बस बाकि लोगो का मनोरंजन ही करता रह गया।  और एक बात मेरा इशारा बिलकुल भी राहुल गाँधी की तरफ नहीं है। 

मेरा मोदी जी से विनम्र निवेदन है राजनीति अपनी जगह है और प्रेम व्यवहार अपनी जगह।  आखिर है तो अपने ही देश का एक  बच्चा कृपया आप इस बालक को राजनीति के कुछ गुण ही सीखा दीजिये वर्ना कांग्रेस में बैठे बालक के चचा लोग इसे ऐसी ही उलटी सीढ़ी हरकते सीखाते रहेंगे आखिर ये कहावत इसीलिए तो बनी है की


 " मुर्ख दोस्त से तो अच्छा होशियार दुश्मन होता है"

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नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी




gareebi mukt bharat

गरीबी मुक्त भारत 



बहुत दिनो से भारतीय राजनीति मे बहुत ही मजेदार कथन और मुहावरे प्रचलन मे चले आ रहे है जिनमे से अधिकांश महत्वहीन है , हाँ महत्व बस इतना ही है की जनभावनाओ को अपनी राजनीतिक गतिशीलता दी जा सके . नाम बदलने की निरर्थक राजनीति भी अब जनता के किसी काम की नही , कभी किसी स्टेशन का नाम तो कभी किसी अन्य सार्वजनिक स्थलो के नाम , अगर करना ही है तो कुछ काम करिये अगर नारे देने है तो गरीबी मुक्त भारत का नारा दीजिये आप फाइव स्टार होटल मे बैठकर बिसलेरी का पानी पीते हुए नामी अखबारो मे निकलवा देते है गरीबी बढ रही है या घट रही है , दिखावा तो इतना है की गरीब के घर का खाना जाके खा आते है लेकिन कभी उस गरीब को अपने घर दावत का पुछ्ते भी नही , समाचार वाले भी खूब दिखाते है की फलां नेता आज दलित के घर खाना खाने आ रहे है और सौभाग्य से वो दलित हमेशा गरीब ही निकलता है काश की ए जिस गरीब के घर भोजन करते कम से कम उसकी गरीबी त़ो मिटा देते . भाषन बहुत है साहब बहुत सी कलाकारियां है . मध्यम वर्गीय परिवार के रीढ़ की हड्डी टूट चुकी है प्राइवेट नौकरियो मे परिवार चलाने इतना वेतन नही है और सरकारी नौकरी मिलना भगवान मिलने के बराबर है.

राम का आसरा है पर वो खुद ही बिना आसरे के है . विकास और गरीबी मुक्त नारे कहाँ अब तो मुस्लिम पार्टी हिन्दू पार्टी के नारे दिये जा रहे है बस यही हिन्दू – मुस्लिम से गरीबी दूर होगी . सब भावनाओ का बजार है जिसके सहारे वोट खरीदे जा रहे है और बेचारा गरीब और गरीब होते जा रहा है .

desh ko kranti ki jarurat



देश को क्रांति की जरुरत



देश के मौजूदा हालात कुछ ऐसे हो चुके है जहाँ लोग अपने ही पैरो पर कुल्हाड़ी मारने को तैयार है।  यहाँ कोई  देशवासी से ज्यादा भाजपाई , कांग्रेसी  और अन्य पार्टियों के नाम से अपनी पहचान पहले बना चुका है , बहुत ही कम लोग ऐसे होंगे जो धैर्य पूर्वक सत्य को ग्रहण कर सके ,लोग सिर्फ दूसरी पार्टियों से खुद की पार्टी का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ज्यादा जोर देने लगे है ,अगर पिछली सरकार ने एक लाख करोड़ का घोटाला किया है तो इनका तर्क रहता है की हमारी सरकार  में मात्र चंद करोड़ का घोटाला ही हुआ है ऐसे ही यदि कोई बड़ी दुर्घटना, दुराचार तथा जघन्य अपराध  हो जाती या उनका ग्राफ बढ़ जाता  है तो उसके तार भी ऐसे ही जोड़े जाते है  , की पिछली सरकर में सिर्फ इतनी हत्याएं हुई और हमारी सरकार में उससे कुछ कम हुई।
desh ko kranti ki jarurat

कुछ तो हमको भी आदत डाल  दी गई है की सरकार को थोड़ा वक़्त देना चाहिए। इसी आदत को जब तक हम समझते है तब तक ट्रेन छूट चुकी होती है।  एक शख्स ईमानदारी से बता सके की अमुक सरकार सिर्फ जनता की भलाई के लिए सत्ता प्राप्त करना चाहती है।  इस हमाम में सब नंगे हो चुके है सारे एक ही थाली के चट्टे  बट्टे है। आम आदमी कल भी त्रस्त  था और आज भी त्रस्त  है , सीमा पर आज भी जवान मर रहे है  और कल भी, कई खबरे तो आप और हम तक न पहुँच पाती  है और न पहुँचने दिया जाता है। 


नेता एक ऐसी बिरादरी है जो कभी भी आपस में गंभीर होकर नहीं लड़ते उनकी लड़ाई कभी भी वास्तविक नहीं होती है। सिर्फ आम जनता को दिखाने के लिए होती है लड़ते तो हम है उनके अनुयायी बनकर उनकी ताकत उनके समर्थको से होती है। प्रत्येक नेता अपनी अपनी जरूरतों के अनुसार समर्थक वर्ग खड़ा करता है , आजकल तो इस खेल में मीडिया का भी समर्थन हासिल है जो की स्वार्थ और सत्ता में हिस्सेदारी पाने हेतु उन्हें प्रमोट करता है। बदलते समय के साथ जनता को गुमराह किये जाने वाले शब्द रूपी बाणो में भी बदलाव आया है जिनमे कही भी विकास की बाते न होकर जातीय वैमनस्य , धार्मिक उन्माद रूपी  जहर से बुझे तीर होते है। 


देश इस समय एक बार फिर अपनी दिशा खोते दिख रहा है अगर इसमें किसी को विकास दिखता हो तो उसकी संतुष्टि के लिए मैं कुछ नहीं कर सकता।  आज कोई भी पार्टी अपनी कथनी के अनुरूप करनी करने में सक्षम नहीं है।  आज जरुरत इस देश की मूल व्यवस्था बदलने की है जिसके लिए आवश्यक है की इस देश का युवा वर्ग नए क्रांतिकारी विचारो को जन्म दे और उनपर अमल करे। भ्रष्टाचार  रूपी व्यवहार के हम इतने आदि हो चुके है की प्रत्येक सरकारों में इसको ख़त्म करने की बात की जाती है परन्तु सरकार ही इसके दलदल में फंसती दिखती है। 

मंत्री , विधायक , सांसद  जैसे माननीयो का मूल उद्देश्य जनसेवा न होकर धनसेवा बन चुका है , अधिकारी वर्ग अपनी राजनीतिक पहुंच से मलाईदार पदों पर काबिज है और जो थोड़े बहुत ईमानदार है वे राजनीतिक प्रताड़ना का शिकार है। समाचारो में दिखाई जाने वाली खबरे पूरी तरह से नाप तौल कर दिखाई जाती है , पूर्व निर्धारित डिबेट होते है ,चंद  उद्योगपतियों के हाथो में अधिकाँश संसाधनों की हिस्सेदारी है ,
 आखिर क्रांति क्यों ना हो। ........   


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man ki baat

मन  की बात 


हम क्या बोलेंगे साहब आप ही इतना कुछ सुना देते है की मन खुश हो जाता है , आपके पास तो बड़का बड़का माइक है ,लाखो लोगो की भीड़ है हम तो उस भीड़ का हिस्सा मात्र है ,


आपने कह दिया की आप अच्छे दिन लाएंगे हम इसी उम्मीद पर आपको लेते आये। अभी कल की ही बात है हमारी घरवाली हमसे बोली अब तो छोटका लोगो पे तुम्हारी सरकार ज्यादा ध्यान देगी तुमको अपने दुकान के लिए भी आसानी से लोन मिल जायेगा , अब हम उसको कैसे समझाते की सरकार तो हर जगह नहीं जा सकते , कही बैंक का मैनेजर जालिम निकला तो सरकार उसको कैसे सबक सीखाएंगे और हम गरीब मनई अपनी फ़रियाद लेकर कहां - कहाँ तक दौड़ेंगे हाँ सरकार बोले है तो अच्छे दिन जरूर आएंगे सरकार के मंत्री तो है वो तो सरकार के आदेश पर काम करेंगे और उनके आदेश पर बैंक से लेकर हर विभाग के अधिकारी भी ढंग से काम करना शुरू कर देंगे आखिर कुछ तो डर होगा हमारे नए सरकार का।

पहले के सरकार तो कुछ बोलते ही नहीं थे और अबकी सरकार खूब बोलते है अरे रेडियो  पर भी तो अपने मन की बात करते है पर कभी हमारे मन की बात क्यों नहीं सुनते हम भी क्या क्या सोचते है सरकार के पास इतना टाइम कहा होता है की अपने देश  के मनई लोगो की बात सुन सके वो तो विदेश में जाकर ऊ ट्रम्प  के साथ  देश को आगे बढ़ाने की चर्चा  में ही बिजी रहते है , लेकिन देश का क्या उसके लिए सरकार जरूर कुछ आदेश देकर जाते होंगे । अब पिछले ही साल सरकार से शिकायत करनी थी  की हमारे इलाके के सांसद और विधायक जी कभी दर्शन ही नहीं देते , वो भी तो सरकार की ही पार्टी के है उनके अंदर भी तो सरकार का खौफ होना ही चाहिए , हमारे सरकार तो  इतने अच्छे है 18 घंटा तक तो खाली काम करते है और उनकी पार्टी के लोगो का इ हाल है , इहे लोग सरकार को बदनाम करते है।

अभी पिछले ही महीने पढ़ा था एगो भगोड़ा बैंक का पैसा लेकर विदेश भाग गया और लोग हमारे सरकार को सुना रहे है , अब हम क्या कहे मतलब सरकार थोड़ी ना जानते है कौन आदमी ईमानदार है और कौन बेईमान अगर इतना ही पता होता तो हमारे सरकार एक -  एक को जेल नहीं भिजवा दिए होते , आप मत सोचियेगा सरकार ये बैंक वाले भी कम धूर्त नहीं होते अभी छह महीने से हमारी ही अर्जी दबाकर रखे हुए है चार महीने में तो आधार से लिंक किये है कह रहे थे सब की सरकार की योजना है कोई भी आदमी अब फर्जी काम नहीं करवा पायेगा बताइये जैसे हम समझ ही नहीं रहे है की सब कैसे हमको चुतिया बना रहे है अगर ऐसा होता तो उ नीरव मोदी कैसे उल्लू बना देता।

man ki baat

ऐसे ही सब हमको नोटबंदी में उल्लू बनाये थे कह रहे थे सरकार नोट बॅंद कर दी है हम भी उनसे कहे हमरी सरकार जनता की सरकार है अगर नोटबंद की होगी तो जरूर पहले उतना नोटछाप ली होगी इतनी बुरबक नहीं है सब नोट तुम्ही लोग ब्लैक कर दिए होंगे देखे नहीं कितना करोड़ लेके लोग पकड़ा रहे है।  बात तो बहुत है सरकार पर पर उ  खाद की दुकान पर भी जाना है आधार से लिंक करवाने नहीं तो सब खाद ही नहीं देंगे।अब आप से क्या छुपाये सरकार  1000  रुपया के खाद के लिए आज हम महाजन के यहाँ से 2000 उधार लेकर आये है काहे से लोग बोल रहे थे बाकी का एक हजार वापस हमरे खाता में आएगा  तब हम सूद सहित महाजन को लौटा देंगे इहे गरीबी मिटाये खातिर तो हम आपको वोट दिए रहे की   एक थो आप ही है जो हमरा अच्छा दिन जरूर लाएंगे ऊ टीबी  पर आपका अच्छा दिन वाला प्रचार भी देखे रहे जिसमे किसान लोग आपस में बतिया रहे थे की अच्छा दिन आने वाला है , आप भले ही भूल गए होंगे सरकार लेकिन हमको आज भी ऊ प्रचार याद है आप निश्चिंत होकर अपना काम करते रहिये सरकार ऐसे ही हम आगे भी आपको अपनी मन की बात बताते रहेंगे आखिर आप सच्ची में कहा मिलने वाले।


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भारतीय मीडिया 


भारतीय राजनीति के मौजूदा हालत में विकास कही पीछे छुटते जा रहा है , मीडिया भी जनता के मुलभुत मुद्दों सड़क ,पानी , बिजली, स्वास्थ , शिक्षा और कानून व्यवस्था की जमीनी हकीकत न दिखते हुए उन्ही खबरों को दिखाने में लगी  जिससे उसके चैनल की टीआरपी बढ़ सके क्या आने वाले दिनों में मीडिया द्वारा दिखाई गई खबरे खास तौर पर राजनीतिक मुद्दों पर आधारित कार्यक्रम अपनी प्रासंगगिकता खो बैठेंगे और मीडिया स्वार्थ सिद्धि हेतु  सम्पूर्ण रूप से राजनीतिक प्रभाव में आ जायेगा .

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मीडिया एक राजनीतिक मुहीम का हिस्सा हो गई है , मैंने न्यूज़ चैनलों पर होने वाली डिबेट की प्रासंगिकता के विषय में विस्तार से चर्चा की थी और बतलाया था की ऐसे डिबेट पूर्व प्रायोजित होते है।  इनमे पूर्व में सब निर्धारित रहता है , वैसे देखा जाये तो धीरे - धीरे जनता भी इस बात को समझने लगी है। मैंने ऊपर की पांच  लाइने एक चैनल से पूछी थी जवाब अभी तक मिला नहीं। 


भारतीय मीडिया आज विश्व मंच पर अपनी पहचान राजनीतिक चाटुकारिता के रूप में बनाती जा रही है। दिल्ली और नोएडा जैसे शहरो में प्लॉट आवंटन खुद के लिए अन्य सरकारी सुविधाएं और राजनीतिक सौदेबाजी मीडिया की प्रमुख पहचान है।  निचले स्तर पर भी पत्रकारिता मात्र थानों से लेकर विभिन्न सरकारी विभागों में दलाली का साधन बनकर रह गई है। ऐसे में निष्पक्ष पत्रकारिता कहाँ  रह जाती है जो थोड़े बहुत मीडिया कर्मी अपनी अंतरात्मा की आवाज को दबा नहीं पाते उनको राजनीतिक द्धेष का शिकार होना पड़ता है तथा  सरकारी तंत्र द्वारा उन्हें अनेको माध्यम से प्रताड़ित किया जाता है। 

बाकि अक्सर चैनलों पर छाये रहने वाले पत्रकारों की अगर संपत्ति की जाँच हो जाये तो सारी हकीकत जनता के सामने आ जाएगी परन्तु ऐसा कभी संभव नहीं। यह एक बहुत आवश्यक कदम है की मीडिया से जुड़े उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों की संपत्ति की निष्पक्ष रूप से जांच की जाये क्योंकि लोकतंत्र में कोई भी संविधान और जनता  से बढ़कर नहीं होता। 


लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाने वाला मीडिया आज बड़े बड़े उद्योग समूहों द्वारा संचालित किया जा रहा है। ऐसे में सरकार पर दबाव बनाने में और सरकार को खुश करने में मीडिया का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है। 

कई खबरे तो ऐसी है जो सोशल मीडिया पर बहुतायत में प्रसारित होने पर भी मीडिया में नहीं दिखाया जाता। 
सोशल मीडिया को भी आजकल नियंत्रित करने के लिए विभिन्न राजनीतिक समूह प्रयासरत है। इस कार्य में इनके द्वारा संचालित आईटी सेल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। 

वैसे मीडिया की हकीकत अब जनता भी बखूबी समझने लगी है , अगर ऐसे ही चलता रहा तो चैनलों पर दिखाए जाने वाले सास - बहु के कार्यक्रम और समाचार एक ही श्रेणी में आ जायेंगे जिनमे सिवा नौटंकी के और खबरों को तोड़ मरोड़ के दिखने के सिवा कुछ और नहीं होता। 


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रेलमपेल 


मेरा अनुरोध है सारे भारतीय राजनेताओं से की वो अपनी यात्रा रेलवे की सामान्य बोगियों मे  करें खास तौर पर माननीय प्रधानमंत्री जी से यदि वी देश से वीआईपी कल्चर खत्म करना चाहते है तो डिब्बो मे आम आदमी की तरह चढकर ही दिखा दे वर्ना तो इनके आने पर आम आदमी को सड़कों के किनारे खड़ा कर दिया जाता है . एक तरफ जहां ओवरलोडिंग मे दोपहिया से लेकर चर पहिया वाहनो का चालान काटा जाता है वही दूसरी तरफ ट्रेनो मे बाहर तक लटकते लोगो को देखकर क्या सरकार रेलवे का चालान काट सकती है , यह इस देश की कैसी नीति है . सामान्य टिकट खिड़कियॉ पर लगी लम्बी लाइन ,आपस मे लड़ते झगड़ते लोग और आम आदमी के समय की बर्बादी वाकई हम निरर्थक होते जा रहे है .


जनरल डिब्बो मे भेड़  बकरी की तरह ठुंसे लोग घंटो विलंब से चलती रेल , शौचालय से आती भीषण दुर्गन्ध यही है भारतीय रेल की पहचान . कहने को तो इस देश मे राजधानी से लेकर शताब्दी तक चलती है परंतु उनमे मजदूर , कामकाजी वर्ग और गरीब जनता तो नही चलती पैसे वालो के लिये तो हवाई जहाज तक है . परंतु आम आदमी के लिये मशक्कत और दुर्व्यवस्था रूपी इस दानव से निजात दिलाने मे कोई भी सरकार सक्षम नही दिखती सिर्फ वादे होते है , दिलासे होते है और मिलती है सिर्फ झूठी उम्मीद के दिलासे .बाकी जिंदगी तो रेलगाड़ी के पहियो की तरह चलती ही रहती है .

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