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मुल्क 


वे कहते है की मुल्क उनका है ये कहते है की मुल्क इनका है 
 चले जाएँ सरहदों पर कहने वाले ये मुल्क जिनका है 

मेरे मुल्क से मेरी वफादारी के सबूत मांगते है वो 

जिनके महलो में लगने वाले पत्थर भी विलायती है 

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कुछ शोर सा उठता है इस अहदे -  वतन में 
सत्ता के लिए सब कुछ जायज है इस चमन में 
कुछ काटेंगे कुछ चाटेंगे ,
कुर्सी के पीछे सारे भागेंगे 
मुल्क के लिए कौन करता है कुछ 
यहाँ दंगे भी होते है सत्ता के लिए और  मत पूछ 

मुल्क के लिए हँसते हुए जान दे देते है वो 
जिनके लिए मुल्क और माँ एक होती है 
चंद अल्फाज ही निकलते है इन हुक्मरानो के मुखड़े से 

जिसमे शहीद को भारत माँ का वीर सपूत बतलाते   है 

और अगले ही दिन उस उस बेचारी माँ को भी नहीं पहचान पाते है 
वो कहते है की वो मुल्क के रखवाले है 
मैं कहता हूँ वे देश को लूटने वाले है 


कोई देशभक्ति का ओढ़े चोला 
उसके अंदर बम का गोला 
कोई विदेशी सरकार चलावे 
क्या वो देश का हो पावे 
कोई बांटे हिन्दू -  मुस्लिम 
कोई बाँटे माटी - जाति 
मैं तो खड़ा मौन मेरे मौला  
जबसे सियासत ने ओढ़ा धर्म का चोला 


गुलाम हुआ अपनों से ही मुल्क मेरा 
अब तो होगी क्रांति 
मेरा रंग दे बसंती चोला। 



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सावन

                                                                      
sawan

भीगे - भीगे से दिन है
भीगी सी राते
बाहर आने को है कुछ जज्बाते
बरखा है  उमंग है
जब तू मेरे संग है

वो पहले सावन का झूला

अबकी बार भी ना मन भूला
तुझे याद है वो चुपके से लहलहाते हुए
धान के खेतो को देखना
उन नन्हे पौधो की हरियाली में जिंदगी को ढूंढना 
वो मेले में  हरी चूड़ियों को खरीदने की ललक
और उस लम्बी टोपी वाले  जादूगर की एक झलक 
शिवालय में शिव भक्तो की लम्बी कतार 
उस पर से नागपंचमी का त्यौहार 
हर सावन ऐसेा ही हो मन भावन 
हर झूले पर हो तेरा साथ 
मुश्किलें चाहे कितनी भी आये 

तुम रहना हमेशा साथ 




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tufan


तूफ़ान 

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खुद को रोक पाते हो तो रोक लो
जो तूफ़ान सा उठ रहा है सीने में तुम्हारे
वो दुनियां की ही तो देन है
हो सके तो बदल लो खुद को ज़माने के लिए
माना की खून गर्म है तुम्हारा
पर थोड़ा सा निकालो दिखाने के लिए

युग आये और युग चले गए
कुछ इतिहास बनाके गए कुछ खास बना के गए
जाना तो सबको है एक दिन
परंतु कुछ आस बनाके गए कुछ उदास बनाके गए

 तुमको लगता है की व्यवस्था ही ख़राब है
अरे ये जवानी की अवस्था ही ख़राब है
इसीलिए तो वो तुमको बहकाते है 
अगर ना बहके तो बहका हुआ बताते है

युवा शक्ति से ही राष्ट्र गतिमान होता है
पर गति की राह में कभी - कभी अभिमान होता है
तभी तो हर जगह
 तजुर्बा प्रधान होता है

चलो माना  की तुम और हम आजाद है
तुम व्यवस्था के मारे हो
हम अवस्था के मारे है

फिर ये जाति ,धर्म ,क्षेत्र के कैसे नारे है
हमको और तुमको मझधार में फंसा के
 हँसते वे किनारे है

लगता है एक तूफ़ान मेरे सीने में भी है
उठते हुए कहता है
क्या मजा....  ऐसे जीने में भी है  ?






लेखक की प्रतिलिपि पर प्रकाशित एक रचना 

https://hindi.pratilipi.com/read?id=6755373518941614


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noukari ki padhai aur padhai ki kamai me khote ham



नौकरी की पढाई और पढाई की कमाई में खोते हम 




बचपन से पढाई का केवल एक ही उद्देश्य रहा है नौकरी , शायद हर माँ - बाप  अपने अपने बच्चो को तालीम इसीलिए दिलाते ही है की बड़े होने पर वो ऊँचे ओहदे पर पहुँच सके अगर नहीं पहुँचता है तो उसके जीवन भर की मेहनत व्यर्थ हो जाती है अगर शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ नौकरी पाना ही है तो जिसको नौकरी न करनी हो तो वह फिर डिग्री लेकर क्या करेगा। और जो केवल डिग्री के भरोसे नौकरी पाते है उनका क्या ?


और यदि शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानी बनना है तो ऐसे लोगो को क्या कहेंगे जो आलिशान घरो में रहते हुए अपने माता - पिता  को किसी वृद्धाश्रम  में रखे हुए है।  जिनके लिए धन ही सब कुछ है और जिनकी  सभ्यता की पहचान डिस्को से होते हुए क्लब की पार्टियों में वेटरो को टिप देने तक ही सीमित है। जहाँ रिश्ते व्यक्ति की हैसियत और पहुँच देखकर बनाई जाती है , जहाँ ईमानदार और गरीब व्यक्तियों को देखकर मुंह बन जाता है।


 शिक्षा की शुरुआत परिवार से ही होता है जहाँ शुरू से ही सिखाया जाता है की जन्म लिया है तो बस मशीन बनने के लिए, जहाँ दिल और दिमाग से सोचना मना है बस किताबो को रटिये  और परीक्षा देते जाईये  और अगर कक्षा में उच्च स्थान नहीं प्राप्त किया तो  आप वहीं पढाई में कमजोर सिद्ध हो जाते है। और अगर जिंदगी ने कोई कड़ा इम्तेहान ले लिया तो तनाव का शिकार हो जाइये क्योंकि आपकी तालीम में इसका कोई अध्याय नहीं है । 


उसके बाद बच्चो  को कमजोर मानकर भारी भरकम टयुशन लगा दिया जाता है। इन्ही सब के बीच उनका वो बचपन हम छीन लेते है जो प्रकृति ने उन्हें दिया है  . जब हम घर  में मानवीयता और अपनेपन का अध्याय इस अंधाधुंध भौतिक जिंदगी में फाड़ के फेंक देते है तो हम कैसे उम्मीद कर सकते  है की वापसी में हमें ये सारी चीजे मिल भी सकती है।  . 
noukari ki padhai aur padhai ki kamai me khote ham

बड़े होते ही अभिभावकों की इच्छानुसार नौकरी की तलाश शुरू हो जाती है। लक्ष्य तो पहले ही निर्धारित कर दिया जाता है। नौकरी मिल गई तो  आधुनिक संसाधनों को पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत शुरू हो जाती है  ,पैसा आप कितना भी कमा लीजिये कम ही पड़ता है  . ऊपर से हम ठहरे भारतीय  जो सबसे ज्यादा पैसे के पीछे भागने वाले है। पर इसी कमाई और कमाई की पढाई ने एक बेटे को उसके बाप से दूर कर दिया , माँ की  ममता होमवर्क चेक करने तक रह गई , बहन और भाई बेगानो की तरह आपस में मिलते है ,खास रिश्तेदारों से तो सालो में एक बार मुलाकात होने लगी , वो भी औपचारिकता वाली मुलाकातों तक ही दौर सीमित रहता है । दोस्त तो अब मतलब के लिए बनाये जाने लगे उनमे अब पहले जैसी आत्मीयता कहा रही।  यही कारण है की आजकल के बच्चे थोड़े बड़े होते ही अपने अभिभावकों को जवाब देना शुरू कर देते है। और हम खुद से सवाल पूछने की बजाय की ऐसा क्यों हो रहा है उल्टे उनपे दोषारोपण करते है 
noukari ki padhai aur padhai ki kamai me khote ham
हम कहते है की हमारे पास समय नहीं है तो वाकई हमारे पास समय नहीं है क्योंकि अब  आप 100 साल जीने की उम्मीद नहीं कर सकते आप को जो भी करना है उसकी शुरुआत किये रहिये जिंदगी जीने पर यकीं कीजिये। क्योंकि मुर्दा इंसान ना डॉक्टर होता है ना कोई कलेक्टर। 
आपके जीवन यात्रा की शुरुआत हो चुकी है आपको खुद तय करना है की किन रास्तो से होकर गुजरना है बाकि  आखिरी मंजिल तो सबकी एक ही है  ....... 


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बड़ा कष्ट है जिंदगी में





man ki baat 2


मन की बात - 2 

man ki baat 2


साहब आज एक बार हम फिर आप से अपने मन की बात करने वाले है पिछली बार तो उ आधार लिंक करवाने जाना था तो थोड़ा सा कहके निकल लिए इस बार साहब हमको लागत  है की आप पिछली बार से भी कम सोने लगे है तभी तो दिन रात एक करके सबके घर में चूल्हा लगवा दिए पर उ रामवृक्षवा के घर एक बार सिलेंडरवा ख़त्म हो गया तो उ फिर से  गोइंठा  पर बनाने लगा , हम पूछे तो झुट्ठे बोल दिया की सरकार  खाने का बेवत लायक छोड़े ही नहीं हमका   गैसवा  कहा से भरवाएंगे जौने मनई के दूकान पर ठेला चलात रहे उ नोटबंदी और जीएसटीये समझे  खातिर परेशान  रहा ये ही चक्कर में  दुकानदारी चौपट रही। व्यापारी तो खुदे कर्जा में चला गया  , आप उसकी बाती पे एकदम विश्वास मत कीजियेगा सरकार एक नंबर का झूठा है अभी पिछले ही महीने देखे थे चौधरी की दुकान से बड़का  नहाने वाला साबुन खरीदा था , इंहा  तो जमाना गुजर गया साबुन खरीदे। 



सुने है सरकार उ चाइना वाले डोकलाम में फिर से घुस आये है , इसीलिए हम कहते है थोड़ा आप भी अब विदेशवा  जाना  कम कर दीजिये इहा रहेंगे तो डर - भय बना रहेगा। वैसे भी आपको चाइना के माल और बात पर कम ही भरोसा करना चाहिए, ई सब हमेशा आपको भाउक करके फायदा उठा ले जाते है। 


सरकार  आप के काम से हम पूरा खुश है ,सुने थे सुप्रीम कोरट  उ छोट जात वाला कानून में कुछ करे रही। .... उ त अच्छा रहा की आप कानून ना बदले दिहे , इ ठकुरवा और पंडितवा  इतने से ही इतरा गए थे की अब कोई उनको झूठ मुठ में नहीं फंसा सकता। इनके पक्ष में सरकार कोई कानून मत बनाइयेगा नहीं तो इ फिर उतरा जायेंगे। एक तो पहले ही नौकरी में अरक्षणवा से जलते थे अब तो अउरी बउरा गए है बुझते थे की सरकार केवल उन्ही के है। अरे उ 200 में से 200 ला देंगे तब्बो सरकार नौकरी हमही को देंगे चाहे हम 50ए  नंबर काहे  ना लाये। 


एक थो हमारा पर्सनल रेक़ुएस्ट था सरकार आप से.......  अब हम गरीब मनई का जानी की आप उ स्मार्ट सिटी कहा बनाये है , और कहा से टिकट कटवाई आप ही दुगो  टिकटवा  निकलवा दीजिये ना.......  उ कलुआ के अम्मा भी कह रही थी की उसको भी देखना है की सरकार कैसा सुन्दर शहर बसाये है। और हाँ  ड्रइवरवा से कह दीजियेगा की ट्रेनवा टाइम पर लेते आएगा। कल्हिये भिनसारे रामखेलावन के लइका को छोड़े स्टेशन गए थे ट्रेन पकड़ाते - पकड़ाते  अगला दिन का दतुअन स्टेशनवे पे करना पड़ा. 
अच्छा सरकार अब हम चलते है अब तो आप भी आइयेगा ही अपने भाइयो और बहनो से मिलने  चुनाव में । ........ 


लेखक की इससे पहले की  प्रसिद्द रचना  -  मन की बात 

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कलियुग 

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कलियुग शुरू हो गया है क्या  ?
लोगो की मति तो मारी ही जा रही है 
भीड़ भी बढ़ते ही जा रही है 
बेटा बाप को काट रहा है 
और बीवी के तलवे चाट रहा है 
रिश्तो की जगह कब धन ने ले ली पता ही ना चला  
हकीकत की जगह कब दिखावे ने ले ली पता ही ना चला 
राह चलते छोटी बात बड़ी बन जाती है 
अब तो यूरिया से भी रबड़ी बन जाती है 

दिमाग में भूसा और गुस्सा दोनों ही ज्यादा है 
आम आदमी मार - काट पे आमदा है 
कंक्रीट के जाल बिछते जा रहे है 
पेड़ और पहाड़ कटते जा रहे है 

विकास यही है क्या ?

आज का सभ्य समाज यही है क्या  ?
राजा खुद को भगवान कहने लगा है 
अब तो सुना है पहरेदारो के साथ , महलों में रहने लगा है 

खाली पेट बच्चे बड़े हो रहे है 
और वे करोडो खर्च करके चुनाव में खड़े हो रहे है 
बाप नौकरी की तलाश में भटक रहे है 
नए लड़के ढाढ़ी और बाल बढ़ा के मटक रहे है 
संत व्यापार और व्यभिचार में लिप्त है 
यह देख के जनता विक्षिप्त है 
स्त्री अपने अस्तित्व की लड़ाई में हार रही है 
और सफेदपोशो के कपडे फाड़ रही है 

रोज घट रही हजारो दुर्घटना है 
जान हुई सस्ती अब, गुलामो की तरह रोज खटना है 
सुना है इंसानो ने भी, आपस में नस्लों का बंटवारा कर लिया है 
खून तो एक ही है सबमे , शायद जमीर से किनारा कर लिया है 


अब क्या बचा है दाता के इस संसार में 

शायद वही प्रकट हो इस कलियुग में, अपने नए अवतार में 



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