romio ka ishq



रोमियो का इश्क़ 

romio ka ishq


ये जो मोहब्बत है सब उनकी ही सोहबत है
चाँद पर आशियाना बनाएंगे वे
कहते है इस जहां में इश्क़ से ज्यादा नफरत है

वहाँ छांव है तो यहाँ धूप है
सच जानते हुए भी सब चुप हैं
यहाँ झरनो के झरोखे है
हर चेहरे के दिलो में कुछ धोखे  है

कुछ जी के मरते है 
कुछ मर के जीते है 
हम प्यार करने वाले है 
हम इश्क़ में जीते मरते है 

तुम घूमे गली - गली मुहल्ला 
पर उन गलियों में गूंजे नाम हमारा ही लल्ला 
हर मन में मंदिर , हर मंदिर में उसकी मूरत 
पाप - पुण्य में उलझो तुम , वो तो देखे है बस सीरत 
इश्क़ किया इस जहाँ से हमने 

और तुमने रोमियो नाम रख दिया 


सोहबत तो तुम्हारी ही थी 
जाने ये कैसा काम कर दिया 

रोमियो नाम रख दिया .........  


इन्हे भी पढ़े  -   कुछ तो लोग कहेंगे  
                      आशिक  

najar

नजर 


लड़की - अच्छा सुनो
लड़का - हां बोलो
लड़की - छोड़ो रहने दो
लड़का - नहीं बोलो
लड़की - "प्लीज" ना मत बोलना
लड़का - तुमसे कभी बोला है
लड़की - ये चेहरे से काला चश्मा हटाकर सादा चश्मा क्यों नहीं लगा लेते।
           
लड़का - मेरी मन की आँखों में इस दुनियां की जो हसीन छवि है उसे यह काला चश्मा बाहर नहीं जाने देता।
लड़की - लेकिन तुम्हारी खूबसूरत आँखों के दीदार नहीं हो पाते।
लड़का - रात में देख लिया कर पगली कहीं नजर लग गई तो
लड़की - नजर लगे दुश्मनो को
लड़का - देखना मेरी छड़ी तुम्हारे आस - पास है क्या।
लड़की - दोनों हाथो से टटोल लिया मिल नहीं रही।
लड़का - किसी को आवाज लगाते है , तुम भी कला चश्मा पहन लो कही नजर ना लग जाये।

goverment and poor


गरीब  और सरकार


मीडिया सब कुछ दिखाती है , उसे चटपटी खबरे दिखाने में मजा आता है। लेकिन गरीब की जिंदगी में शायद कुछ चटपटा नहीं होता।  जीएसटी का उसकी जिंदगी से कोई वास्ता नहीं होता , धर्म उसका हिन्दू - मुस्लिम ना होकर दो जून की रोटी का इंतजाम करना होता है। साहब लोगो की दया का पात्र होता है , नेताओ की वोट बैंक का वो हिस्सा होता है जो सिर्फ बटन दबाने तक ही सिमट कर रह जाता है।



कई लोग गरीबी को गँवारपना से भी जोड़ कर देखते है लेकिन यह भूल जाते है की यह गँवारपना उसकी गरीबी नहीं उनकी अमीरी है। फैक्ट्री में काम करने वाला मजदूर सिवाय दो वक़्त की रोटी के अतिरिक्त इतना धन नहीं बचा पाता की वह अपने बच्चो को अच्छी तालीम दिलवा सके।  सरकारी स्कूल तो जरूर है लेकिन वहाँ मोटी तनख्वाह लेने वाले शिक्षक  अपना मूल कर्तव्य केवल तनख्वाह बढ़ोत्तरी के लिए होने वाले धरना प्रदर्शनों को ही मानते है। सरकार उनकी तनख्वाह तो बढाती है लेकिन वे अपना काम अच्छे से कर रहे है या नहीं इससे आँखे मूँद लेती है क्योंकि शायद उसमे पढ़ने वाले बच्चे गरीब घरो के जो ठहरे।  उनके अभिभावक शिकायत करे तो किससे , जितना समय वह शिकायत करने और इस व्यवस्था को झेलने में लगाएंगे उतने वक़्त उन्हें भूख भी बर्दाश्त करनी पड़ेगी।

सरकारी स्कूलों के शिक्षक कभी इस बात के लिए धरना नहीं देते की उनके स्कूल के बच्चे टाट - पट्टी पर क्यों बैठते है , उनके स्कूल में शुद्ध जल और कम्प्यूटर की व्यवस्था क्यों नहीं है। क्यों उनके स्कूल के बच्चो का परिधान अंग्रेजो के जमाने की वर्दी की तरह लगता है।

उद्योगपतियों और पेट्रोल - डीजल में होने वाला घाटा तो सरकार को दिखता है लेकिन खेती में होने वाला घाटा सरकार को नहीं दिखता। महँगी गाड़ियों के लिए किसानो की जमीन लेकर  एक्सप्रेस वे का तो निर्माण होता है लेकिन सूखे पड़े खेतो के लिए नहरों का निर्माण नहीं होता। क्या उन एक्सप्रेस वे पर कोई किसान खेती से होने वाले लाभ से  गाडी खरीद कर चल सकता  है।

आपके स्मार्ट शहरो और बुलेट ट्रेन की परिकल्पना तब तक बेकार है जब तक आम इंसान उसमे रहने और चलने लायक नहीं हो जाता।  वह तो शहर में आने के लिए भी सौ बार सोचता है की किराए में लगने वाले पैसो का इंतजाम कहा से करेगा , फिर वह गुजरात जाकर मूर्ति के दर्शन कैसे कर सकता है जिससे आपके राजस्व की वसूली हो।

देश में कंक्रीट के और झोपड़पट्टी दोनों ही प्रकार के मकानों की संख्या बढ़ रही है।  चिंता झोपड़पट्टी वाले मकानों की है जहा गर्मी में एक चिंगारी उनके सर की धुप तेज कर सकता है। सरकार की तरफ से चलाई जाने वाली योजनाओ की जमीनी सच्चाई जमीन पर जाकर बखूबी देखीं जा सकती है। रोज - कमाने और रोज खाने की जद्दोजहद से जूझता यह वर्ग इस बात पर कब जागरूक होगा की चुनावों में मुद्दे उसकी चिंताओं से जुड़े होंगे नाकि उसकी जाति से। 







time and watch




घडी और वक़्त 


बाल्कनी से झाँकते हुए मेने घड़ी की तरफ़ नज़र डाली और…पाया की सुबह की तरह दिखने वाला यह मौसम दोपहर के 2 बजा चुका है। ठण्ड है की कम होने का नाम ही नहीं लेती। वैसे तो सारी की सारी घड़ियाँ वक़्त एक सा ही दिखाती है परन्तु घड़ियों की कीमत से इंसान के चलने वाले समय का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
आज जिन हाथो में रैडो सरीखे महंगे ब्रांड की घड़ियाँ सजती है कभी इन्ही हाथो को 20 - 25 रूपये की नेपाली घडी भी नसीब नहीं हो पाई। आज जिस बालकनी में खड़े होकर पूरे शहर का नजारा देख रहे है , कभी नीचे खड़े होकर इन बालकनियों में रहने वालों के बारे में सोचा करते थे।
ये वक़्त कभी ना बदला होता अगर उसने साथ ना दिया होता , ये हाथ इन घड़ियों से कभी ना सजते अगर उसने मेरा हाथ ना थामा होता।
फुटपाथ पर पुरानी किताबें बेचने वाले इस शख्श की किताबी जानकारी और ज्ञान को देखकर अगर उसने तराशा ना होता, तो आज भी सर्द राते उसी फुटपाथ पर गुजरती
" साहब खाना लगा दिया है " दीना - की आवाज के साथ ही मैं वर्तमान में वापस आता हूँ।
नहीं तुम खा लो मुझे आज भूख नहीं।
तरन्नुम नाम था उसका , पुरानी किताबो में ना जाने क्या ढूंढने आती थी वो , शायद मेरी किस्मत खींच लाती थी उसे।
तरन्नुम - तुम भी मियां इतने पढ़े लिखे होने के बाद कोशिश क्यों नहीं करते। चलो अपना सर्टिफिकेट और एक फोटो दो उसके बाद मैं तुम्हे पढ़ाऊंगी।
हमारे बीच ग्राहक और दुकानदार के रिश्ते के अलावा किसी अन्य मुद्दे पर पहली बार बात यहीं से शुरू हुई थी।
तरन्नुम - अच्छा समय बताओ कितना हुआ है।
मैं - जी मेमसाब ..... वो घडी नहीं है मेरे पास
तरन्नुम - घडी नहीं है ? फिर परीक्षा में समय से जवाब देना कैसे सीखोगे ? कल मैं तुम्हारे लिए एक घडी लेते आउंगी।
मैं समझ नहीं पा रहा था ये क्या हो रहा है बस जो हो रहा है उसे होने दे रहा था।
अगले दिन एच एम् टी की एक घडी मेरे हाथो में थी जिंदगी की पहली घडी शायद वक़्त बदलने का संकेत थी
उसके मिलने और मुझे समझाने का क्रम करीब दो साल तक चलता रहा और लेट से चलने वाले आयोग की परीक्षा भी दो साल बाद ही हुई तब तक मेरी तैयारी भी अच्छी खासी हो चुकी थी।
बीच में उसका मिलना जुलना भी कम हो चुका था परन्तु मेरी पढाई में लापरवाही उसे बिलकुल ना पसंद थी। शायद किस्मत , मेहनत और उसके सहयोग से नसीब को कुछ और ही मंजूर था। पहली बार में किसी ने यूपी पीसीएस में अव्वल स्थान प्राप्त किया था तो वो था मैं। शायद मेरा ईश्वर और उसके अल्लाह दोनों ने हम दोनों की दुआ कबूल कर ली थी।
यह दोस्ती कब मुहब्बत में बदल गई मुझे पता ही ना चला। दोनों के घर वाले राजी ना हुए , सोचा थोड़ा समय लगेगा लेकिन वे हमारे प्यार को जरूर समझेंगे और हम सही साबित हुए। अगले महीने हमारी शादी है, हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही रीतियों से क्योंकि धर्म तो एक माध्यम है बाकी इंसान की वास्तविक ख़ुशी किसमे निहित है आवश्यकता है इसको समझने की।
नोट - हर कहानी का अंत दुखद नहीं होता, वो कहते हैं न हमारी हिंदी फिल्मो की तरह एन्ड तक सब कुछ ठीक - ठाक हो ही जाता है। अगर एन्ड तक ठीक - ठाक ना हो तो ...... ..... .... पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त।

लेखक के क्वोरा पर दिए एक जवाब से उद्धरण 

raajneeti aur hum


राजनीति और हम 



अभी क्या हमेशा पढता हूँ शेर अकेला आता है और भेड़िये झुण्ड में


अगर भारतीय राजनीति के सापेक्ष बात करू तो अब तक तो आप समझ ही गए होंगे की रजनीकांत द्वारा बोला गया यह डायलॉग किसके प्रशंसकों द्वारा कहा जाता है।

भारतीय राजनीत के बदलते चेहरे का एक स्वरुप आजकल सोशल मीडिया पर हावी होते जा रहा है।  जिसमे फोटो एडिटिंग से लेकर वीडियो एडिटिंग तक सब कुछ शामिल है। डायलॉग बाजी तो इसकी जान में बसती है।

नेताओ के नाम बदल कर अशोभनीय टिपण्णी करने वाला समाज , नेताओ से शिष्टाचार की उम्मीद कैसे कर सकता है। केजरुद्दीन , फेंकू , गोदी , पप्पू  जैसे शब्दों का प्रयोग  राजनीति की गिरती गरिमा को रसातल में पहुँचाने का काम करते है।

अनुयायियों का स्थान आजकल चमचो और भक्तो जैसे शब्दों ने ले लिया है। नेता लड़े या ना लड़े इनकी जंग जारी रहती है। फोटो एडिटिंग को देखकर तो कभी - कभी सच्ची तस्वीरों पर भी शक होने लगता है।

अब तो लगता है देश जैसे  पूर्ण रूप से विकसित हो चुका है , क्योंकि मुद्दों में कही विकास रहता ही नहीं।  हम बस जी रहे है भावनावो के साथ वही काफी है। चुनाव शुरू होते ही  भावनावो का बाजार  सजने लगता है।

गाय से श्रद्धा रखने वाले एक तरफ , सच्चे हिंदू एक तरफ , हनुमान जी वाले एक तरफ , देशभक्त कहलाने वाले एक तरफ  और दूसरी तरफ अपनी - अपनी जाति  वालो की लम्बी लिस्ट ,उसके बाद अल्पसंख्यकों के हितैषी एक तरफ, अब चुन लीजिये अपनी जाति  का नेता जो आपको अच्छे दिन दिखलायेगा। खामी उनसे ज्यादा कहीं ना कहीं हमारे अंदर ही है। जो विकास , बेरोजगारी , बढ़ती आबादी , कुपोषण , गरीबी , भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को छोड़कर ऐसे मुद्दों की तरफ भागते है जिनसे हमें तो कुछ नहीं मिलने वाला लेकिन इन मुद्दों को बनाने वाले सत्ता के शिखर पर पहुँच जाते है। 


समय है पहले खुद में सुधार लाने का , समय है खुद से जुड़े मुद्दों के साथ खड़े होने का , समय है मर्यादित आचरण का और समय है व्यर्थहीन मुद्दों से अपना मुख मोड़ने  का। 





song of love

प्यार के गीत 



दिल का उड़ता पंछी बोले ......... तेरी ही  बोली रे
अँखियो से चलती   .. .. ...  कैसी ये ठिठोली रे

रात ..... के साये में दिन का उजाला है
रंग ये प्रीत का कैसा तूने डाला है
हुई मतवाली मैं ,तेरे ही  सुरूर में
 रहती हूँ अब तो,  तेरे ही गुरुर में
ये कैसा इश्क़ है जिसमे ,लागे जग निराला है
राधा सी बावली मैं श्याम मेरा मतवाला है



दिल का उड़ता पंछी बोले ......... तेरी ही  बोली रे
अँखियो से चलती   .. .. ...  कैसी ये ठिठोली रे


बिन तेरे सूना दिल , अँखियो में पानी है 
यादों में मेरी , तेरी ही कहानी है 
कुछ तो सुन ले , दिल की आवाज को 
फ़िज़ाओं में बहती , मधुरिम साज को 
पिया बिन राते कैसी , कैसा दिन का उजाला है 
नीला - नीला आसमां भी , दिखे अब काला है 

दिल का उड़ता पंछी बोले ......... तेरी ही  बोली रे
अँखियो से चलती   .. .. ...  कैसी ये ठिठोली रे





construction of pauses and rites

ठहराव और संस्कारो का निर्माण 


  

ठहरना जरुरी है , भागते रहोगे तो  ठहरने का मजा क्या जानोगे


पड़ाव का अर्थ होता है कुछ दूर चलने के बाद ठहरने वाली जगह।  जिंदगी में गतिशीलता भी उतनी जरुरी है जितना की ठहराव। अगर हम बचपन से लेकर जवानी और जवानी से लेकर बचपन तक भागते ही रहे , तब हमें कैसे पता चलेगा की क्या बचपन था और क्या जवानी। बचपन कुछ वक़्त के लिए ठहर के हमें बचपना करने का मौका देता है , जहाँ तनाव के लिए कोई जगह नहीं होती।  उस बचपन की पीठ पर 10 किलो का बस्ता किसी तनाव से कम होता है क्या ।


दरअसल यह एक प्रतिस्पर्धा है की फलां का बेटा 2 साल में ही दस कविताये याद कर चुका है , और हमारा बेटा अभी तक ढंग से बोलना भी नहीं सिख पाया।  यहाँ समझना यह आवश्यक है की  बच्चो को उनकी उम्र के अनुसार ही बढ़ने देना चाहिए ,समय से पहले तो सब्जियाँ  भी अच्छी नहीं लगती । बाकी आप संस्कारो का समावेश जारी रखे तो ज्यादा बेहतर है ,बजाय इसके की उसे बिना मतलब की दौड़ में शामिल करके।  यदि इस प्रकार की नक़ल लोग बंद करना शुरू कर दे तो धीरे - धीरे सम्पूर्ण समाज में बदलाव आना शुरू हो जायेगा क्योंकि हम नकलची जो ठहरे।



संस्कार और अपनत्व की जगह क्रमशः मशीनीकरण और समय के अभाव ने ले लिया है।  बदले में जब आपके पाल बड़े होते है तो इसी मशीनी भाषा को बोलते हुए आपको समय नहीं दे पाते तो आप खीझ उठते है ।  जिन घरो में संस्कार और अपनत्व की बयार बहती है ,वहाँ के पाल्य अपने अभिभावकों को बदले में यही देते है , अब अपवाद तो हर जगह होते है।

धन से सुख तो होता है परन्तु वह भौतिक होता है परन्तु आत्मिक सुख अंदर स्थित आत्मा तक को तृप्त करता है। अपनत्व कभी भी ख़रीदा नहीं जा सकता , संस्कार एक दिन में किसी के अंदर भरे नहीं जा सकते। हमें बस अपने बच्चो को दी जाने वाली परवरिश में ध्यान रखना है की हम उन्हें कैसे समझा सकते है की धन,  गुण , संस्कार , अपनत्व  और सामाजिकता का उचित क्रम क्या होना चाहिए। 

धन की लालसा वही तक , आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति जहाँ तक। धन के लोभ के साथ - साथ इससे उत्पन्न अहंकार से भी बचने की कला आनी चाहिए। यही वर्तमान में हमारे द्वारा किये गए प्रयास भविष्य के  भारत  और  एक  स्वस्थ समाज  का निर्माण करेंगे। 


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