लिखता हूँ -२
लिखता हूँ मैं थोड़ा थोड़ा पर वो बात नही आती
चाहे कुछ भी कर लो पर ए जात नही जाती
खाने को रोटी नही ना पहनने को वस्त्र है
महंगाई की मार पड़ी है बचने का ना कोई अस्त्र है
सूखे खेते से भी अब कोई फरियाद नही आती
की लिखता हूँ मैं थोड़ा थोड़ा पर वो बात नही आती
गृहस्थ जीवन पड़े है भारी
जिसमे भरे है सरकार ने अनेको दुश्वारी
कैसे चलाऊँ मैं अपनी गाड़ी
अब तो पूरी तनख्वाह भी काम नही आती
की लिखता हूँ मैं थोड़ा - थोड़ा पर वो बात नही आती
जम्मू मे दंगल हुआ बिहार मे थोड़ा मंगल हुआ
बंगाल की लड़ाई मे, सभा मे अमंगल हुआ
गोरखपुर की हार भी अब कोई सबक नही सीखलाती
जनता की तकलीफे अब कोई चिट्ठी कैसे बतलाती
लिखता हूँ मैं थोड़ा थोड़ा पर वो बात नही आती
डरी हुई नारी है देखो, बच्ची भी अब नही बच पाती अजब तेरा संसार है विधाता क्या कोई खबर नही आती
राजा को सुध नही जनता की अब
उसे जुमलेबाजी है खूब भाती
था विपक्ष मे तो खूब मुखर था
सत्ता पाते ही हवा बदल जाती
इसीलिये लिखता हूँ मैं थोड़ा - थोड़ा पर वो बात नही आती
कभी सुकून से गुजरे अब वो रात नही आती
तू मुस्लिम है मैं हिन्दू हूँ , मैं ही राजनीति का केन्द्र बिंदु हूँ
तेरी मेरी इस लड़ाई मे किसी एक की हार है
यही जीत हार उनकी किस्मत है चमकाती
सब समझ समझ की बात हैं मेरी समझ कितना समझाती
इसीलिये लिखता हूँ में थोड़ा थोड़ा पर वो बात नही आती
ईश्वर अल्लाह एक सारे
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