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mediatantra

मीडियातंत्र 


वर्तमान समय में देश की मीडिया एक लाभकारी संस्था बन चुकी है। किसी ज़माने में भारत में अखबार और पत्रकारिता एक घाटे का सौदा हुआ करता था और इसे केवल समाज सेवा हेतु संचालित किया जाता था।  परन्तु आज के दौर में मीडिया एक लाभदायक व्यवसाय का रूप ले चुकी है और कुछ मीडिया संस्थान और पत्रकार सत्ता से करीबी रिश्ता बनाकर खुद को ताकतवर समझने लगे है। जो थोड़े बहुत ईमानदार है वे प्रताड़ना का शिकार है या फिर उनको हाशिये पर डालने का प्रयास जारी है। 



एक जमाना था जब लोग खबरों पर पूर्ण रूप से विश्वास किया करते थे और आजकल खुद के जांचने परखने के बाद ही विश्वास करते है। 

आज मीडिया में इतनी ताकत आ चुकी है की वो मुद्दों को जब चाहे मोड़ सकती है किसी को जमीन से उठाकर आसमान में बैठा सकती है। अभी हाल ही में पकिस्तान द्वारा भारतीय सैनिक नरेंद्र के साथ किये गए व्यवहार से देश में भारी आक्रोश था , तमाम सोशल नेटवर्कींग साइटो पर सरकार को जी भरकर गालियाँ दी जा रही थी,ऐसा लगा की सरकार के प्रति लोगो में गुस्सा अपनी चरम सीमा पर पहुँच जायेगा तब तक मीडिया ने अपना रुख राफेल से लेकर गणेश पूजा में परिवर्तित कर दिया और आम जनता में भरे आक्रोश की हवा निकल गई। 

मैंने अक्सर देखा है मीडिया में आने वाले डिबेट ऐसा लगता है जैसे की पूर्व प्रायोजित होते है।  आप इनके सवाल और कार्यक्रम के शीर्षक देखकर ही बता सकते है की ये किसका पक्ष लेने वाले है सरकार का या सत्य का। मीडिया तो वैसे भी आजकल भारत के सूचना प्रसारण मंत्रालय से संचालित हो रही है।  वहा बैठे पेशेवरों की टीम सारे न्यूज़ चैनलों पर चौबीस घंटे आँख गड़ाए बैठे हुए है। और प्रत्येक चैनल को क्या दिखाना है फ़ोन के द्वारा सूचित कर दिया जाता है। यह बात पुण्य प्रसून जोशी ने भी अपने ब्लॉग में कही है की कैसे सरकार अब मीडिया को नियंत्रित करती है। और सत्ता द्वारा लाभ प्राप्ति हेतु ज्यादातर मीडिया संस्थान इनकी अधीनता स्वीकार भी कर लेते है। सुचना प्रसारण मंत्रालय से ही किस चेहरे को ज्यादा दिखाना है और किस तरह की खबरे चलानी है इसका भी निर्धारण हो जाता है,और जो इनके विपरीत जाता है उसको अपने लहजे में  चेताया भी जाता है। 




ऐसे में सोशल मीडिया ही एक ऐसा प्लेटफार्म है जिसे पूर्ण रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता क्योंकि इसका प्रसार व्यापक है। कोशिश तो इसको भी नियंत्रित करने की होती ही रहती है परन्तु कामयाबी अधूरी ही मिलती है। 

30 मिनट के कार्यक्रम में 10-12  मिनट तो इनके प्रचार में ही निकल जाते है।  उसके बाद कभी  सास बहु की खबरे  जो की उन्ही धारावाहिको की ज्यादा दिखाई जाती है जिन्होंने इन्हे पेमेंट किया होता है, सीरियल के प्रचार का यह अनोखा माध्यम है जिसमे आने वाले एपिसोड को लेकर  दर्शको में जिज्ञासा बनाई जाती है और वह सीरियल खबरों में बना रहता है। नहीं तो कई ऐसे बेहतरीन सीरियल है जिन्हे टीआरपी नहीं मिल पाती। 

कभी ज्योतिष की भविष्यवाणी कभी धन प्राप्ति के उपाय तो कभी आस्था के  नाम पर ना जाने क्या - क्या दिखाते रहते है। पता नहीं ये सब हमारे देश में कबसे खबरों की श्रेणी में आने लगे। 
भारतीय क्रिकेट टीम का फैसला भी इनके एक्सपर्ट न्यूज़ रूम में ही बैठे बैठे कर लेते है। लेकिन अन्य खेलो से इनका अलगाव यह सिद्ध करता है की ये भी टीआरपी हेतु खबरों का चुनाव करते है। बिना टीआरपी वाली खबरे इनके लिए खबरे नहीं होती। 

अभी भी समय है अगर इस देश की मीडिया नहीं जागती तो उसकी विश्वसनीयता के साथ ही उसका अस्तित्व भी संकट में आ सकता है और सोशल मीडिया और इंटरनेट को खबरों का  प्रमुख माध्यम बनते देर नहीं लगेगी। 


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section 377 and gay



अनुच्छेद - 377  और समलैंगिगता -



विगत 6 सितम्बर को आई पी सी की धारा 377 को सुप्रीम कोर्ट ने अनुचित ठहराते हुए कहा की हमें व्यक्ति की पसंद को आजादी देनी होगी तथा यह गरिमा के साथ जीने के अधिकार का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट ने ताजा फैसले में आईपीसी की धारा-377 को समानता और संवैधानिक  अधिकार का उल्लंघन करार देते हुए आंशिक रूप से खारिज कर दिया है हालाँकि कुछ मसलो में ये प्रभावी रहेगा। 



section 377 and gay


फैसला आते ही बाहर खड़े हजारो समलैंगिको ने अपनी ख़ुशी का इजहार अपने तरीके से किया। अब एक बार फिर इस कानून पर नए सिरे से चर्चा होना स्वाभाविक है।  परन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता की भारत जैसे परम्परागत देश में इस तरह के फैसले कितनी अहमियत रखते है। जहाँ आज भी इन मुद्दों पर खुलकर चर्चा करना भी समाज पसंद नहीं करता वहां अब कानूनन रूप से इसे मान्यता मिलना भारतीय समाज में नए बदलाव  का संकेत है।  इसके साथ ही कुछ नए सवाल सोशल मीडिया में तेजी से वायरल हो रहे है , जोकि इस कानून में दिलचस्पी को बढ़ाते ही है , इनके कुछ उदाहरण निम्न है। 

धारा 377 में कोई रेप केस आया तो न्यायधीश कैसे तय करेंगे कि किसका बलात्कार हुआ? 

बच्चो के जेंडर का निर्धारण कैसे होगा  ?

अब लड़को  को भी डर  है रेप होने का। 


हालाँकि सरकार  ने इस मुद्दे पर अपनी भूमिका नगण्य रखी है और सबकुछ  कोर्ट पर छोड़ दिया है , अभी भी धारा 377 आंशिक रूप से कुछ मसलो में प्रभावी रहेगी , परन्तु देखना यह है की  क्या भारतीय समाज इसे अपनी स्वीकार्यता देता है या नहीं  ? 





desh ko kranti ki jarurat



देश को क्रांति की जरुरत



देश के मौजूदा हालात कुछ ऐसे हो चुके है जहाँ लोग अपने ही पैरो पर कुल्हाड़ी मारने को तैयार है।  यहाँ कोई  देशवासी से ज्यादा भाजपाई , कांग्रेसी  और अन्य पार्टियों के नाम से अपनी पहचान पहले बना चुका है , बहुत ही कम लोग ऐसे होंगे जो धैर्य पूर्वक सत्य को ग्रहण कर सके ,लोग सिर्फ दूसरी पार्टियों से खुद की पार्टी का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ज्यादा जोर देने लगे है ,अगर पिछली सरकार ने एक लाख करोड़ का घोटाला किया है तो इनका तर्क रहता है की हमारी सरकार  में मात्र चंद करोड़ का घोटाला ही हुआ है ऐसे ही यदि कोई बड़ी दुर्घटना, दुराचार तथा जघन्य अपराध  हो जाती या उनका ग्राफ बढ़ जाता  है तो उसके तार भी ऐसे ही जोड़े जाते है  , की पिछली सरकर में सिर्फ इतनी हत्याएं हुई और हमारी सरकार में उससे कुछ कम हुई।
desh ko kranti ki jarurat

कुछ तो हमको भी आदत डाल  दी गई है की सरकार को थोड़ा वक़्त देना चाहिए। इसी आदत को जब तक हम समझते है तब तक ट्रेन छूट चुकी होती है।  एक शख्स ईमानदारी से बता सके की अमुक सरकार सिर्फ जनता की भलाई के लिए सत्ता प्राप्त करना चाहती है।  इस हमाम में सब नंगे हो चुके है सारे एक ही थाली के चट्टे  बट्टे है। आम आदमी कल भी त्रस्त  था और आज भी त्रस्त  है , सीमा पर आज भी जवान मर रहे है  और कल भी, कई खबरे तो आप और हम तक न पहुँच पाती  है और न पहुँचने दिया जाता है। 


नेता एक ऐसी बिरादरी है जो कभी भी आपस में गंभीर होकर नहीं लड़ते उनकी लड़ाई कभी भी वास्तविक नहीं होती है। सिर्फ आम जनता को दिखाने के लिए होती है लड़ते तो हम है उनके अनुयायी बनकर उनकी ताकत उनके समर्थको से होती है। प्रत्येक नेता अपनी अपनी जरूरतों के अनुसार समर्थक वर्ग खड़ा करता है , आजकल तो इस खेल में मीडिया का भी समर्थन हासिल है जो की स्वार्थ और सत्ता में हिस्सेदारी पाने हेतु उन्हें प्रमोट करता है। बदलते समय के साथ जनता को गुमराह किये जाने वाले शब्द रूपी बाणो में भी बदलाव आया है जिनमे कही भी विकास की बाते न होकर जातीय वैमनस्य , धार्मिक उन्माद रूपी  जहर से बुझे तीर होते है। 


देश इस समय एक बार फिर अपनी दिशा खोते दिख रहा है अगर इसमें किसी को विकास दिखता हो तो उसकी संतुष्टि के लिए मैं कुछ नहीं कर सकता।  आज कोई भी पार्टी अपनी कथनी के अनुरूप करनी करने में सक्षम नहीं है।  आज जरुरत इस देश की मूल व्यवस्था बदलने की है जिसके लिए आवश्यक है की इस देश का युवा वर्ग नए क्रांतिकारी विचारो को जन्म दे और उनपर अमल करे। भ्रष्टाचार  रूपी व्यवहार के हम इतने आदि हो चुके है की प्रत्येक सरकारों में इसको ख़त्म करने की बात की जाती है परन्तु सरकार ही इसके दलदल में फंसती दिखती है। 

मंत्री , विधायक , सांसद  जैसे माननीयो का मूल उद्देश्य जनसेवा न होकर धनसेवा बन चुका है , अधिकारी वर्ग अपनी राजनीतिक पहुंच से मलाईदार पदों पर काबिज है और जो थोड़े बहुत ईमानदार है वे राजनीतिक प्रताड़ना का शिकार है। समाचारो में दिखाई जाने वाली खबरे पूरी तरह से नाप तौल कर दिखाई जाती है , पूर्व निर्धारित डिबेट होते है ,चंद  उद्योगपतियों के हाथो में अधिकाँश संसाधनों की हिस्सेदारी है ,
 आखिर क्रांति क्यों ना हो। ........   


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reservation mistake of constitution

आरक्षण- संविधान की सबसे बड़ी भूल



reservation mistake of constitution

इधर बहुत दिनो से अनेक सरकारी परीक्षाओ मे फेल होते होते मन मे एक खिन्नता सी आ गई थी . लेकिन इस बात का विश्वास की अगली बार या एक बार भी परीक्षा मे पास हो गये तो आने वाली जिंदगी सुकून से निकल जायेगी और सारे दुख दर्द दूर हो जायेंगे एक परीक्षा और दे आते है . वैसे तो हम जाती को नही मानते लेकिन अलग अलग जातियों की जारी होने वाली कट – ऑफ लिस्ट और उनका अंतर कहीं ना कहीं जाति  व्यवस्था को लेकर समाज की और सरकार की मान्यता दर्शाता है क्या जनरल वालो के दिमाग मे अलग से कोई कम्प्यूटर की तरह् प्रोसेसर लगा होता है जिससे वी यदि 200 अंको की परीक्षा मे 189 लाये तो उनका सेलेक्शन अमुक परीक्षा के लिये होगा और पिछड़ी जाति का विद्यार्थी 150 और अति पिछड़ी जाति  का 100 नंबर लाने पर ही अपनी सीट सुरक्षित कर लेता है क्या इसको लेकर अन्य जातियो मे वैमनस्य नही उत्पन्न होता .
यदि यह मान्यता सही है तो क्या मायावती जैसी नेता के पास दिमाग की कमी है क्या अखिलेश यादव द्वारा चुनाव लड़ने पर 50000 वोट स्वतः ही बढ़ा देना चाहिये क्योंकि वो पिछड़ी जाती से है . यानी हमारा संविधान मानता है की अखंड भारत मे दिमाग के अनुसार लोगो का बंटवारा किया जाता है . संविधान मे यदि आरक्षण लागू है तो में साफ कहना चाहूंगा की उसका फार्मूला ही गलत है . में नही मानता ऐसे संविधान को जिसने आज जाती व्यवस्था को इतना बढ़ावा दे दिया की इंसान स्वार्थ हेतु एक दूसरे को मारने काटने पर उतारू है जहा पिछडेपन का करण आर्थिक स्थिति ना होकर मानसिक स्थिति है . हम खुद ही जातियो को हंसी का पात्र बनाते जा रहे है और उस वर्ग मे कुंठा को उपजा रहे है जो दिन रात मेहनत करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने की कोशिश करता है .
अब कुछ लोग कह सकते है की संविधान ने तो इसे 10 साल के लिये है लागू किया था पर राजनीतिक पार्टीयो ने वोट बैंक की राजनीति के लिये इसे आजतक जारी रखा तो इसमे भी कही ना कही संविधान की ही खामी है संविधान सभा मे जहा प्रत्येक कानून के निर्माण के समय उसकी विसंगतियो और भविष्य मे होने वाले दुरुपयोग पर विचार किया गया वही इस पर भी अवश्य विचार करना चाहिये था की राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु कुछ भी कर सकते है . 
अगर लाभ के लिये आरक्षण हेतु दंगो पर उतारू हुआ जा सकता है अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की गलत व्याख्या करके दंगे भडकाया जा सकता है तो मेरा सरकार से अनुरोध है की कृपया करके इनपर कारवाई ना की जाये क्योंकि हमारा संविधान भी मानता है की भारत मे कई जातिया ऐसी है जिनके पास दिमाग की कमी है हो सके इसी कमी की वजह से उनसे कुछ गलती हो गई हो . अगर उनके पास दिमाग की कमी नही होती तो आरक्षण हटाने का पहला प्रस्ताव उन्ही की तरफ से आता की इसे खत्म किया जाये हम किसी से कम नही है और आरक्षण और जाति को लेकर इस देश मे कोई राजनीति ना हो अगर करनी ही है तो केवल विकास और की राजनीति हो रोजगार की राजनीति हो शान्ती की राजनीति हो अहिंसा की राजनीति हो परंतु यह तभी संभव है जब हम तर्क के साथ सवाल पूछना शुरु करते है जब प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारो के प्रति जागरूक हो जब इस देश मे शिक्षा का स्तर नकल से अकल के लिये जाना जाये जब नाली से लेकर संसद मे दी जाने वाली गाली का हिसाब लिया जाये . जय हिन्द …

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कांग्रेस, परिवारवाद और देश


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देश की सबसे बड़ी राष्‍ट्रीय पार्टीयो मे से एक कांग्रेस आज एक बार फिर अपने बुरे दौर से गुजर रही है . कांग्रेस पार्टी और उसके आलाकमान को आवश्यकता है की एक बार फिर से अपनी सम्पूर्ण राजनीतिक गतिविधियो की निस्पक्ष रूप से समीक्षा करे और कुछ बेहतरीन चेहरो को महत्वपूर्ण जिम्मेदारिया देकर आगे करे .
कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या यह है की वह एक परिवार विशेष तक सिमट कर रह गई है और अपने राजनीतिक स्वार्थ हेतु पार्टी मे किसी के अंदर इतनी हिमाकत नही है की वह इस बात को स्वीकार करे और परिवार का बर्चस्व पार्टी से समाप्त करे . एक अच्छी सरकार के साथ एक मजबूत विपक्ष का होना भी आवश्यक है जिससे सरकार से संसद से लेकर सड़क तक मजबूती से सवाल किया जा सके . परंतु कहते है न सत्ता का नशा ऐसा है जिसके आगे सारे नशे फेल हो जाते है . वैसा ही नशा विदेश से आई एक महिला के अंदर भी समाहित हो चुका है जिसकी परिणिती आज कांग्रेस पार्टी भुगत रही है .
यदि आप वास्तव मे एक ऐसे देश का भला चाहते है जिसने आपको स्वीकार करते हुए देश को आगे ले जाने का मौका दिया है तो आप का फर्ज है की वास्तविकता को समझते हुए देशहित मे कार्य करे . अगर आप ऐसा नही करते तो कही ना कही आपकी महत्वाकांक्षा सामने आती है .पर्दे के पीछे से सत्ता नियंत्रण वही करते है जो जनता के प्रति जिम्मेदार नही होते और अपनी लूट खसोट की नीति को आगे बढ़ाते  है.  आज सरकार मे कुछ भी घटित होने पर जिस प्रकार मोदी को जिम्मेदार ठहराया जाता है संप्रग शासन काल मे पहला निशाना मनमोहन सिंह की चुप्पी होती थी परंतु उस चुप्पी के पीछे की वजह बताने कोई आगे नही आता था .

2014 का परिणाम उसी चुप्पी का नतीजा है जिसका खामियाजा आज भी कांग्रेस भुगत रही है . कांग्रेस आज केवल सरकार  की कमजोरी और सत्ता विरोधी लहर के सपने देख रही है जिसके बूते वो अपनी वापसी कर सके नाकी अपने नेतृत्व के भरोसे आज उसे छोटी - छोटी क्षेत्रीय पार्टीयो का पिछ्ल्गु बनने मे भी गुरेज नही है . सोनिया गाँधी ने सरकार को कठपुतली की तरह नचाया और सत्ता बरकरार रखने के लिये देश की साख से भी खिलवाड़ किया उसी का परिणाम है की जनता कांग्रेस को विपक्ष के रूप मे भी नही देखना चाहती . उपचुनावो मे भी कांग्रेस आज अपनी जमानत नही बचा पा रही है . आखिर बाप दादा के नाम पर देश कब तक कांग्रेस को ढोती रहेगी . कांग्रेस की चर्चा होने पर अक्सर ही इंदिरा से लेकर राजीव ,नेहरू का जिक्र होता है क्या भविष्य मे जनता सोनिया या राहुल का जिक्र भी उसी अनुसार करेगी .
कांग्रेस मे आज भी नेताओ की कमी नही है परंतु नेहरू काल से ही विकसित वफादारी की परम्परा आजतक कायम है . कांग्रेसी नेताओ को समझना चाहिये की वफादारी पार्टी से और देश की जनता के प्रति होनी चाहिये ना की परिवार से . आज अगर उन्होने थोड़ी सी भी वफादारी देश के प्रति दिखाई होती तो जनता एक बार उनके विषय मे अवश्य ही  चिंतन करती . परंतु आज यदि कांग्रेस अपने हर बात मे अतीत का जिक्र करना छोड़ दे और वर्तमान के मुद्दो को लेकर चले तो भ्रस्टाचार से लेकर तुष्टिकरण तक की नीति मे उसके पास कोई जवाब नही रह जाता . बांटो और राज करो की नीति से जिस पार्टी की शुरुआत हुई थी वह आज उसी को लेकर भाजपा पर इल्जाम लगाती दिख रही है आखिर कांग्रेस ने कुछ तो ऐसा जरूर किया होगा जिसकी वजह से विश्व के सबसे बड़े हिन्दू राष्ट्र का हिन्दू भी उससे कतराने लगा है . आज राहुल गाँधी मंदिरो के चक्कर लगाने पे मजबूर है आखिर किसी ना किसी प्रकार का सर्वे उनके पास जरूर आया होगा जिससे वे  ऐसा करने पर मजबूर है .


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अखिलेश की माया  akhilesh ki maya - 



akhilesh ki maya
न्यूज़ चैनलों पे इन दिनों होने वाले कॉन्क्लेव की बाढ़ सी आई हुई है। जिसमे हर जगह योगी जी उपस्थित है और उत्तर प्रदेश में होने वाली हार पे अपनी राय जाहिर करते हुए दिखते है।  अचानक से इन चैनलों पे इस तरह के प्रोग्राम और भाजपा की हिस्सेदारी साफ़ तौर  पे अपनी छवि सुधरने की कोशिश है।  गोरखपुर की हार कही न कही भाजपा में योगी का कद घटाने वाली ऐसी घटना है जिसकी चिंता खुद योगी के चेहरे पे साफ झलकती है। 

इस हार के पीछे भाजपा की अपनी करनी जो भी हो चाहे वो जनता के बीच अपनी पकड़ खोती  जा रही हो या योगी  के कद को बड़े नेताओ द्वारा छोटा करने की कोशिश हो जिसमे उम्मीदवार के चयन से लेकर मोदी का प्रचार न करना और भी तमाम बातें है लेकिन जो बात स्पष्ट है वो है सपा और बसपा की आपसी सांठ गाँठ। 

उत्तर - प्रदेश देश का एक ऐसा राज्य है जिसके बारे में कहा जाता है की दिल्ली का रास्ता यही से होकर गुजरता है इसीलिए 2014 के चुनावों में भाजपा ने यहाँ से गठबंधन के साथ 73 सीटों पे जीत हासिल की और केंद्र में सरकार बनाई। ऐसे में मुख्यमंत्री का अपनी ही सीट गवाना कही न कही बीजेपी के माथे पर भी शिकन लाता है। अगले ही साल केंद्र के लिए चुनाव होने वाले है और ऐसे में उत्तर प्रदेश की अहमियत एक बार फिर बढ़ जाती है। 

उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा दो प्रमुख क्षेत्रीय पार्टिया है जिनकी सरकार यहाँ बनती रही है पर 2017 के विधानसभा चुनावो में बीजेपी ने यहाँ भारी बहुमत से सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की।  पर कहते है माहौल बदलने में समय नहीं लगता।  अपने भारी भरकम फैसलों से सरकार के शुरूआती दिनों में ऐसा लगता था की जैसे काफी कुछ बदलने वाला है , लम्बे अर्से  से उत्तर प्रदेश में इन दोनों क्षेत्रीय पार्टियों ने विकास से अपना नाता तोड़ लिया था और उत्तर प्रदेश पिछड़ेपन का शिकार हो गया था। पर अपने शासन के अंतिम दिनों में  अखिलेश यादव इस बात को समझते हुए दिखे  की जातिय समीकरण के साथ चुनाव जितने के लिए विकास और प्रत्यक्ष रूप से जनता को लाभ पहुंचाने वाली योजनाए भी आवश्यक है इसलिए उन्होंने समाजवादी पेंशन से लेकर कन्या विद्याधन और लैपटॉप वितरण जैसी अनेक योजनाए चलाई परन्तु बीच में ही पारिवारिक कलह के चलते और परिवार द्वारा प्रदेश में राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते उनके सरकार की छवि ख़राब हुई परन्तु एक बात जो स्पष्ट है  वो ये है की इन सब के बावजूद वे अपनी छवि जनता के दिमाग में गढ़ने में कामयाब हुए।  निश्चित तौर पे वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री  के रूप में विकास की इबारत लिखने में कामयाब हुए। 


इन्ही सब के बीच वे पार्टी से पारिवारिक हस्तक्षेप दूर करने में भी सफल भी हुए और खुद पार्टी के अध्यक्ष बन बैठे।  अब एक बार फिर भाजपा की सरकार जिस प्रकार आम जनमानस से दूर होती दिख रही है उनके लिए खुद को साबित करने का सुनहरा अवसर है जिसे वे खोना नहीं चाहते।  यही कारण  है की उप चुनावों में जनता ने विकल्प के रूप में समाजवादी पार्टी का ही चुनाव किया। और दूसरा अहम् समीकरण बसपा का साथ जिसकी कल्पना शायद बीजेपी ने भी नहीं की थी क्योंकि गेस्ट हॉउस कांड के बाद इन दोनों पार्टियों का भविष्य में एक साथ आना लगभग असंभव था।

 परन्तु अखिलेश यादव ने अपनी रणनीतिक कुशलता से इसमें भी कामयाबी ही पाई। और अगर यह गठबंधन आगे भी जारी रहता है तो इसमें संदेह नहीं है की भाजपा का मिशन 2019 भी खतरे में पड़  सकता है।  मायावती के शासन को लोग मजबूत क़ानून व्यवस्था के तौर पे जानते है और बसपा  का निचले तबके का मजबूत वोटबैंक बहन जी के लिए सदैव समर्पित रहता है उसी प्रकार  समाजवादी पार्टी का पिछड़ी जाति  का एक वर्ग। उत्तर प्रदेश में इन  दोनों ही वर्ग का वोट प्रतिशत यदि आपस में मिल जाये तो आगामी लोकसभा चुनावों में काफी सीटे इन दोनों पार्टियों की झोली में आ गिरेंगी और भाजपा के मिशन को तगड़ा झटका लग सकता है। इसलिए भाजपा का प्रयास रहेगा की इनका गठबंधन हर हाल में न होने पाए क्योंकि फूलपुर और गोरखपुर की हार उसके लिए उसके मिशन 2019 के लिए खतरे की घंटी है। 

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बीजेपी की राजनीति की नाव मे जनता द्वारा छेद  bjp ki raajneeti ki naw me janta dwara chhed 




     


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बीजेपी की मौजूदा हार को अगर कोई मामूली हार समझता है तो वो बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकार है . हार से पहले कम से कम इन दोनो लोकसभा के महत्व को समझना जरूरी है , एक फूलपुर लोकसभा से त्यागपत्र देकर उप मुख्यमंत्री बनने वाले केशव प्रसाद मौर्य और दूसरे लोकसभा से सांसद और प्रदेश के मुख्यमंत्री और गोरक्षपीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ का संसदीय क्षेत्र गोरखपुर .

सबसे तेज़ झटका जिस संसदीय क्षेत्र का है वो है गोरखपुर , गोरखपुर एक ऐसा संसदीय क्षेत्र है जहा की जनता योगी के सिवा किसी और के बारे मे सोच भी नही सकती जहां हर चुनावो मे योगी की जीत का प्रतिशत बढ़ता ही जाता था , ये वही गोरखपुर हैं जिसके दम पे योगी अपनी राजनीति की हुंकार भरते है , हार की बात तो सपने मे भी नही आती और जिस जातीय समीकरण की बात कही जा रही है वो इतनो दिनो तक योगी की जीत मे कही देखने को नही मिली फिर अचानक से ऐसा क्या हो गया जिससे की पूरी जमीन ही खिसक गई और योगी धड़ाम से गिर पड़े .


दरअसल बीजेपी की हार पहले से ही तय थी , क्योंकि देर ही सही पर जनता को वर्तमान बीजेपी सरकार की कथनी और करनी मे फर्क समझ मे आने लगा है गली - चौराहे पे आम जनता की बातो मे बीजेपी को लेकर वैसा ही गुस्सा शुरु हो चुका है जैसा कांग्रेस के अंतिम दिनो मे हुआ करता था बस मुद्दे को लेकर फर्क है कांग्रेस के समय जो सबसे प्रभावी मुद्दा था वो था भ्रष्टाचार और इस समय जुमलेबाजी .

कहते है ये पब्लिक है सब जानती है , पर कभी काल कुछ समय के लिये इसे भी अपनी अदाकारी और राजनीति के नये तरीको से से भ्रमित किया जा सकता है पर कोई भी राजनेता इस भ्रम मे ना रहे की जनता का भ्रम अधिक दिनो तक बरकरार रखा जा सकता है और अपनी सत्ता चलाई जा सकती है .योगी भी अपनी स्वभाविक राजनीति जिसके लिये वी गोरखपुर मे जाने जाते है को छोड़कर भाजपा के उसी ढर्रे पे चल निकले जिसपे केन्द्र सरकार चल र्ही है .


वर्तमान समय मे केन्द्र की नीतियो से जनता त्रस्त आ चुकी है  भले ही सरकार  इसे लेकर कोई भी तर्क दे दे लेकिन सरकार आधार , गाय , हिन्दू - मुस्लिम , दंगे , भगवा , वंदे मातरम , बैंक मे खाता खुलवाने से लेकर टैक्स लगाने और जुमले बाजी से आगे नही बढ सकी . योगी भी मोदी की तरह ही विकास की बात करते - करते एक साल निकाल चुके थे , यहाँ तक की गोरखपुर की जनता की जो अपेक्षाये थी उनको पूरा करना तो दूर उनपर कभी ध्यान भी नही दिया ,पहले विपक्ष मे रहने के नाते जनता इसको अनदेखा करती रही और उन्हे वोट देती रही .

लेकिन इस बार वे खुद तो मुख्यमंत्री की कुर्सी तक जा पहुंचे और जनता बस इंतजार करती रही विकास का ,  लेकिन एक साल के इंतजार मे उसे समझ मे आ गया की केन्द्र और राज्य सरकार बस अच्छी बातें कर सकती है , लेकिन काम मे इनका मन नही लगता और धीरे - धीरे आक्रोश बढ़ता गया और उसका विस्फोट हुआ इन उप चुनावो मे .

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मोदी राजा

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सुब्रमण्यम स्वामी वन मैन आर्मी subramanyamswami one man army - 

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स्वामी 



सुब्रमण्यम स्वामी भारतीय राजनीति का वो चेहरा है जो अपनी बात बेबाक तरीके से रखने और उन्हें सिद्ध करने के लिए  कोर्ट का दरवाजा खटखाना भी नहीं चूकते। यहाँ तक की उनकी अपनी पार्टी बीजेपी भी उनके सवालो से परेशान  हो जाती है और बगले झाकने लगती है। सरकार के शुरूआती दौर में ही उन्होंने अरुण जेटली को वित्त मंत्री बनाये जाने पर सवालिया निशान लगाए थे और एक वकील को इतने बड़े देश की अर्थव्यवस्था तहस - नहस  करने का कारण बताया था। उनके बाद यशवंत सिन्हा ने भी वित्त मंत्री की काबिलियत पर प्रश्न चिन्ह लगाए थे। जो की स्वामी  की बातो का समर्थन था। इसका एक कारण ये भी है की स्वामी खुद एक अर्थशास्त्री है , उन्होंने हॉवर्ड यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है और  विश्व के  नामी अर्थशास्त्रियों के साथ शोध कार्य भी किया है।   हमने भी देखा की सरकार कैसे देश की अर्थव्यवस्था के नाम पर आम आदमी पर करो का बोझ बढाती जा रही है। और उसके कई फैसले गलत सिद्ध हुए है। स्वामी 1990  -  1991 तक भारत के वाणिज्य ,न्याय और विधि मंत्री रह चुके है और साथ में अंतराष्ट्रीय व्यापार आयोग के अध्यक्ष भी।


सुब्रमणयम  स्वामी के परेशां करने वाले सवालो से राहुल गाँधी भी अछूते नहीं रहे है पिछले साल उन्होंने राहुल गाँधी से उनकी जाति को लेकर ही सवाल पूछ लिया था की वे हिन्दू है या ईसाई , सुनंदा पुष्कर केस में उन्होंने शशि थरूर पर ही अपने बाण चला दिए थे। नेशनल हेराल्ड को लेकर स्वामी अभी भी सोनिया  गांधी के पीछे पड़े हुए है। 


स्वामी के पिता जी भारतीय सांख्यिकीय सेवा के अधिकारी थे और इसके निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए थे इसलिए स्वामी ने भी अर्थशास्त्र से अपनी पढाई शुरू की। स्वामी आईआईटी में प्रोफ़ेसर भी रह चुके है और अपनी विचारधारा के कारण इंदिरा गाँधी की आँखों की किरकिरी भी इंदिरा गाँधी के कारण ही उन्हें अपनी नौकरी गवानी  पड़ी और तभी से स्वामी राजनीति में सक्रिय भी हुए। आपातकाल के दौरान स्वामी अपनी गिरफ़्तारी के पूर्व ही भूमिगत हो गए थे।  उन्होंने उस दौरान भी निर्भीकता से संसद में पहुंच कर अपनी बात रखने का साहस दिखाया था जब कोई इंदिरा गाँधी के विषय में बात करने से भी कतराता था। 

वैसे तो स्वामी के विषय में पूरी जीवनी कही भी मिल जाएगी। पर जरुरी है स्वामी की विचारधारा और सच के प्रति उनकी निष्ठां और निडरता को समझने की । इसी विचारधारा को लेकर स्वामी ने अपनी पार्टी भी बनाई थी पर लोकसभा चुनावों से पूर्व उसे भारतीय जनता पार्टी में विलय करा दिया था जिससे की नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एक सर्वजनहितकारी सरकार का गठन हो सके। स्वामी आज भी उन मुद्दों पे खुलकर बोलते है जिनपे आम नेता बात करने से भी कतराते है। स्वामी की छवि कुछ हद तक हिंदुत्व वादी की भी है इसलिए रामसेतु से लेकर राम मंदिर के निर्माण में भी स्वामी का लगाव देखने को मिलता है। राम मंदिर के निर्माण को लेकर स्वामी बीजेपी से भी सवाल पूछते नजर आ जाते है ये स्वामी ही है जिन्हे वन मैन आर्मी का दर्जा दिया जा सकता है। इसलिए आजकी युवा पीढ़ी में भी स्वामी के चाहने वालो की अच्छी संख्या है। जो इस देश के राजनीति  और समाज में होने वाले घटनाक्रम पे अपनी बात रखने और उसको सही साबित करने के लिए प्रयासरत है। ताकि देश की भ्रष्ट और संवेदनहीन व्यवस्था को सुधारा जा सके।  


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news channel debate

न्यूज़  चैनलों पे होने वाली डिबेट  और उनकी प्रासंगिकता news channelo pe hone wali debate  aur unki prasangikta-



इधर कुछ दिनों से समाचार चैनलों या मीडिया पर विभिन्न मुद्दों को लेकर होने वाली बहस जिसे डिबेट कहा जाता है  एक आम बात होती जा रही है। हम देख सकते है की किसी मुद्दे को लेकर विभिन्न पार्टियों , संगठन या उस मुद्दे से सरोकार रखने वाले किसी विशिष्ट व्यक्ति को चैनल के स्टूडियो में आमंत्रित किया जाता है और उनसे उस मुद्दे पर बहस करवाई जाती है।  

news channel debate
news channel debate 

अगर मुद्दा राजनीतिक हो तब आप देख सकते है की इन राजनीतिक दलों  द्वारा  होने वाली डिबेट कैसी होती है। कभी - कभी  तो मुझे लगता है की ये सारे डिबेट पूर्व प्रायोजित होते है यहाँ पूर्व प्रायोजित का मतलब है की डिबेट किस दिशा में ले जानी  है।  मैंने अक्सर देखा है की अगर न्यूज़ चैनल सत्ताधारी दल या किसी अन्य दल से जुड़ाव रखते है तो उनके सवाल ही ऐसे होते है जिनका जवाब सिर्फ विपक्ष के लिए नकारात्मक होता है वे विपक्षी दल के प्रवक्ता  को अपनी सवालो के जवाब में उलझा कर रख देते है इसीलिए राजनीतिक दल भी न्यूज़ चैनल की प्रतिष्ठा , एंकर और विपक्षी प्रवक्ता की काबिलियत  के अनुसार ही  अपने प्रवक्ताओं को भेजते है  ।

 चैनल भी चाहते है की डिबेट में शामिल व्यक्ति ऐसा हो जो की  उनके चैनल की  trp  बढ़ाने  में सहायक हो।  ये एंकर भी बड़े चतुर होते है पूरी डिबेट का रुख  अपने अनुसार मोड़ने में सक्षम होते है। इसके लिए विपक्षी प्रवक्ता को कम  समय देना उनकी बात पूरी होने से पहले अपना एक घुमावदार सवाल उनके सामने रख देना उनके आंकड़ों और तथ्यों के साथ अपने आंकड़ों और तथ्यों को बताना जिससे उनकी बात सही होते हुए भी उसकी दिशा बदल जाती है और यदि प्रवक्ता भी चालू हुआ और अपनी प्रभावशाली बात रखते चला गया जो उनके लिए हितकर नहीं है तो कुछ नहीं हुआ तो अंतिम अस्त्र बात को काटते हुए विज्ञापन चला देना। कुछ ऐसे दांव पेंच है जोकि मुझे लगता है की एक परिपक्व दर्शक वर्ग अब समझने लगा होगा।  लेकिन यदि  दर्शक की किसी दल या उसके नेता के प्रति  निष्ठां है तो उसको ये सारी डिबेट अपने अनुकूल या प्रतिकूल भी लग सकती है। अनुकूल लगने पर वो खुश होता है और प्रतिकूल लगने पर भी वह पूरी डिबेट को ध्यान से सुनता है जिसमे की वो कमियां निकाल  सके। ऐसे ही दर्शक वर्ग से मिलने वाली trp को ध्यान में रखकर ज्वलंत और  भावनात्मक मुद्दों पर  डिबेट कराई जाती है. जिसमे डिबेट में शामिल मुद्दे से शुरू हुई बहस की  नौबत तू - तू , मैं - मैं  और व्यक्तिगत मुद्दों तक आ जाती है। और असल मुद्दा कही गायब सा हो जाता है।   


अब बात आती है सामाजिक मुद्दों को लेकर होने वाली डिबेट की।  इन मुद्दों पर होने वाली डिबेट की तो हद ही हो जाती है बहस में ऐसे विचार निकल कर सामने आते है जो की कही से आम  सामाजिक  विचारधारा से मेल नहीं खाती  . और किसी न किसी बात पे नए मुद्दे को जन्म दे देती है.
मुझे लगता है की आने वाले दिन क्या वर्तमान समय में ही जनता का इन डिबेट से मोहभंग होते जा रहा है क्योंकि सारे चैनलो पर इस तरह की डिबेट आम होते जा रही है। एक ही प्रवक्ता कई चैनलो पर दर्शको का टाइम जाया करते हुए मिल जाते है. और इन डिबेटोँ  में सच कही पीछे रह जाता है  . 



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Ab to achhe din dikhla do sarkar

अच्छे दिनों की आस में 


बड़ी मुश्किल से एक एक रुपया जोड़कर 4 जी मोबाइल के लिये पैसा जमा किया था मोदी सरकार ने वो भी तोड़ दिया , लगा क‍ि अच्छे दिन की तरह 4 जी मोबाइल के लिये अभी कुछ दिन और इंतजार करना पड़ेगा , दिन भर टी वी पर सिर खपाने के बाद निष्कर्ष निकला क‍ि बजट कुछ समझ में नहीं आया , आखिर सरकार ने आम आदमी को राहत दिया है या हमेशा की तरह देश की जीडीपी की दुहाई देकर उसकी बैंड बजाई है।

 सरकार से निवेदन है क‍ि कभी कभी धरातल पे उतरके आम इंसानों की जिंदगी की जीडीपी भी समझ लिया करो। कभी कभी तो लगता है क‍ि सरकार, सरकार ना होकर एक फाइनेंशियल इन्स्टिट्यूट होकर रह गई है जिसका काम बस लोगों का खाता खुलवाने से लेकर बीमा करने तक रह गया है ए बिल्कुल वैसा ही है जैसे मुर्गी को दाना डालकर हलाल करना . गरीब आदमी जिसका मुफ्त मे खाता खुलवा कर सब्सिडी के कुछ पैसे डालकर फिर उन्ही पैसो को बैंक द्वारा मिनिमम बॅलेन्स के नाम पे काट लिया जाता है।

 ऐसा करके लगभग 1700 करोड़ रुपया बांको द्वारा गरीबो से वसूला गया. समझाने के लिये इतना ही काफी है गरीब को सब्सिडी का पैसा पाने के लिये बैंक मे खाता खुलवाना और उसे आधार से लिंक करना आवश्यक है ये उसकी मजबूरी है , अगर उसके पास मिनिमम बॅलेन्स इतना भी पैसा नही है तो क्यो नही उसका खाता बंद करके उसको पूर्व की भांती सब्सिडी जारी रखी जाये , और उससे भुगतान के समय ही राहत प्रदान की जाये . अगर उसके पास इतना ही पैसा रहता तो वो गरीब ही क्यो कहलाता . 

pakoura
pakoura 

हाँ तो आते है अब बजट पे तो इस बार सरकार कहा पीछे रहने वाली थी , बीमा दिया इन्होने…. किसानो को , स्वास्थ्य का भी बीमा दिया . पर उसके लिये तो बीमार पड़ना पड़ेगा इनके टर्म एंड कंडीशन मानने पडेंगे . सेस को बढ़ा दिया जिससे विभिन्न प्रकार की शिक्षा और स्वास्थ्य बिलों के दाम बढ़ेंगे समझ में नही आता एक देश एक टैक्स का नारा कहा गया . कस्टम ड्यूटी बढ़ा दी गई . जेटली जी के विषय मे एक बात कहना चाहूंगा क्या वकालत के सिवा उन्हे अर्थशास्त्र मे भी महारत हासिल है .

 सुब्रमण्यम स्वामी ने शुरु मे ही इनकी काबलियत जग जाहिर कर दी थी पर अपनी राजनीतिक कुशलता से जनता द्वारा नकारे जाने के बाद भी इस देश के वित्तमंत्री है . मीडिया से भी अनुरोध है क‍ि वो केवल चुनाव के समय ही नही बल्कि अपनी दैनिक रिपोर्टिंग में सरकार की विभिन्न योजनाओं की जमीनी स्तर पे निष्पक्ष भाव से विवेचना करे . ताकि हम भी जान सकें क‍ि सरकार अपने चुनावी वादों में कितनी खरी उतरी है. फिलहाल इस आम बजट में कोई भी ऐसी चीज नहीं है जिससे आम जनता, और निचले तबके के लोग राहत महसूस कर सकें..


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kasganj se kashmir

कासगंज से कश्मीर 


kashganj
हम भारत के लोग 

सड़क , खून , उपद्रव , हिन्दू , मुस्लिम, गाय ,तिरंगा जो शब्द आप को उचित लगे उसे अपने पास रख लीजिये उसके बारे मे सोचिये क्या पायेंगे आप ? बस एक मानसिक बीमारी जो की इन शब्दो द्वारा फैलाया जाता है, इसी मानसिक बीमारी ने कई घरो को बर्बाद कर दिया ,एक शारीरिक बीमारी से सबसे ज्यादा फायदा किसे होता है – डाक्टर को और दवा कम्पनियो को , वैसे ही इन मानसिक बिमारियो से लाभ होता है हमारे राजनेताओ को और हममे ये बीमारी क्यो फैलाई जाती है सिर्फ वोट पाने के लिये जिससे उनकी सत्ता बनी रही और वे राज करते रहे.

नुकसान हमेशा सिर्फ और सिर्फ हमारा है होता है, क्योंकि पुलिस मे भी हमारे ही भाई बहन है और सेना मे भी हमारे ही भाई उपद्रवी भी हमारे घर के गुमराह किये गये बच्चे है और वे टूटी हुई दुकाने और जलते हुए बस भी हमारे ही किसी अपने के है. महल मे रहने वाले तो वो है अपनी सुरक्षा मे सेना लेकर चलने वाले तो वो है और उनको सुरक्षा देने वाले हम ना की हमारी सुरक्षा करने वाले वो .


हम अपनी जान पे खेलके उनकी रक्षा करते है अपनी भारत मां की रक्षा करते है , और बदले मे ये अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये हमारा इस्तेमाल खिलौने की तरह करते रहते है. हमारा खून पानी की तरह सडको पे बहता है और शायद हम अब एक शतरंज के प्यादे की तरह रह गये है ना हमे कश्मीर मे शान्ती से रहने को मिलता है ना कासगंज मे , कभी कश्मीर जलता है तो कभी कोई और प्रदेश.

                                                                                                     raijee

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राजनीतिक प्रबंधन

Indian budget



भारतीय बजट  पूर्व  समीक्षा 

Indian budget

वर्तमान समय में आज के दिन हमारे वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा भारतीय बजट पेश किया जा रहा है। 
बजट पेश करने से पहले ही केंद्र में स्थापित बीजेपी सरकार द्वारा बजट में आम जनता को विशेष राहत ना देने की बात कही गई है सरकार द्वारा पहले ही रोना इस बात का संकेत है की बजट में आम जनता को विशेष राहत नहीं मिलने वाली है। वित्तीय घाटे का बढ़ना और 2019 में होने वाले चुनावों के मद्देनजर एक संतुलित बजट की उम्मीद  की जा सकती है। 


crowd of unemployment
बेरोजगारों की भीड़ 

 सवाल होगा देश में बढ़ती बेरोजगारी का जो की सरकार  ने हर साल दो करोड़ नौकरियों का वादा किया था लेकिन दो लाख नौकरिया भी नहीं दे पाई जिस कारण देश में दिन प्रतिदिन बेरोजगारों की फौज खड़ी  होते जा रही है। मौजूदा समय में भारत में 1.86  करोड़ लोग बेरोजगार है तथा 2018 में भारत में बेरोजगारी की दर 3.5 प्रतिशत है।  जो की चिंताजनक है। 




former
बारिश की आस लगाए किसान 

सवाल होगा कृषि छेत्र का जहा सरकार ने किसानो को आय दुगनी करने का वादा  किया था  पर किसान आत्महत्या करने को मजबूर है आंकड़े बताते है की भारत में हर साल 10000 किसान आत्महत्या करते है। बढ़ती लगत दर और ग्रामीण अंचल में फैली साहुकारी  इनकी आत्महत्या की प्रमुख वजह है।  क्या सरकार जमीनी स्तर पर बजट में इसके लिए कोई प्रावधान कर सकती है। 


middle class
मध्यम वर्ग 
सवाल होगा उस मध्यम वर्ग का जो की दिन प्रतिदिन महंगाई की मार से तनाव में जी रही है लेकिन फिर भी सरकार के प्रति उसकी श्रद्धा नोटबंदी से लेकर जी एस टी  तक बरक़रार रही है। कर में छूट की सीमा जो की वर्तमान में 2.5 लाख है में सरकार बढ़ोत्तरी करती है या नहीं। पेट्रोल और डीजल के दामों को  जी एस टी से  बाहर रखना सरकार की मंशा पे सवाल खड़ा करता है। 

फिलहाल आज पेश होने वाले बजट से हम बस उम्मीद कर सकते है की सरकार कारपोरेट के अलावा  देश के निचले और मध्यम तबके के लोगो की दुश्वारियां कम  करे जो की उसका काम है न की देश हित के नाम  पे जनता को भावनात्मक  रूप से ब्लैकमेल करते हुए नए करो का बोझ थोपे।    
बजट के बाद हम फिर बजट की अनेक बारीकियों पे चर्चा करेंगे। 

वित्तमंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट -   http://www.finmin.nic.in/

Bitcoin


बिटकॉइन एक आभासी मुद्रा  bitcoin a cryptoicurrency 


बिटकॉइन को लेकर तरह तरह के भ्रम और जिज्ञासाएं अक्सर ही हमारे दिमाग में चलती रहती है ,बिटकॉइन क्या है ? ये कैसे काम करती है ? यहाँ हम बिटकॉइन के बारे में चर्चा  करेंगे और जानेंगे की की इस आभासी मुद्रा का संसार भर में इतना जिक्र क्यों है। 


bitcoin image
बिटकॉइन इमेज 

BITCOIN -   बिटकॉइन एक ऐसी मुद्रा है जो हमें दिखाई नहीं देती, इसका अविष्कार सातोशी नाकामोतो  नामक  एक इंजीनियर ने सन  2008 में किया था।  और यह अगले साल मार्केट में आ गया। 

जैसे हम अपने डेबिट / क्रेडिट कार्ड से पैसे का ट्रांसफर करते है वैसे ही  हम बिटकॉइन का ट्रांसफर करते है।  बिटकॉइन एक डिजिटल वॉलेट में स्टोर होता है इसे खरीदने के लिए हमें अपनी देश की मुद्रा का हस्तांतरण करना पड़ता है। वर्तमान समय में बिटकॉइन की कीमतों में उतार चढ़ाव जारी है तथा इस समय संसार में एक करोड़ से ज्यादा बिटकॉइन प्रचलन में है।  यह हम आपको बता दे की बिटकॉइन को किसी भी देश ने मान्यता नहीं प्रदान की है तथा भारतीय रिजर्व बैंक ने भी इसके बारे में लोगो को जागरूक किया है।  लेकिन फिर भी इसके तात्कालिक लाभ को देखते हुए लोगो का आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है।  इसी कारण कई ऑनलाइन शॉपिंग कम्पनिया ,एयर लाइन ,होटल, इत्यादि इसकी इजाज़त दे रहे है।  

बिटकॉइन का निर्माण - बिटकॉइन के निर्माण को बिटकॉइन माइनिंग कहते है। इसका निर्माण कई सारी प्रक्रियाओं के बाद होता है जो की अत्यंत ही  कठिन कार्य है। बस इतना समझ लीजिये की इसके निर्माण में कई  शक्तिशाली  कम्प्यूटर , बेहद ही  जटिल गणितीय  प्रणाली , प्रति सेकेंड लाखो कैल्कुलेशन  व असीम ऊर्जा ( बिजली ) की आवश्यकता पड़ती है। और अंत में बिटकॉइन निर्माण के सॉफ्टवेयर की। 

अनेक लोगो ने बिटकॉइन को एक जाली करेंसी कहा है जो कभी भी बंद हो सकती है। 

SPECIAL POST -    पकौड़े से अमेरिका के राष्ट्रपति तक


राजनीतिक प्रबंधन

Political management


कभी कभी राजनीतिज्ञो की दिन दूनी रात चौगुनी होती संपत्ती को देखकर मुझे लगता है की राजनीति समाज सेवा नही एक व्यवसाय का माध्यम होती जा रही है , जहां कथनी और करनी मे जमीन आसमान का अंतर होता है , यहाँ सारा खेल आपकी अभिनय छमता पर निर्भर करता जो की आपके वोट प्रतिशत को बढाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है , अब दूसरा महत्वपूर्ण कारक आपकी जाति होती है अगर आपकी जाति बहुसंख्यक है तो क्या कहने. हाँ शुरुआत मे या बाद मे मीडिया से खराब सम्बंध आपके लिये हितकर नही होते


media
media


 इस कारण ही कुछ मीडिया समूह कभी काल सुर्खियो मे आ जाते है. मुझे आज ही मेरे एक मित्र ने बताया की मोदी जी अपना साक्षात्कार विशेष तौर पे केवल दो पत्रकारो को देते है और उनका विवादो से पुराना नाता रहा है इनमे से एक तिहाड़ जेल की सैर भी कर चुके है मैने इनके बारे मे खोज की तो मुझे इनसे सम्बंधित सारी खबरे हिन्दुस्तान टाइम्स पर ही मिल गई जो की सत्य थी . ऐसे कई उदाहरण पड़े हुए हैं , ज्यादा अंदर जाने पे आपका विश्वास इंसानियत से उठ सकता हैं .


corporate
corporate 

उद्योग समूह भी अपने हितो की पूर्ति हेतु अलग अलग पार्टियों से जुड़ाव या अलगाव रखते है और कई तो पर्दे के पीछे से उन्हे संचालित भी करते है. किसी उत्पाद की तरह ही पार्टी और उसके नेता की ब्रांडिंग की जाती हैं इसमे आईटी पेशेवर से लेकर मौखिक प्रचारक तक की अहम भूमिका होती है. तरह तरह के नये शब्दो का जाल बुना जाता है और उन्हे सोशल मीडिया पर प्रचारित किया जाता है . ऐसे कई प्रबंधन करने होते है आज की राजनीति मे और जो उच्चतम अंक प्राप्त करता है वो विजयी होता है.


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