likhta hun



लिखता हूँ मैं थोड़ा थोड़ा पर वो बात नहीं आती 

कहने को तो पूरा दिन यूँ ही निकल जाता है 

पर माँ के आँचल में जो गुजरे 

अब वो रात नहीं आती

बहती है जब जब पुरवाई
मिटटी की सोंधी खुशबु तो आती है
पर एक लम्हा नहीं गुजरता
जब बीते लम्हे की याद नहीं आती

सब कुछ तो पा लिया
ए जिंदगी तुझसे
पर वो बचपन वाली बरसात नहीं आती
भीड़ में रहकर भी अब
अपनेपन की एहसास नहीं आती

मैंने देखा है तेरी आँखों में
नीर के दरिया को बहते हुए
पर ये बात जुबां तक नहीं आती 

पीर बहुत है सीने में मेरे भी 

पर शिकन चेहरे पर नजर नहीं आती

खड़ा हूँ साथ तेरा साया बनकर
तेरी नजर कैसे तुझे बतलाती
इसीलिए
लिखता हूँ मैं थोड़ा थोड़ा पर वो बात नहीं आती

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जिंदगी  और हम 


हम बस भीड़ है और कुछ नहींसीधी सादी जिंदगी में, हाथ आया कुछ नहीं 

कुछ तो फितरत नहीं थी 
किसी से कोई नफरत नहीं थी 
ऐसे ही फ़साने बनते चले गए 
दिल की बात आई तो वो बोले कुछ नहीं 

तारीफों का समंदर था 
हाथ में पीछे खंजर था

चेहरे के पीछे चेहरे थे 
कुछ शतरंज के मोहरे थे 
शह और मात के इस खेल में 
प्यादो  की  बलिवेदी पर, जीत उन्होंने पाई थी 
हार थी  अपने हिस्से की 
उन्हें मिला जंहा सारा  अपने हिस्से तन्हाई थी 

रिश्ते अब सारे मतलब के 
प्यार के बोल ना अब लब  से 
नफरत की भाषा बोले सब 
वो दिल की बाते थे तब के 
मेरा मुझसे अब पूछो ना 
क्या खोया क्या पाया है 
तेरा तुझसे ना पूछूंगा 
किसको सिरमौर बनाया है 
ना लेके कुछ तू जायेगा 
खाली  हाथ ही आया है.....  .  


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ishq na karna


  इश्क़ ना करना 



यार बात ना  कर इश्क़ की अब
आदत पड़  गई है बेवफाई की अब  


यार दिल में अब कुछ होता नहीं 
जरुरत है सफाई की अब 

रुक सुन के जा आलम - ए - बेवफाई 
बात न करेगा फिर इश्क़ - ए - खुदाई की अब 

हम थे एक मुक्त पक्षी गगन में 
उड़ते थे सारे चमन में 

देखा उड़ते हुए उनको 
भूल गए उड़ना आ गए जमीं  पे 
वे हसने लगी ये  देख के 
शायद ध्यान न रही उनको हमारी ऊंचाई की अब 

हम खुश थे उनकी हंसी देखकर 
शायद तेरा वाला इश्क़ हो चला था हमें 
देखते रहे बेधड़क उन्हें 
अपने जख्मो का ख्याल न रहा 

वे आये करीब हमारे मरहम लेकर 
और मर हम गए घायल होकर नजरो के तीर से 
शायद तेरे वाले इश्क़ में जान गँवा बैठे थे हम 


                                                                                     आगे क्या सुनेगा दास्ताँ बेवफाई की 
                                                                                     जा और जाकर इश्क़ कर 


बेवफाई तो अपने आप हो जाएगी 



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प्यार और सियासत 




कल ही देखा था उसको ....हरी साड़ी पहनकर बजार मे गोलगप्पे खाते हुए ..
अभी पिछले बरस की ही बात है जब वो हमारे पड़ोस मे दो मकान छोड़ मिश्रा जी के घर किरायेदार बनकर आई थी , उसके साथ उसका पूरा कुनबा था जिसके मुखिया उसके पिता जी थे जो की शहर मे दरोगा थे.
परिवार मे मां के अलावा एक छोटी बहन और दो बड़े भाई भी थे , भाइयो मे एक की शादी हो चुकी थी और भाभी की गोद मे एक साल भर की लड़की थी नाम था अर्पिता .
गोलगप्पा खाने के दौरान ही उसने मुझे देख लिया था पर देखकर अनदेखा करना शायद नियती की मजबूरी थी ऐसी मजबूरी जिसे पति कहते है जो की उसके साथ मे ही खड़ा था . गोलगाप्पे का स्वाद जो भी हो पर इस मुलाकात ने उन यादों और उन जख्मो को हरा कर दिया था जो वक़्त ने दिये थे .

नये किरायेदार के बारे मे उत्सुकता तब और बढ जाती है जब परिवार की कोई सदस्या अपनी खूबसूरती की छाप आते ही छोड़ देती है , मुहल्लो के लौंडो के बीच चर्चा का विषय राजनीति से बदलकर अचानक ही प्रेमनीति हो जाती है और जिन्होने आजतक प्रेम का ककहरा भी ना सीखा हो वे अपने ज्ञान का प्रदर्शन ऐसे करते है जैसे प्रेमशास्त्र की रचना उन्ही के द्वारा की गई हो .....उसपर से आजकल के नये लौंडे जिनके सिर् पर चारो तरफ रेगिस्तान नजर आता है और बीच मे कपास की फसल उनकी शुरुआत प्रेमशास्त्र के आखिरी पन्ने से होते हुये सीधे रिज़ल्ट तक पहुंच जाती है


मुझे कभी भी अपने मुहल्ले की इस तरह के समुदाय पसंद नही आए थे , मेरी दिनचर्या सीधा यूनिवर्सिटी से घर और घर से यूनिवर्सिटी बस यहीं तक सीमित थी . बीच मे मित्र आसिफ़ के घर पर जरूर कुछ ज्ञान की बाते हो जाया करती थी .
उसका पति पुलिस विभाग मे ही कांस्टेबल था . तथा उसके पिता जी उसके सीनियर हुआ करते थे . मुहल्ले मे अब बात के अलावा आगे की रणनीति पर विचार किया जाने लगा पहली छोटी सी समस्या उसके बाप के आगे सिर् झुकाने की थी जिससे आगे का पथ सुलभ हो जाता.

पर समस्या यह थी की आखिर बिल्ली के गले मे घंटी बांधेगा कौन . शाम के समय अक्सर ही चर्चा करते करते देर हो जाया करती थी ऐसे ही एक शाम मे पैदल ही आसिफ़ के घर से लौट रहा था तभी रास्ते मे लोगो का झुंड एक आदमी को दौड़ाते हुए चला आ रहा था भीड़ के पास आने पर पता चला की वो कोई पत्रकार था जिसने किसी समुदाय विशेष के खिलाफ अपने अखबार मे कुछ लिख दिया था इससे पहले की भीड़ एक ग़ली के घुमावदार रास्ते मे घूमति मैने उस पत्रकार को इशारे से एक घर के अंदर जाने को कहा . वो घर आसिफ़ का था .गजब का खून सवार था उस भीड़ पर जैसे कानून नाम की वस्तु उनके लिये कोई मायने नही रखती उसमे से कुछ लडको को में जानता था जो की पैसे के लिये कुछ भी करने को तैयार रहते थे , उनका सारे राजनीतिक दलो के साथ उतना बैठना था , खैर भीड़ अपने मंसूबो मे नाकाम रही और उसके हाने के बाद मैने पत्रकार जी से पूरी जानकारी ली , पता चला की उनके लेख मे कुछ ऐसा नही था जिससे तनाव का बीज अंकुरित होता , वे  मेरे साथ ही थाने गये और उन्होने पुलिस को सारी बात बताई वही मेरी मुलाकात शेखर अंकल से हुई .... यही नाम था उसके पिता जी का उनसे मिलने पर पता चला की पुलिस मे होते हुए भी उनके अंदर कितनी सौम्यता थी बस उनका चेहरा ही अमरीश पुरी की तरह था पर दिल अंदर से एकदम मुलायम . यही से उनके घर आने जाने का सिलसिला चालू हो गया जिसने धीरे - धीरे  परिवारिक मित्रता का रूप ले लिया . और यही से उससे पहली मुलाकात हुई ....झुकी नजरे, सरल स्वभाव और गुड़ से भी ज्यादा मीठी बोली जो की सामने वाले को मन्त्र मुग्ध कर देती थी .

उसकी नजरे भी सभा से कुछ वक़्त निकाल कर हमारी नजरो को अपने होने का अहसास करा देती थी . बातों मे पता चला की उसकी गणित बहुत ही कमजोर है और मैं  ठहरा गणित से बीससी बस मिल गया हमको भी मौका अपनी काबिलियत दिखाने का हर रोज शम को बस दिक्कत यही थी की आसिफ़ भाई का साथ जरूर छूट गया . इधर आसिफ़ भाई का साथ छूटा उधर हर शाम नये नये पकवानो से रिश्ता जुड़ गया , उसकी भाभी पाककला मे निपुण थी और उन्हे नित नये - नये पकवान बनाने का शौक था हमने भी सोच लिया की दामाद बनेंगे तो इसी घर के.

इधर आती रुझानो ने संकेत देना शुरु कर दिया की अब सही वक़्त आ गया है अपने अंदर के ज़ज्बातो को बाहर निकलने का बस हमने भी एक अच्छा सा मुहूरत देखकर बोल ही दिया जवाब तो पहले से नही मालूम था पर जो कुछ आया उसकी हमने कल्पना भी नही की थी पता चला की उसने दो दिन पहले ही हमारी पुस्तक मे एक पन्ने पर अपना इजहार कर दिया था यहा भी हम पीछे रह गये .

यूनिवर्सिटी मे अभी कक्षाये प्रारंभ ही हुई थी की बाहर शोरगुल मचने लगा पता चला की शहर मे दंगे शुरु हो चुके है . सब अपनी अपनी जान बचाने को भागने लगे . मैं  भी अपने घर तेजी से साइकल चलता हुआ निकल पड़ा रास्ते का नजारा वर्णन करने लायक नही था घर पहुचने से कुछ दूर पहले ही दो लोग मेरी तरफ तलवार लेकर आते हुए दिखाई दिये अचानक उनमे से एक के कदम दौड़ते दौड़ते रुक गये .... आसिफ़ मियां थे वो ............

घर पर सबकी निगाहे मुझे ही ढूंढ रही थी , मुहल्ले के लौंडो ने अपनी अलग टीम बना ली थी जो की 24 घंटे पहरा देते थे . कुछ सियासतदारो ने अपने स्वार्थ के लिये पूरा शहर ही जला दिया और हम सोचते रहे की ये धुंआ सा क्यो है . अगले दिन मुहल्ले मे बड़ी शान्ती थी कुछ के चेहरे बता रहे थे की ए बिजली अपने आस पास ही गिरि है . चढ़ा दी थी बलि सियासत के हकुमराणो ने कुछ ईमानदार पुलिसवालो और निर्दोष इंसानो की .
बस वो आखिरी सुबह थी उसको देखे हुए कुछ अरमान थे जल गये चिता मे कुछ अरमान थे चिता मे जलने वाले के उन्हे पूरा करने के लिये .........ना हमे कुछ मिला ना तुम्हे कुछ मिला फिर भी ना जाने आपस मे कितना है गिला ...सत्ता के जादूगर है वो इस जादू ने जाने कितनो को लीला ....

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desh ko kranti ki jarurat



देश को क्रांति की जरुरत



देश के मौजूदा हालात कुछ ऐसे हो चुके है जहाँ लोग अपने ही पैरो पर कुल्हाड़ी मारने को तैयार है।  यहाँ कोई  देशवासी से ज्यादा भाजपाई , कांग्रेसी  और अन्य पार्टियों के नाम से अपनी पहचान पहले बना चुका है , बहुत ही कम लोग ऐसे होंगे जो धैर्य पूर्वक सत्य को ग्रहण कर सके ,लोग सिर्फ दूसरी पार्टियों से खुद की पार्टी का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ज्यादा जोर देने लगे है ,अगर पिछली सरकार ने एक लाख करोड़ का घोटाला किया है तो इनका तर्क रहता है की हमारी सरकार  में मात्र चंद करोड़ का घोटाला ही हुआ है ऐसे ही यदि कोई बड़ी दुर्घटना, दुराचार तथा जघन्य अपराध  हो जाती या उनका ग्राफ बढ़ जाता  है तो उसके तार भी ऐसे ही जोड़े जाते है  , की पिछली सरकर में सिर्फ इतनी हत्याएं हुई और हमारी सरकार में उससे कुछ कम हुई।
desh ko kranti ki jarurat

कुछ तो हमको भी आदत डाल  दी गई है की सरकार को थोड़ा वक़्त देना चाहिए। इसी आदत को जब तक हम समझते है तब तक ट्रेन छूट चुकी होती है।  एक शख्स ईमानदारी से बता सके की अमुक सरकार सिर्फ जनता की भलाई के लिए सत्ता प्राप्त करना चाहती है।  इस हमाम में सब नंगे हो चुके है सारे एक ही थाली के चट्टे  बट्टे है। आम आदमी कल भी त्रस्त  था और आज भी त्रस्त  है , सीमा पर आज भी जवान मर रहे है  और कल भी, कई खबरे तो आप और हम तक न पहुँच पाती  है और न पहुँचने दिया जाता है। 


नेता एक ऐसी बिरादरी है जो कभी भी आपस में गंभीर होकर नहीं लड़ते उनकी लड़ाई कभी भी वास्तविक नहीं होती है। सिर्फ आम जनता को दिखाने के लिए होती है लड़ते तो हम है उनके अनुयायी बनकर उनकी ताकत उनके समर्थको से होती है। प्रत्येक नेता अपनी अपनी जरूरतों के अनुसार समर्थक वर्ग खड़ा करता है , आजकल तो इस खेल में मीडिया का भी समर्थन हासिल है जो की स्वार्थ और सत्ता में हिस्सेदारी पाने हेतु उन्हें प्रमोट करता है। बदलते समय के साथ जनता को गुमराह किये जाने वाले शब्द रूपी बाणो में भी बदलाव आया है जिनमे कही भी विकास की बाते न होकर जातीय वैमनस्य , धार्मिक उन्माद रूपी  जहर से बुझे तीर होते है। 


देश इस समय एक बार फिर अपनी दिशा खोते दिख रहा है अगर इसमें किसी को विकास दिखता हो तो उसकी संतुष्टि के लिए मैं कुछ नहीं कर सकता।  आज कोई भी पार्टी अपनी कथनी के अनुरूप करनी करने में सक्षम नहीं है।  आज जरुरत इस देश की मूल व्यवस्था बदलने की है जिसके लिए आवश्यक है की इस देश का युवा वर्ग नए क्रांतिकारी विचारो को जन्म दे और उनपर अमल करे। भ्रष्टाचार  रूपी व्यवहार के हम इतने आदि हो चुके है की प्रत्येक सरकारों में इसको ख़त्म करने की बात की जाती है परन्तु सरकार ही इसके दलदल में फंसती दिखती है। 

मंत्री , विधायक , सांसद  जैसे माननीयो का मूल उद्देश्य जनसेवा न होकर धनसेवा बन चुका है , अधिकारी वर्ग अपनी राजनीतिक पहुंच से मलाईदार पदों पर काबिज है और जो थोड़े बहुत ईमानदार है वे राजनीतिक प्रताड़ना का शिकार है। समाचारो में दिखाई जाने वाली खबरे पूरी तरह से नाप तौल कर दिखाई जाती है , पूर्व निर्धारित डिबेट होते है ,चंद  उद्योगपतियों के हाथो में अधिकाँश संसाधनों की हिस्सेदारी है ,
 आखिर क्रांति क्यों ना हो। ........   


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mandiro me bhagwan nahi milte ab


मंदिरो में भगवान् नहीं मिलते अब (कविता )


शंकर जी बसे  हिमालय  पर 
ना जाने दूध किसे पिलाते हो 
बछड़ा भी ना पी पाया जिसे 
उसे नाली  में क्यों बहाते हो 

जो जग के दाता  राम है 

अयोध्या जिनका धाम है 
उस धाम में क्यों आग लगाते हो 
अपनी सियासत चमकाते हो 

ब्रम्हा जी ने लिख दिया 
जनता ने तुमको भीख दिया 
उसपे इतना इतराते हो 
जाने कौन सी बेशर्मी के साबुन से नहाते हो 

है लिखा किसी संत ने, ना अपना आपा  खोए 
राजा हो या रंक सभी का अंत एक सा होए

बोले कन्हैया, सुन मेरी मइया 

देख धरा है मुझमे समाया देख  तीनो लोक है मेरे अंदर 
फिर भी अकड़े  क्यों सर्कस का बन्दर 

मैं ना मंदिर में मैं ना  मस्जिद में 
मुझको न ढूंढो तुम अपनी जिद में 
मैं तो हूँ हर उस दिल में समाया 
जिसमे ना  कोई मोह ना  कोईं माया 
जिसके दिल में हर प्राणी का  मर्म समाया । ........ 


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bewfai


बेवफाई 


मेंरे दिल के पन्नो पे तस्वीर तेरी है
जो मिट गई हथेली से
वो लकीर मेरी है

कभी तंग करते थे तुम हमको
कभी तंग करते थे हम तुमको
अब तंग करते हो तुम हमको
हम कह ना सके कुछ तुमको

वो फूल तेरे बगिया का
घर मेरे जो रखा है
उस फूल से मेरे घर का
हर कोना  महका है

पर मेरे दिल के कोने में 
तेरी ही खुशबू  है
उस रात की यादें है 
सारी मुलाकाते है 

वफ़ा मेरी तुझको 
एक बार बुलाती है 
तेरी बेवफाई के 
किस्से सुनाती है 

की होकर बेवफा यूँ 
दिल जो मेरा तोड़ा  है 
बर्बादी की राह पर मुझको ला छोड़ा है 

तूं बेवफा है तो क्या हुआ 
यूँ खंजर प्यार का चला दिया 
और प्यार करने वालो का नाम 
सारे जग में हंसा दिया। 




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