बरेली का पेड़ा - 2
बरेली जैसे छोटे शहर का लड़का विजय अभी मुंबई जैसे महानगर में खुद को अकेला ही समझता था , उसके मौसेरे भाई और विजय के ऑफिस का समय अलग - अलग होने की वजह से उनकी मुलाकात छुट्टी के दिन ही होती थी। विजय की कम्पनी की एक फ़ैक्ट्री मुंबई से दूर कोल्हापुर के पास स्थित थी काफी पुरानी होने के कारण उसमे पुनःनिर्माण का कार्य प्रारम्भ होना था कंपनी की शुरुआत भी इसी फ़ैक्ट्री से हुई थी यही वजह थी की त्रिशा भी इस फ़ैक्ट्री को देखना चाहती थी जिसकी नींव उसके परदादा ने रखी थी। पुनःनिर्माण के कार्य हेतु विजय को चुना गया क्योंकि मालिक गुणवत्ता से किसी तरह का समझौता नहीं चाहते थे। उधर त्रिशा भी सड़क के रास्ते ही कोल्हापुर तक जाना चाहती थी जिससे वह रास्ते की खूबसूरती देख सके और अलग - अलग तरह के लोगो से भी मिल सके।
मालिक श्री हरगोविंद अठावले एक बहुत ही सुलझे हुए समझदार इंसान थे तथा वे विजय पर पूर्ण विश्वास करते थे इसलिए उन्होंने विजय और त्रिशा को एक साथ भेजने का फैसला किया और साथ में घरेलु नौकर भीकू और ड्राइवर हीराभाई जो की अठावले जी का विश्वास पात्र था ।
कितनी खूबसूरत है ये दुनिया हरे भरे रास्ते ऊँची ऊँची पहाड़िया यात्रा शुरू हो चुकी थी और विजय रास्ते की खूबसूरती देख कर विचार में मग्न था उसने आजतक कल्पना नहीं की थी की कभी उसकी जिंदगी में इस तरह के दिन भी आएंगे लेकिन उसे क्या पता की नसीब अभी उसे और कहा लेकर जाने वाला है। त्रिशा भी कई साल बाद पढाई से फुर्सत पाकर सफर पर निकली थी अमेरिकी जीवन शैली उसे कतई नहीं पसंद थी वो तो बस यही सोचा करती थी की कब उसे वापस अपने घर जाने को मिलेगा। खैर रास्ता वाकई बहुत खूबसूरत था। कुछ घंटो के सफर के बाद गाडी एक होटल पर रूकती है व सभी लोग चाय नाश्ता करते है होटल के बाहर गेट पर एक बुजुर्ग अत्यंत ही दीन अवस्था में पड़ा हुआ था व आने जाने वाले लोगो से भोजन हेतु भीख मांग रहा था होटल के कर्मचारियों द्वारा भगाये जाने के बाद भी वह बार - बार वापस आ जा रहा था। विजय के पास जाने पर वह कहता है की
- साहब गरीब को रोटी के लिए कुछ दे दो भगवान् आपके बाल बच्चो को दुआएं देगा
पता नहीं उस बुजुर्ग को देखकर विजय को ऐसा अहसास हुआ की उसका उससे कोई ना कोई रिश्ता जरूर है चाहे वह पिछले जन्म का ही क्यों न हो
विजय गाडी में जाता है और अपने बैग में से कुछ कपडे निकालकर उस बुजुर्ग को अपने हाथो से पहनाता हैं उसके बाद उसे लेकर होटल में जाता है और बुजुर्ग की पसंद का खाना मंगवाता है खाना आने पर वृद्ध व्यक्ति उस पर ऐसे टूट पड़ता है जैसे कई दिनों की भूख आज शांत करके रहेगा।
विजय का ह्रदय द्रवित हो उठता है और आँखे भर आती है। दूर खड़ी त्रिशा यह सब देखती है और उसके मन में विजय के लिए सम्मान की भावना आती है। वह सोचती है की उसने तो आजतक ऐसे ही लोगो को देखा है जो सीधे मुंह अपने से छोटे लोगो से बात भी नहीं करते गरीब और निर्धन लोगो की बस्तियों में नहीं जाते भिखारियों को घृणा की दृष्टि से देखते है ऐसे में विजय के अंदर उसे वो इंसानियत दिखती है जो आज के कलियुग में विलुप्त हो चली है। .. शेष क्रमश
प्रथम भाग -
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