ए मैरिज इन बिहार
दूल्हे का भाव और दूल्हे के छोटका भाई का ताव देखकर रिश्तेदारों को यह समझते देर न लगी की आज बिहारी दूल्हे और उसके भाइयो का भाव रहर के दाल की तरह बढ़ा हुआ है । खुद को हृत्विक समझने वाले दूल्हे को भले ही पूरा जवार राजपाल यादव समझता हो लेकिन मायावती सरीखी उसकी बुआ और गांव देहात के चढाकू फुफ्फा की नजर में वो कोई मिल गया वाला हृत्विक ही था । लड़के के फूफ्फा मुंहबोले धन्ना सेठ थे जिनकी पूरी जिंदाई दूसरो को नीचा और खुद को बबूल के पेड़ जितना ऊँचा दिखाने में निकल गई और फुआ , मिसरी जितनी मीठी और सेवन ओ क्लॉक ब्लेड जितनी धारदार ।
दरवाजे पर पहुँचते ही तिलक की व्यवस्था देखकर ऐसा लगा जैसे सब कुछ राम भरोसे हो , अरे राम भरोसे गांव के कैटरिंग वाले का नाम था जिस पर गांव के समृद्ध और बड़का लोग कम ही लोग भरोसा किया करते थे। किन्तु किफायती और बचतशील होने के नाते लड़के के इंजीनियर पिता ने पी डब्लू डी के टेंडर की तरह ही शादी का टेंडर 50 % डिस्काउंट के भरोसे राम भरोसे को दे दिया था । पूरे गांव की जनसँख्या को ध्यान में रखते हुए आधे लोगो की व्यवस्था की गई , भाई अब राम भरोसे की व्यवस्था थी तो इस इस पर शक कैसे किया जा सकता था। प्रत्येक स्टाल पर एक - एक मुश्तंडे को बैठा दिया गया , जो किसी भी मेहमान और गांव वाले को जाने पर एक ही जवाब देता " तिलकहरू के आने पर ही स्टाल खुलेगा " और जब तिलकहरू आ गए तब जवाब में परिवर्तन कर दिया जाता " अबहिन मालिक मना किये है " . बेचारा चाट का स्टाल छोले के वियोग में ही दुखी था उधर पूड़ियाँ भी डालडे को कब तक बर्दाश्त करती। हालाँकि कई रिश्तेदार यह बताने में असमर्थ रहे की आखिरकार स्टाल में पकवान क्या थे , कइयों की तो शंका यही थी की शायद ईंट पत्थर सजाकर रख दिए हो।
गांव वाले ठहरे भाई पटीदार वो तो बीप ... बीप की गालियां देते निकल गए परन्तु वे रिश्तेदार जो शादियों में अपने अपने साथ एक स्टेपनी लेकर चलते है वे क्या मुंह दिखाते। साथ ही समय से घर पहुँचने की मजबूरी अलग। रुकने वाले रिश्तेदारो को ऐसा लगने लगा था जैसे उन्हें किसी जेल में बंद कर दिया गया हो और खाना जेलर के आने के बाद ही मिलेगा । दूल्हे के घर वालो के भाव देखकर नारद जी को भी विश्वास हो गया था की पूरे ब्रम्हांड में दिग्विजय सिंह की शादी के बाद कोई खुश है तो यही परिवार ।
आखिरकार कई मेहमान स्टाल का मुंह देखे बगैर ही अपने - अपने घरो को लौट गए , कष्ट तो तब बढ़ा जब घरवालों ने यह कहा की " आ गए पनीर - पूड़ी चाप के " . अब बेचारे किसे बताते की कितनी पूड़ी खाकर आये है और कितनी इज्जत से मिठाई परोसी गई ।
खैर दूल्हे का तिलक शुरू होता है और जून की गर्मी से बचती - बचाती मामी , मौसी , फुआ ( बुआ ), भौजाइयां और गांव जवार की वे लड़कियाँ और औरते जिन्हे समारोह से ज्यादा चढ़ने वाले चढ़ावे की गिनती और क्वालिटी में नाक नुक्स निकालना आता है ने गीत कम गालियों की जो बौछार कि , की दूल्हे के साले और ससुर यह नहीं समझ पाए की वे तिलक चढाने आये है या फिर पूरे गांव से पटिदारी का मार करने।
गर्मी अगर कहीं पड़ रही थी तो वो जगह थी दूल्हे के भाई और पिता जी के दिमाग में। खैर रिश्तेदारों ने अपनी इज्जत खुद ही मेंटेन की और गांव वालो ने इनकी इज्जत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । हां, समारोह में मिठाई और स्टाल के आइटम अगर किसी ने देखा था तो उससे बढ़कर दुनियां में खुशनसीब कोई भी नहीं ।
मैं तो यहाँ दूर बैठा कोल्ड कॉफी और पनीर रोल के साथ शादी का आँखों देखा हाल सुन रहा था । लालू के जमाने से ही मुझे बिहार से डर लगता है ।