गंवार और होशियार
उसका गँवारपना देख कर कभी - कभी तो मन में हंसी आने लगती है। मास्टर की डिग्री के पद पीएचडी और उसके बाद कॉलेज के सहायक प्रोफ़ेसर पद पर आसीन होने तक वह गंवार ही रहा ,हालांकि अपने विषय का वो महारथी था परन्तु सांसारिक विषय में उसकी जानकारी कक्षा पांच के बच्चे जितनी भी नहीं थी ।
कॉलेज में तो उसे मात्र 5 - 6 घंटे बिताने होते थे जिसके लिए उसने पीएचडी तक कर डाली लेकिन बाकी के घंटो के लिए कोई सीख ना ले सका।
उसको लगता था की दुनिया बस यहीं तक है ,वह भूल गया था की दुनियां की शुरुआत यहाँ से है। पैसा बचाता था वो , बचाना भी चाहिए कब कैसा वक़्त आ जाए क्या पता। परन्तु जीवन की विषमताओ को बढ़ाते हुए धन बचाने का मन सिर्फ उसके ही बस की बात थी।
बोलने में भी वह कुछ कंजूस था। आस - पड़ोस से लेकर कॉलेज तक बस सबको किसी एलियन की प्रजाति समझ कर अलग ही प्रकार से देखता था। हम में अ लगाने की आदत सी पड़ गई थी उसको ।
शादी हुई बच्चे हुए परन्तु वो अपनी ही धुन में चलता रहा। बीवी दुखी होकर बच्चो के साथ मायके चली गई क्योंकि उसे जनाब की आदते नहीं पसंद थी। आदतो की शुरुआत होती थी सुबह देर से उठने से फिर नित्य क्रिया और नाश्ते के बाद कॉलेज। कॉलेज के बाद दोस्त - मित्र ना होने की वजह से वह सीधा घर चला आता था। उसका मानना था की दोस्त सिर्फ समय की बर्बादी के लिए ही होते है , ये तरक्की की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। इस कारण बीमार होने पर भी वह अकेला ही अस्पताल जाता था। शाम का वक़्त भी किताबो में ही बीतता था।परिवार के लिए वक़्त ही ना बचता उसके पास। उसे ज्ञान प्राप्त करने की बड़ी लालसा थी लेकिन इस किताबी ज्ञान का उपयोग सिर्फ कॉलेज तक ही सीमित था।
लोगो को खुद से नीचा समझने की प्रवृत्ति भी उसमे घर करने लगी थी। खुद में मगन रहने वाला वह बीवी और बच्चो के घर से जाने के बाद भोजन हेतु होटल पर निर्भर हो गया था । वह अकेला ही अपनी टेबल पर बैठकर भोजन करता और दुसरे लोगो के समूहों को को भोजन करते देखा करता था । धीरे - धीरे उसकी सेहत गिरती गई और अस्पताल तक जाना पड़ा। अस्पताल में संयोगवश उसे पोस्टमार्टम हेतु लाइ गई कुछ लाशें दिखाई पड़ी। कैसे - कैसे चीरा काटी की गई थी उन लाशो से।
ऐसे लग रहा था जैसे इंसानी शरीर ना होकर कोई कपडे से बनी कोई मूरत है जिसमे जहाँ से मन किया वहा से खोलकर सिलाई कर दी गई। उम्र तो देखो कोई पचास के आसपास होगी कैसे एक सफ़ेद कपडे में लिपटा है कोई ऐतराज नहीं है इसे, इस ठंड में लोहे की बनी स्ट्रेचर पर लेटने से ।
उधर अस्पताल के बाहर काफी भीड़ इकठ्ठा होने लगी थी , चारो तरफ विलाप की आवाजे गूंज रही थी। उसके बगल से दो वार्डबॉय आपस में बाते करते हुए जा रहे थे की कैसे दुर्घटना में मरा हुआ शख्श इस शहर का सबसे धनी व्यक्ति निरंजन दास था । कई फैक्टरियां थी उसकी , शहर में स्कूल - कॉलेज से लेकर गरीबो के लिए घर तक बनवा कर दिए थे उसने। अपने ज़माने में पढाई के लिए लन्दन तक गया था। और आज सब कुछ होने के बाद यहाँ लेटा हुआ था। कितनी महँगी क्रीम लगाता था चेहरे पर और आज टांके से पूरा चेहरा भरा हुआ है।
दो - दो गाड़ियां सुरक्षा में चलती थी फिर भी इसके प्राणो की रक्षा नहीं कर पाई। लेकिन अस्पताल के बाहर की भीड़ बता रही है की पूरा शहर इसको कितना मानता था। कितने गरीबो के घर आज चूल्हे नहीं जले कितने शहर के मजदूर आज काम करने नहीं गए। लोगो का रो - रो के बुरा हाल है। बात तो थी इस आदमी में वर्ना आजकल के अमीर तो आसमान से नीचे उतरते ही नहीं , महान था यह आदमी मरने के बाद भी लम्बे समय तक लोगो की यादो में जीवित रहेगा ।
वह आज अजीब उलझन में था, उसे समझ नहीं आ रहा था की किताबो में लिखे सूत्र और जिंदगी का यह आधारभूत सत्य दोनों में से कौन जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। उसे आज वह सब व्यर्थ लगने लगा था जो वह करता आया था। जब जीवन क्षणिक है और उसका अंत निश्चित है तब संसार में वह अपना समय कहाँ जाया कर रहा था। उसका कार्य और उसका परिवार दोनों संतुलित क्यों नहीं हो पा रहे थे। केवल कार्य करते गया तो उसे कुछ लकड़ी के पुरूस्कार जरूर मिलेंगे लेकिन उन्हें लेने के बाद फिर अगले पुरूस्कार हेतु प्रयत्न जारी हो जाएगा और यह क्रम निरंतर चलता रहेगा।
लेकिन परिवार और व्यवहार कदम - कदम पर उसके साथ खड़े रहेंगे। जीवन ईश्वर प्रदत्त प्रकृति हेतु ही है , इसको सम्पूर्णता के साथ जीने में ही इसका सार है। पता नहीं आज उसे कैसी बेचैनी थी ,क्या सत्य उसने जान लिया था जो उसके कदम अपने परिवार को घर वापिस लाने हेतु बढे जा रहे थे। शायद अब वह गंवार नहीं रहा।
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Nice post
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