करतार सिंह सराभा
15 अगस्त 1947 की वह सुबह पूरे भारतवासियों के लिए न केवल आजादी के खूबसूरत एहसास से भरी थी, बल्कि दिलों में एक कसक लिए हुए भी थी, जो था तमाम अपनों को इस लड़ाई में खोने का गम। देश पर दी गई लाखों कुर्बानियों के उस लक्ष्य को पूरा होते देखने की खुशी में नम हुई आंखें यह समझ ही नहीं पा रही थीं कि यह आजादी हमने ना जाने ही कितने अपनों की शहादत के बाद पाई है। सालों से चली आ रही इस जंग में न जाने कितने ही भारत मां के लाल शहीद हुए, तो कितनों ने अपनी जवानी देश के नाम कुर्बान कर दी। कई नाम तो ऐसे हैं जिनकी शहादत के किस्से ही हम नहीं जान पाए, वे गुमनाम नाम आज भी अपनी पहचान के मोहताज हैं. लेकिन आज हम आजादी के दीवाने की एक ऐसी ही कहानी आप से कहने जा रहे हैं जिसने केवल 19 साल की उम्र में उस मौत कोे हंसते हुए गले लगा लिया था, जिसका नाम सुनकर अच्छे अच्छों की रूह कांप जाती है।
नाम था करतार सिंह सराभा, उम्र थी 17 साल मात्र जब वे आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे। आजादी के इस नायक का जन्म 24 मई 1896 को पंजाब के लुधियाना जिले के सराभा गाँव में हुआ था। करतार सिंह की माता का नाम साहिब कौर और पिता का नाम मंगल सिंह था। दुखों का पहाड़ तो इन पर तभी टूट पड़ी था जब बहुत ही कम उम्र में पिता का साया इनके सिर से उठ गया। ऐसे में उनकी परवरिश उनके दादा बदन सिंह ग्रेवाल ने की। बहुत जल्द उनके दादा को समझ में आ गया कि ये वो तोप का गोला है, जो पूरी अंग्रेजी हुकूमत को तहस-नहस कर सकता है। अपने शहर लुधियाना में आठवीं कक्षा तक पढ़ाई पूरी करने के बाद करतार अपने चाचा के यहां उड़ीसा चले गए। लेकिन कहानी में मोड़ तो तब आता है जब उन्हें आगे की शिक्षा के लिए 1912 में बर्कले के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय भेजा जाता है। हालांकि वहां पर उनके दाखिले को लेकर कुछ मतभेद मिलते हैं। लेकिन यही वह जगह थी जहां उनके मन में भारत मां की आजादी का बीज अब पनपने लगा था।
कहते हैं कि यहां उन्होंने एक मिल मजदूर के रूप में भी काम किया था। यह वह दौर था जब विदेशों में भी कई जगह भारतवंशियों के साथ जुल्म किए जा रहे थे। संयुक्त राज्य अमेरिका में भी भारतीय मजदूरों के पर अत्याचार अब बढ़ता ही जा रहा था। करतार अपनी आंखों के सामने भारतीय श्रमिकों के साथ हो रहे इस अन्याय को देख न सके और उनके लिए पूरे जोर शोर से आवाज उठाने लगे।
साल था 1913 की और 15 जुलाई की वह ऐतिहासिक तारीख थी जब भारत की आजादी का सपना आंखों में लिए विदेशी धरती पर लाला हरदयाल, संत बाबा वासाखा सिंह दादेहर, बाबा ज्वाला सिंह, सोहन सिंह भकना और संतोख सिंह ने अमेरिका के कैलिफोर्निया में गदर पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी का मुख्यालय सैन फ्रांसिस्को में बनाया गया। अंग्रेजों की गुलामी से हिंदुस्तान को आजाद करने के लिए इस संगठन के लोग अब एक कदम आगे बढ़ते हुए हथियार उठाने को तैयार हो गए। ऐसे में करतार सिंह सराभा भी कहां चुप बैठने वाले थे, भारतीयों पर हो रहे जुल्म ने इस युवा को झकझोर कर रख दिया था। वे भी गदर पार्टी के सक्रिय सदस्य बन आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। गदर पार्टी के सह-संस्थापक सोहन सिंह भकना ने अमेरिका जाने से पहले भारत में भी अंग्रेजों के छक्के छुड़ा रखे थे, उनकी इस वीरता ने अमेरिका में रहने वाले सिखों के लिए देशभक्ति की अलख जगाने का कार्य किया।
करतार सिंह सराभा की मुलाकात भी सोहन सिंह भकना से हुई। हालांकि, दोनों की उम्र में एक बड़ा फासला था लेकिन, करतार के उपर उनके विचारों का काफी प्रभाव पड़ा। गदर पार्टी ने लोगों के बीच अपनी आवाज पहुंचाने और उन्हें जागरूक करने के लिए 1 नवंबर 1913 को ‘द गदर’ नाम से अपना अखबार कई भाषाओं में निकालना शुरू कर दिया। जल्द ही पंजाबी के अलावा हिंदी, उर्दू, बंगाली, गुजराती और पश्तो भाषाओं में इसका प्रकाशन होना शुरू हो गया। अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को से निकाले जा रहे इस अखबार के पहले अंक में ही करतार सिंह ने अपने इरादे जता दिए थे।
अखबार ने जहां मास्टहेड पर कैप्शन दिया: अंग्रेजी राज का दुश्मन, वहीं करतार सिंह सराभा ने पहले अंक में लिखा:
"आज विदेशी धरती पर 'ग़दर' शुरू हो रहा है, लेकिन हमारे देश की भाषा में ब्रिटिश राज के खिलाफ़ युद्ध शुरू हो रहा है। हमारा नाम क्या है? ग़दर।
हमारा काम क्या है? ग़दर।
क्रांति कहां होगी? भारत में।
वह समय जल्द ही आएगा जब राइफलें और खून कलम और स्याही की जगह ले लेंगे।" जल्द ही करतार सिंह के तत्वावधान में अखबार का गुरुमुखी संस्करण भी छपने लगा। अखबार में उनके लिखे देशभक्तिपूर्ण लेख और कविताएँ किसी बम गोले से कम नहीं थीं।
उस दौर में इस तरह की बातें करना किसी दिलेरी से कम नहीं थीं। क्योंकि पकड़े जाने पर कठोर सजा दी जाती थी। वहीं करतार सिंह ने अब इससे आगे बढ़ते हुए अपनी लड़ाई को धार देने के लिए हथियारों की ट्रेनिंग भी लेनी शुरू कर दी। इसके अलावा उन्होंने बम बनाना और हवाई जहाज उड़ाना भी जल्द ही सीख लिया। इतनी कम उम्र में जब आज के किशोर अपनी कॉलेज लाइफ से अलग हटकर नहीं सोच पाते वहीं करतार सिंह ने वो काम करने शुरू कर दिए थे, जिन्हें बड़े-बड़े भी सपने में करने की हिम्मत उस दौर में नहीं रखते थे।
भारात में अंग्रेजों के अत्याचार देखते हुए जल्द ही गदर पार्टी ने आजादी की जंग भारत में शुरू करने की योजना बनाई और 1914 में अमेरिका छोड़ ज्यादातर सदस्य भारत चले आये। एक बार फिर अपनी बात अखबार के जरिए जन-जन तक पहुंचाने के लिए उसकी हजारों प्रतियां शहर से लेकर गांव तक बांटी गई। इसी दौरान करतार सिंह की मुलाकात रासबिहारी बोस से भी हुई। भारत आते ही करतार ने अपनी टीम बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ छोटी-छोटी लड़ाईंयां शुरु कर दीं।
वहीं 25 जनवरी 1915 को हुई पार्टी की एक बैठक में बड़ी जंग का ऐलान किया गया। इस जंग का केंद्र था अमृतसर औऱ तारीख थी 21 फरवरी की. लेकिन पार्टी के ही कुछ गद्दारों के चलते अंग्रेजी हुकूमत को इस योजना भनक लग गई और करतार सिंह समेत कई स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार कर लिया गया, जो इस संग्राम में शामिल होने के लिए अपनी कमर कस चुके थे।
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अंग्रेजों की अदालत ने ग़दर पार्टी के 291 स्वतंत्रता सेनानियों को दोषी ठहराते हुए उनमें से 42 को फाँसी की सजा दी और 114 को आजीवन कारावास की। वहीं बाकि बचे हुए 93 लोगों को अलग-अलग अवधि की कैद की सजा मिली और 42 को इस मुकदमें से आजाद कर दिया गया।
वहीं करतार सिंह सराभा ने तो अदालत में देशद्रोह के तमाम आरोपों को स्वीकार करते हुए सारा दोष ही अपने ऊपर ले लिया, जबकि उनकी कम उम्र और भोले भाले चेहरे को देखकर जज भी उन्हें फांसी की सजा नहीं देना चाहता था। लेकिन कहते हैं न कि रगो में जब देशभक्ति का खून बहने लगता है तो वतन के लिए फांसी का फंदा भी फूलों का हार लगने लगता है। 16 नवंबर 1915 को देश का यह देश का यह लाल केवल 19 वर्ष की आयु में लाहौर की सेंट्रल जेल में फाँसी के फंदे को गले लगा सदा के लिए अमर हो गया।
कहते हैं कि फांसी के फंदे को चूमने से पहले करतार सिंह सराभा ने ये देशभक्ति कविता भी गाई थी...
सेवा देश दी जिन्दारिये बड़ी औखी
गल्लां करनिया ढेर सोखलियां ने
जिह्ने देश दी सेवा 'च प्रति पाया
ओहना लाख मुसिबतां झल्लियां ने
इसे हिंदी में समझें तो...
अपने देश की सेवा करना बहुत कठिन है
बात करना बहुत आसान है
जो भी उस पथ पर चला
लाखों विपत्तियाँ सहन करनी होंगी।
वाकई उन्होंने न केवल लाखों विपत्तियां सहन की बल्कि एक उम्र देश के नाम न्यौैछावर कर दी।