करतार सिंह सराभा एक भूला हुआ नायक

 करतार सिंह सराभा



15 अगस्त 1947 की वह सुबह पूरे भारतवासियों के लिए न केवल आजादी के खूबसूरत एहसास से भरी थी, बल्कि दिलों में एक कसक लिए हुए भी थी, जो था तमाम अपनों को इस लड़ाई में खोने का गम। देश पर दी गई लाखों कुर्बानियों के उस लक्ष्य को पूरा होते देखने की खुशी में नम हुई आंखें यह समझ ही नहीं पा रही थीं कि यह आजादी हमने ना जाने ही कितने अपनों की शहादत के बाद पाई है। सालों से चली आ रही इस जंग में न जाने कितने ही भारत मां के लाल शहीद हुए, तो कितनों ने अपनी जवानी देश के नाम कुर्बान कर दी। कई नाम तो ऐसे हैं जिनकी शहादत के किस्से ही हम नहीं जान पाए, वे गुमनाम नाम आज भी अपनी पहचान के मोहताज हैं. लेकिन आज हम आजादी के दीवाने की एक ऐसी ही कहानी आप से कहने जा रहे हैं जिसने केवल 19 साल की उम्र में उस मौत कोे हंसते हुए गले लगा लिया था, जिसका नाम सुनकर अच्छे अच्छों की रूह कांप जाती है।

नाम था करतार सिंह सराभा, उम्र थी 17 साल मात्र जब वे आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे। आजादी के इस नायक का जन्म 24 मई 1896 को पंजाब के लुधियाना जिले के सराभा गाँव में हुआ था। करतार सिंह की माता का नाम साहिब कौर और पिता का नाम मंगल सिंह था। दुखों का पहाड़ तो इन पर तभी टूट पड़ी था जब बहुत ही कम उम्र में पिता का साया इनके सिर से उठ गया। ऐसे में उनकी परवरिश उनके दादा बदन सिंह ग्रेवाल ने की। बहुत जल्द उनके दादा को समझ में आ गया कि ये वो तोप का गोला है, जो पूरी अंग्रेजी हुकूमत को तहस-नहस कर सकता है। अपने शहर लुधियाना में आठवीं कक्षा तक पढ़ाई पूरी करने के बाद करतार अपने चाचा के यहां उड़ीसा चले गए। लेकिन कहानी में मोड़ तो तब आता है जब उन्हें आगे की शिक्षा के लिए 1912 में बर्कले के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय भेजा जाता है। हालांकि वहां पर उनके दाखिले को लेकर कुछ मतभेद मिलते हैं। लेकिन यही वह जगह थी जहां उनके मन में भारत मां की आजादी का बीज अब पनपने लगा था।

कहते हैं कि यहां उन्होंने एक मिल मजदूर के रूप में भी काम किया था। यह वह दौर था जब विदेशों में भी कई जगह भारतवंशियों के साथ जुल्म किए जा रहे थे। संयुक्त राज्य अमेरिका में भी भारतीय मजदूरों के पर अत्याचार अब बढ़ता ही जा रहा था। करतार अपनी आंखों के सामने भारतीय श्रमिकों के साथ हो रहे इस अन्याय को देख न सके और उनके लिए पूरे जोर शोर से आवाज उठाने लगे।

साल था 1913 की और 15 जुलाई की वह ऐतिहासिक तारीख थी जब भारत की आजादी का सपना आंखों में लिए विदेशी धरती पर  लाला हरदयाल, संत बाबा वासाखा सिंह दादेहर, बाबा ज्वाला सिंह, सोहन सिंह भकना और संतोख सिंह ने अमेरिका के कैलिफोर्निया में गदर पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी का मुख्यालय सैन फ्रांसिस्को में बनाया गया। अंग्रेजों की गुलामी से हिंदुस्तान को आजाद करने के लिए इस संगठन के लोग अब एक कदम आगे बढ़ते हुए हथियार उठाने को तैयार हो गए। ऐसे में करतार सिंह सराभा भी कहां चुप बैठने वाले थे, भारतीयों पर हो रहे जुल्म ने इस युवा को झकझोर कर रख दिया था। वे भी गदर पार्टी के सक्रिय सदस्य बन आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। गदर पार्टी के सह-संस्थापक सोहन सिंह भकना ने अमेरिका जाने से पहले  भारत में भी अंग्रेजों के छक्के छुड़ा रखे थे, उनकी इस वीरता ने अमेरिका में रहने वाले सिखों के लिए देशभक्ति की अलख जगाने का कार्य किया।


करतार सिंह सराभा की मुलाकात भी सोहन सिंह भकना से हुई। हालांकि, दोनों की उम्र में एक बड़ा फासला था लेकिन, करतार के उपर उनके विचारों का काफी प्रभाव पड़ा। गदर पार्टी ने लोगों के बीच अपनी आवाज पहुंचाने और उन्हें जागरूक करने के लिए 1 नवंबर 1913 को ‘द गदर’ नाम से अपना अखबार कई भाषाओं में निकालना शुरू कर दिया। जल्द ही पंजाबी के अलावा हिंदी, उर्दू, बंगाली, गुजराती और पश्तो भाषाओं में इसका प्रकाशन होना शुरू हो गया। अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को से निकाले जा रहे इस अखबार के पहले अंक में ही करतार सिंह ने अपने इरादे जता दिए थे।

अखबार ने जहां मास्टहेड पर कैप्शन दिया: अंग्रेजी राज का दुश्मन, वहीं करतार सिंह सराभा ने पहले अंक में लिखा:

"आज विदेशी धरती पर 'ग़दर' शुरू हो रहा है, लेकिन हमारे देश की भाषा में ब्रिटिश राज के खिलाफ़ युद्ध शुरू हो रहा है। हमारा नाम क्या है? ग़दर।
हमारा काम क्या है? ग़दर।
क्रांति कहां होगी? भारत में।
वह समय जल्द ही आएगा जब राइफलें और खून कलम और स्याही की जगह ले लेंगे।" जल्द ही करतार सिंह के तत्वावधान में अखबार का गुरुमुखी संस्करण भी छपने लगा। अखबार में उनके लिखे देशभक्तिपूर्ण लेख और कविताएँ किसी बम गोले से कम नहीं थीं।

उस दौर में इस तरह की बातें करना किसी दिलेरी से कम नहीं थीं। क्योंकि पकड़े जाने पर कठोर सजा दी जाती थी। वहीं करतार सिंह ने अब इससे आगे बढ़ते हुए अपनी लड़ाई को धार देने के लिए हथियारों की ट्रेनिंग भी लेनी शुरू कर दी। इसके अलावा उन्होंने बम बनाना और हवाई जहाज उड़ाना भी जल्द ही सीख लिया। इतनी कम उम्र में जब आज के किशोर अपनी कॉलेज लाइफ से अलग हटकर नहीं सोच पाते वहीं करतार सिंह ने वो काम करने शुरू कर दिए थे, जिन्हें बड़े-बड़े भी सपने में करने की हिम्मत उस दौर में नहीं रखते थे।

भारात में अंग्रेजों के अत्याचार देखते हुए जल्द ही गदर पार्टी ने आजादी की जंग भारत में शुरू करने की योजना बनाई और 1914 में अमेरिका छोड़ ज्यादातर सदस्य भारत चले आये। एक बार फिर अपनी बात अखबार के जरिए जन-जन तक पहुंचाने के लिए उसकी हजारों प्रतियां शहर से लेकर गांव तक बांटी गई। इसी दौरान करतार सिंह की मुलाकात रासबिहारी बोस से भी हुई। भारत आते ही करतार ने अपनी टीम बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ छोटी-छोटी लड़ाईंयां शुरु कर दीं।

वहीं 25 जनवरी 1915 को हुई पार्टी की एक बैठक में बड़ी जंग का ऐलान किया गया। इस जंग का केंद्र था अमृतसर औऱ तारीख थी 21 फरवरी की. लेकिन पार्टी के ही कुछ गद्दारों के चलते अंग्रेजी हुकूमत को इस योजना भनक लग गई और करतार सिंह समेत कई स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार कर लिया गया, जो इस संग्राम में शामिल होने के लिए अपनी कमर कस चुके थे।
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अंग्रेजों की अदालत ने ग़दर पार्टी के 291 स्वतंत्रता सेनानियों को दोषी ठहराते हुए उनमें से 42 को फाँसी की सजा दी और 114 को आजीवन कारावास की। वहीं बाकि बचे हुए 93 लोगों को अलग-अलग अवधि की कैद की सजा मिली और 42 को इस मुकदमें से आजाद कर दिया गया।

वहीं करतार सिंह सराभा ने तो अदालत में देशद्रोह के तमाम आरोपों को स्वीकार करते हुए सारा दोष ही अपने ऊपर ले लिया, जबकि उनकी कम उम्र और भोले भाले चेहरे को देखकर जज भी उन्हें फांसी की सजा नहीं देना चाहता था। लेकिन कहते हैं न कि रगो में जब देशभक्ति का खून बहने लगता है तो वतन के लिए फांसी का फंदा भी फूलों का हार लगने लगता है। 16 नवंबर 1915 को देश का यह देश का यह लाल केवल 19 वर्ष की आयु में लाहौर की सेंट्रल जेल में फाँसी के फंदे को गले लगा सदा के लिए अमर हो गया।
 
कहते हैं कि फांसी के फंदे को चूमने से पहले करतार सिंह सराभा ने ये देशभक्ति कविता भी गाई थी...

सेवा देश दी जिन्दारिये बड़ी औखी
गल्लां करनिया ढेर सोखलियां ने
जिह्ने देश दी सेवा 'च प्रति पाया
ओहना लाख मुसिबतां झल्लियां ने

इसे हिंदी में समझें तो...

अपने देश की सेवा करना बहुत कठिन है
बात करना बहुत आसान है
जो भी उस पथ पर चला
लाखों विपत्तियाँ सहन करनी होंगी।

वाकई उन्होंने न केवल लाखों विपत्तियां सहन की बल्कि एक उम्र देश के नाम न्यौैछावर कर दी।

जब पोते ने राम बोला, क्या आदिपुरुष के मेकर्स समझेंगे यह

घर के मंदिर में भगवान श्रीराम की भक्ति भाव से भरे दादा जी ने श्री रामचरितमानस खोलते हुए अपने ७ साल के पोते से पूछा, '' पोते, बताओ तो तुलसी दास जी के बचपन का नाम क्या था ?''

नित प्रतिदिन दादा जी के आस-पास प्रसाद में चढ़ने वाले किस्म-किस्म के भोग की लालसा में मंडरा रहे पोते ने खुद श्री रामचरितमानस भले ही न पढ़ी हो, लेकिन बुक स्टैंड पर रखी श्री रामचरितमानस के रचयिता के विषय और इस दुनिया के सबसे लोकप्रिय और सदियों से करोड़ों लोगों की आस्था को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करती इस महाकाव्य को लिखने के पीछे उन्हें मिली प्रेरणा की कहानी अक्सर ही वह अपने दादा के मुख से सुनता आया था।
उसकी बाल स्मृति में हर साल दशहरे पर भगवान श्रीराम के एक धनुष से विशालकाय रावण के पुतले का किसी शानदार आतिशबाजी में तब्दील हो जाना था तो उसे घर के बड़े-बुजुर्गों द्वारा दीपावली पर घर-मुहल्ले का दीपों और लड़ियों से रोशन होने के पीछे की वजह भी पता थी।

आखिर पोते ने बता ही डाला

''रामबोला, यही नाम था न दादा जी उनका, क्योंकि उन्होंने पैदा होते ही भगवान श्रीराम का नाम लिया था,'' अपने 75 साल के दादा जी की तरफ विजयी भाव से पोते ने जब जवाब दिया तो दादा भी यह सोचकर मुस्कुरा बैठे कि जिस लोक व्यवहार और आस्था के बीज का अंकुरण उनके दादा जी करके गए थे आज उसके लिए उन्होंने भी नई जमीन तैयार कर ली है. वे भी एक ऐसी विरासत अपनी आने वाली पीढ़ी को देकर जाएंगे जो उसके जीवन के तमाम उतार चढ़ाव में उसका सहारा बनेगी।

रामानंद सागर के राम 


छोटे पर्दे पर रामानंद सागर कृत रामायण ने सदियों से चली आ रही उसी आस्था को सदृश्य रूप से उतारा था. उसके एक-एक किरदार को लोग सच मान बैठे थे. अभिनय करने वाले खुद राम रस में ऐसे डूबे की किसी ने आजीवन शाकाहार अपना लिया तो कोई आध्यात्म जगत में पूरी तरह उतर आया. जिसने भी श्री रामचरितमानस पढ़ी थी उन्होंने रामायण सीरियल में पूर्ण रूप से उसे सजीव होते देखा। धारावाहिक के प्रसारण काल में बिजली विभाग की हिम्मत नहीं होती की वह चंद सेकेंड के लिए भी विद्युत की कटौती कर सके. प्रसारण काल में जहाँ सड़कों पर सन्नाटा छा जाता तो मुहल्ले में किसी एक घर में टेलीविजन होने पर किसी सिनेमाहाल सा अहसास होता। उस वक्त की जीवटता केवल उस दौर के लोग ही समझ सकते हैं. बाकी भगवान् श्रीराम तो छोड़िये मात्र रामानंद कृत धारावाहिक 'रामायण' की आस्था से जुड़े इतने रोचक प्रसंग हैं की उनपर कई किताबें लिखी जा सकती हैं.

वहीं आज आदिपुरुष जैसी फिल्म के निर्माण के पीछे नई पीढ़ी को किस दिशा में ले जाने की कोशिश की जा रही थी वह समझ से परे है. लेखक, निर्माता और निर्देशक भले ही फिल्म निर्माण में नई तकनीक का उपयोग कर लें, लेकिन आस्था के साथ किसी भी तरह के प्रयोग से दूर रहें, वर्ना बाद में उनकी लंका लगना तय है.

Corona majdur aur jindagi


कोरोना , मजदूर और जिंदगी





घर पर  रहते हुए भी सुकून का ना होना मजदूरो और कामगारो के लिए कोई नया नहीं है लेकिन कोरोना से बचने के चक्कर में पापी  पेट की वह चिंता जिससे पूरा परिवार प्रभावित हो ऐसा कोई उपाय या कोरोना की रोकथाम के निश्चित समय के ना होने से यह चिंता जब चिता की ओर बढ़ने लगती है तब बेबसी और लाचारी भरे दृश्यों की कल्पना ही ऐसे तबके को मजबूरी की नई परिभाषा गढ़ने पर मजबूर कर देती है |
 
कम शिक्षित और मज़बूरी में घर छोड़ने वाला यह वर्ग नए शहरो में जब दो जून की रोटी की तलाश में जाता है तो  परिवार की ख़ुशी के लिए कठोर और काँटेदार मजदूरी की चादर ओढ़ लेता है भले ही उसमे उसका दम घुटे या फिर उसकी आदत में शुमार हो जाए , वह उस चादर को नहीं छोड़ता कम पगार निर्वासित जीवन छोटी सी कोठरी फैक्ट्रियों से निकलता दमघोंटू  धुंआ मालिकों और सुपरवाइजरों की फटकार यह सब उसे अपने परिवार की बेबसी और लाचारी के आगे बौने लगने लगते है छोटी सी पगार  में बड़ा दिल रखने वाला यह वर्ग उसी वेतन के लिए पूरे जतन और ईमानदारी से काम करता है, जो उसकी मेहनत का पूरा मूल्य भी नहीं चुका पाती |
 
लॉकडाउन की शुरुआत में जहाँ पूरा देश बंद हो चुका था ये मेहनतकश गरीब एक – एक दिवस और पास पड़ी हुई एक - एक कर जुटाई गई पूंजी दोनों को जाते हुए देख रहे थे आखिर में लॉकडाउन दिन जब बढ़ने लगे और जमा - पूंजी जब ख़त्म होने लगी तो इनके सब्र और माली हालत दोनों ने इन्हे बंद कोठरियों से अपने – अपने घरो की ओर निकलने को मजबूर कर दिया कोरोना तो तब  मारता जब पेट इन्हे जिंदा रहने देता अजीब कश्मकश थी जिंदगी की ना कोई समझने वाला और नाही कोई इनके दर्द को कोई बांटने  वाला  रोजगार छीन चुके थे सबकी हालत एक जैसी हो चुकी थी मदद मिले या ना मिले कम से कम अपने घरौंदों तक  पहुँचने पर अपनों को खोजती हुई निगाहें तो थी वह लोग तो थे जो तकलीफ को समझकर मदद करते वह झोपड़ी तो थी जो किराया ना मांगती वह भाई  - बहन और सगे सम्बन्धियों की दिलासा देती बातें तो थी जो दर्द पर मरहम लगाती |
 
पटरियों पर ट्रेन न थी बसे बंद थी सड़को पर पहरा था जेबे खाली थी , पर हौसला जरूर था जो जानती थी की परिस्थितियां चाहे जितनी भी खराब क्यों ना हो सुकून के कुछ छण उन्हें अपनों के बीच ही मिलेंगे | फिर क्या था निकल लिए अपने कदमो के भरोसे उसी माटी की ओर जिसमे उनका बचपन बीता था , जो नंगे पैर भी मखमल सी मुलायम लगती , जिसमे लेटकर उसकी पवित्रता का एहसास होता | कोई साधन न था, हजारो मील की दूरी भी थी , बस दिलासा जरूर था की वहाँ पहुँच गए तो आपदा चाहे कैसी भी क्यों न हो लड़ने को हौंसला जरूर मिलेगा | सर पर गठरी रखे ,टूटी फूटी चप्पलें पहने लोगो के हुजूम अपने परिवारों समेत  सड़को पर निकलने लगे | कोई साइकिल पर , तो कोई रिक्शा चलाते हुए , तो कोई पैदल ही अपने – अपने घरो की ओर निकल पड़ा | सड़को पर तैनात पहरेदारों की फौज ने पहले तो कुछ को रोकने की कोशिश जरूर की , परंतु बढ़ती भीड़ और मजबूरी को समझते हुए ज्यादा देर रोक नहीं पाये | कुछ स्वयं सेवी संस्थाओ और राज्य सरकारो ने मदद भी की परंतु भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश के इस विशाल वर्ग के लिए यह मदद ऊंट के मुंह मे वह जीरा के समान थी | किसी की चप्पलें टूट गई , तो कइयो के पैरो मे छाले पड़ गए , कुछ बीच रास्ते से ही दुनिया छोड़ गए लेकिन अधिकांश अपनी मंजिल तक पहुँचने मे कामयाब रहे |
घरो पर पहुँच कर तसल्ली तो मिली पर बढ़ते लॉकडाउन और खत्म होते संसाधनो ने इस वर्ग के माथे पर चिंता की लकीरे बढ़ा दी | सवाल ये भी था की अगर घर पर दो जून की रोटी का इंतजाम हो जाता तो ये घर छोड़ते ही क्यों ? फिर भी कुछ ने सब्जी बेचने से लेकर अन्य कामो मे हाथ आजमाया भी , परंतु ऐसा सिर्फ कुछ ही कर पाये | पेट और परिवार ने उन्हे कोरोना के इतर फिर से शहरो की ओर देखने को मजबूर कर दिया | परंतु बाजार की घटती क्रय क्षमता और कंपनियो की नाजुक होती हालत मे केवल कुछ ही कंपनियो ने दोबारा अपनी फ़ैक्टरियों को खोलना शुरू किया |
 
सरकार द्वारा कोरोना को देखकर बनाए गए नए नियमो और कम संख्या मे उपलब्ध रोजगार ने मजदूरो की दुर्दशा को और बढ़ाने का काम किया | छोटे शहरो मे कोरोना तो कब का खत्म हो चुका था बस रोना बाकी था |  बेरोजगारो की नई फौज मे कई और, कोरोना की जंग मे हार चुके सिपाही आ चुके थे | परंतु उनके घर की हालत भी धीरे – धीरे खस्ताहाल होने लगी थी और कोरोना से ज्यादा विकराल  रूप भूख ने ले लिया था इसलिए कोरोना को एक नियमित बीमारी की श्रेणी मे डालते हुए श्रमिकों के झोले फिर से अपनी – अपनी कर्मस्थली के लिए तैयार हो चुके थे और कोरोना कहीं पीछे अमीरों के लिए छूट गया था | आज छोटे शहरो मे कोरोना ना बाजारो मे दिखता है ना आपसी मेल – मिलाप मे | कोरोना तो सिर्फ राजनीति और अमीरों के लिए रह गया है बाकियों के लिए पेट की आग से बढ़कर कोई महामारी नहीं |
 
 

Issq ki dahlij

 इश्क की दहलीज





भाषा नैनो की जिनको आती है

बिन चीनी की , चाय भी उन्हें भाती है 


मिलते हैं ऐसे हर गलियों में 

जैसे भंवरे हैं हर कलियों में 


कुछ सीधे से दिखते कुछ सादे हैं 

अपनी मां के वे शहजादे हैं 


इश्क की एबीसीडी जो पढ़ने जाते हैं 

पकड़े डैडी तो , चाय की अदरक बन जाते हैं 


पूछे हैं प्रभु , मंदिरों में दर्शन किसके पाते हो 

सामने हमें छोड़, बगल में देख मुस्काते हो 


जो लाए थे फूल गुलाब का ,हमारे लिए 

सच-सच बताना अर्पित किस , देवी को किए 


मिटा देते हैं जो, प्यार के हर सबूतों को 

देख पापा के, बाटा वाले जूतो को 


ऐसे अजूबे ही , कटी पतंगों के लुटेरे है 

बाहर से सरल ,अंदर से छुछेरे हैं 


बड़ी रोचक सी इनकी  कहानी है 

बस यहीं से शुरू , इनकी जवानी है

आजकल




आजकल 

मैं अर्नब द्वारा की जाने वाली पत्रकारिता  से पूर्ण रूप से सहमत नहीं रहता हूँ  , लेकिन कांग्रेस की दमनकारी नीती देखकर कहीं ना कहीं  यह समझते देर नहीं लगती की अर्नब का पैर ऐसी जगह पड़ चुका है जहाँ से  शिवसेना और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों की कमजोर नस दर्द से  तड़फड़ा उठती है | कांग्रेस जहाँ  अपने खिलाफ उठने वाली आवाज को दबाना अच्छे से जानती है वही शिवसेना का अहम् सबसे बढ़कर है  |  

सीबीआई अभी तक सुशांत केस को लेकर किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाई है या फिर  उसे पहुँचने नहीं दिया जा रहा है  | ड्रग का एंगल ख़तम हो चुका  है | अब कुछ नहीं बचा सिर्फ आत्महत्या या फिर हत्या की गुत्थी सुलझाने के अतिरिक्त | 

उद्धव गलती पे गलती किये जा रहे है और भाजपा महाराष्ट्र में बढ़त ही बढ़त लिए जा रही है | अच्छी राजनीति की जा रही है भाजपा द्वारा ,सिर्फ अर्नब और कंगना के द्वारा ही महाराष्ट्र के समूचे विपक्ष  को  चने के झाड़ पर चढ़ा कर वहां कमल खिलाने के लिए गड्ढा खोदा जा रहा है जिसमे पूरी झाड़ का डूबना निश्चित है | 

समाचार चैनल अपना - अपना हित देखते हुए आम जनता को छोड़ टीआरपी की लड़ाई लड़ रहे है , इन सब को छोड़कर यह देखना दिलचस्प होगा की बिहार में सुशासन बाबू  का क्या होगा | बिना वारिस के राजनीति छोड़ना भी अच्छा नहीं लगेगा और कमजोर होती जेडीयू तथा क्षीण होते  स्वास्थ्य के भरोसे राजनीती करना भी मुश्किल होगा | भाजपा मगन है तो तेजस्वी दस लाख  के भरोसे निश्चिंत है | सुशील मोदी को आजीवन बिहार का उपमुख्यमंत्री घोषित किया जा चुका है हालांकि आपत्ति सबको है | वहीँ चिराग से लेकर कुशवाहा तक रात - रात भर जाग कर सपने देख रहे है तो पांडे जी केवल नाम के दबंग निकले ।




 

Dear diary

 डियर डायरी 


जब आप प्रेम मे होते है तो आप स्वयं मे नहीं होते बल्कि एक अद्भुत एहसास की घनी और कोमल चादरों की परतो से लिपटे होते है , जिसको शब्दो मे उतारना संभव नहीं  | यह एक ऐसा एहसास है जिसके चरम की स्पष्ट व्याख्या देने मे बड़े से बड़े प्रेमी भी बगले झाँकने लगे | ऐसे मे मात्र इसकी अनुभूति ही निराकार प्रेम को अप्रत्यक्ष रूप से प्रकट करती है |





 

प्रेम मे खो जाना और प्रेम मे हो जाना ठीक वैसा ही है जैसे अथाह गहरे सागर मे मूकदर्शक बनकर स्वयं को डूबते हुए देखना | हालांकि प्रेम रूपी समंदर दुनियाँ का इकलौता ऐसा समंदर है जहां हमे पता चलता है की इसका असली मजा तो डूबने मे ही है जिसके बाद हम स्वतः तैरना सीख जाते है | ये अलग बात है की दूसरों को इस समंदर मे तैरना सीखाने का दावा करने वाले ना जाने कितने लोग गुमनाम हो गए |

 

 

प्रेम मे अक्सर ही हम साथ जीने मरने की कसमें खाते है , कई सारे ख्वाब , वादों के बगीचे मे सींचे जाते है , यहाँ तक की प्रेम मे डूबी भावनाओं की छाप को भी हम .......... प्रेम की दीवारों और प्रेम के पन्नो पर छोड़ जाते है | ऐसी ही एक भावना को प्रेम की स्याही भरकर , चाहत की कलम से डायरी के पन्ने पर लिखा था उसने , जो वर्तमान में अतीत को जिंदा रखे हुए थी ।


बेहद ही खूबसूरती के साथ , कला और वाणी के अद्भुत मेल से  बनी, लैंप पोस्ट की यह अनूठी रचना , दर्शकों के हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ जाती है ।



आखिर क्या थी वह भावना ? क्या लिखा था उस डायरी पर ?  और कैसी है यह कहानी ?

 ना केवल जानने के लिए बल्कि प्रेम में होने के लिए यह वीडियो अंत तक जरूर देखें ।




Purane bargad

पुराने बरगद​





मन की बेचैनी को शांत करने के लिए आज सुबह से ही एक शांत चित्त वाले श्रोता की तलाश जारी थी । विषाक्त और उद्देलित रक्त वाले नव युवकों से यह अपेक्षा पूरी ना होती तथा कसौटी जिंदगी वाली गृहणीयां कसौटी पर खरी ना उतरती , इसलिए हमारा सारा ध्यान जिंदगी भर टायर की तरह भार वहन कर , "पीपी और पोंपों " कि शोर युक्त आवाज सुनने वाले उस धीर पुरुष पर लगा था जिसकी चमक घिसने और रिटायर होने के बाद भी बरकरार थी ।

इंग्लिश भी साहब बड़ी अजीब भाषा है , ओपन के आगे रि जुड़ जाए तो रिओपन , न्यू के आगे जुड़ जाए तो रिन्यू और यदि टायर के आगे जुड़ जाए तो रिटायर का अर्थ ही बदल जाता है । बाकी दोनों में तो नई शुरुआत होती है लेकिन यहां टायर की नई शुरुआत ना होकर आदमी के  काम की ही छुट्टी हो जाती है ।

आसपास नजर दौड़ाने पर ऐसे बहुत से टायर माफ कीजिएगा रिटायर सज्जन पुरुष ध्यान में आने लगे जो हमारी मानसिक शांति के लिए उपयुक्त हो सकते थे यहां वृद्ध शब्द की अवधारणा उनकी चेतना के आगे सटीक न बैठती , क्योंकि वृद्ध होने का उम्र के आंकड़ों से कोई वास्ता नहीं , इसलिए उनके लिए इस या इसके पर्यायवाची शब्दों​ का प्रयोग मेरे द्वारा प्रतिबंधित है। 

बड़े शहरों से लेकर कस्बों तथा गांव में रहने वाले इन जैसे ज्ञान की खान को छोड़कर यदि हम अपने प्रत्येक सवाल उस गूगल से ढूंढते हैं तो यह हमारा दुर्भाग्य ही है । खैर आखिर में हमारा सारा ध्यान उन सेवानिवृत्त पुरुषों पर था जो अपने घर की  ललिता पवार की सेवा से अभी भी निवृत्त नहीं हो पा रहे थे , और दिन भर के थके हारे अपने दोनों कानों को बहलाने संध्या  बेला पर निकला करते थे । कभी-कभी ऐसे पुरुषों के लिए महापुरुष शब्द भी लघुता को प्राप्त होता है । आज के वर्तमान परिदृश्य में जहां छोटी-छोटी बातों पर पति पत्नी के बीच नित्य ही लड़ाई झगड़े आम हैं , वहीं ऐसे पुराने बरगदो ने  ताउम्र क्रोध को अपने पास फटकने ना दिया और ना केवल अपनी गृहस्थी बल्कि अपने संपूर्ण परिवार की एकता व अखंडता को विषम परिस्थितियों में भी बनाए  रखना सुनिश्चित किया । चाहे वह छोटे भाई का हुड़दंग हो या बीवी की किचकीच के अलावा पिताजी की फटकार ही क्यों ना हो इन सब में भी इन्होंने अपना सामंजस्य और मानसिक संतुलन बनाए रखा ।

कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकला कि संध्या काल की बेला पर ही हमें ऐसे महापुरुषों के दर्शन हो सकते हैं । इसलिए सर्वप्रथम एक सज्जन पुरुष का रूप धर के ही हमने उनसे भेंट करना उचित समझा । हमने अपनी कटप्पा वाली दाढ़ीयों को काटना मुनासिब समझा और आयुष्मान खुराना बन अपने अमिताभ बच्चन की तलाश में निकल लिए।

आखिर ढूंढने से तो भगवान भी मिल जाते हैं फिर इंसान क्या हैं । मोहल्ले की मेन सड़क पर स्थित चाय की दुकान में हमे बगल की गली वाले उन वर्मा जी में अपनी पूरी संभावना नजर आई जो अपनी राबड़ी देवी के लिए तरकारी (सब्जी ) लेने निकले थे और चाय के दो प्यालो के साथ एक प्लेट प्याज की गरमा गरम पकौड़ियां धनिया की चटनी के साथ ठिकाने लगा चुके थे।

सर्वप्रथम तो नजर मिलने पर उन्होंने अपनी तटस्थता बरकरार रखी परंतु जब मैंने झुक कर उनका अभिवादन किया तो उन्होंने मधुर मुस्कान के साथ दाहिना हाथ ऊपर करते हुए मजबूती से अपनी प्रतिक्रिया दी । जब मैं उनके पास कुर्सी खींचते हुए बैठने लगा तो उन्होंने बैरे से एक चाय की प्याली और लाने का आदेश दिया । 

 हां तो मैंने भी वर्मा जी का हाल चाल लेते हुए अपनी जिज्ञासा उनके सामने रखने में तनिक भी देर नहीं की सर्वप्रथम तो वह ध्यान से सुनते रहे परंतु कुछ छण पश्चात उनके चेहरे की चमक फीकी पड़ने लगी और सवाल के खत्म होने पर वह मेरी ओर टकटकी लगाए देखे जा रहे थे तो सवाल यह था कि

 ऐसी क्या वजह है कि कुछ ही दशकों पूर्व से चली आ रही संयुक्त परिवार की अवधारणा खत्म होने के बाद , एकल परिवार के पुत्र पिता व मां को अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते , या जिम्मेदारी शब्द को हटा भी दे तो क्या​ ज्यादातर पुत्र और पुत्रवधू के लिए पिछली पीढ़ी उनके परिवार का हिस्सा नहीं होती , और यदि कुछ जगह साथ-साथ हैं तो भी उपेक्षा का शिकार क्यों है । 

अचानक ही मुझे ध्यान आया कि समाजशास्त्र के नामी प्रोफ़ेसर वर्मा जी के पास इन सवालों के जवाब होते हुए भी वे उसे व्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि बाहर रहने वालें​ उनके दोनों बेटे विगत 10 वर्षों में एक बार भी उनका कुशलक्षेम पूछने नहीं आए शायद उनके साथ वर्मा जी भी उन्हें भूल चुके थे और आज मैंने अपनी जिज्ञासा हेतू उनकी खोई हुई अभिलाषा की याद दिला दी , अब मेरी जिज्ञासा  ग्लानी में बदल चुकी थी ।

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