forest politics


जंगल राजनीति 



कौवा चले  हंस की चाल, हंस देख बउराये
शेर खाये घास हरी - हरी , गधा रोज शिकार पर जाये 
मानव  करे नाच झमाझम  बंदरियां देख शर्माए
गिरगिट सब गायब हो गए , नेता रंग बदलते जाये

महंगाई अब  रोज डंसे है , नागिन टीवी पे नाच दिखाए
मगर देख हुए भौचक्का , अब तो राजा  ही  घड़ियाली आँशु बहाये 
कुत्ते हुए भयभीत सब , कंही गाड़ी से कुचल  ना जायें 
देख तमाशा खबरनवींशों  का , भालू भी अचरज खाये

ऊंट बोले मैं लम्बा या कालाधन , जिसे पकड़ ना पाए
घर की रबड़ी खुद ही खा गए , इल्जाम बिल्ली मौसी पे  लगाए
हाथी जैसा हुआ भ्रष्टाचार , जिसे मिटाने आये
खुद ही हो गए फूल के गैंडा ,तुमसे कछु ना हो पाए

लोमड़ी पहने भगवा चोला , साधु ईश्वर से कह ना पाए
तोता बोले राम - राम , तुम भी थे राम का रट्टा लगाए
पूछे गइया चिल्ला के तुमसे , राम का मंदिर काहे ना  बनवाये -


हम जंगल के जीव है सारे , तुम तो मानव कहलाये
सत्ता की खातिर तुम बने जानवर , तुमसे तो अच्छे हम कहलाये 




mediatantra

मीडियातंत्र 


वर्तमान समय में देश की मीडिया एक लाभकारी संस्था बन चुकी है। किसी ज़माने में भारत में अखबार और पत्रकारिता एक घाटे का सौदा हुआ करता था और इसे केवल समाज सेवा हेतु संचालित किया जाता था।  परन्तु आज के दौर में मीडिया एक लाभदायक व्यवसाय का रूप ले चुकी है और कुछ मीडिया संस्थान और पत्रकार सत्ता से करीबी रिश्ता बनाकर खुद को ताकतवर समझने लगे है। जो थोड़े बहुत ईमानदार है वे प्रताड़ना का शिकार है या फिर उनको हाशिये पर डालने का प्रयास जारी है। 



एक जमाना था जब लोग खबरों पर पूर्ण रूप से विश्वास किया करते थे और आजकल खुद के जांचने परखने के बाद ही विश्वास करते है। 

आज मीडिया में इतनी ताकत आ चुकी है की वो मुद्दों को जब चाहे मोड़ सकती है किसी को जमीन से उठाकर आसमान में बैठा सकती है। अभी हाल ही में पकिस्तान द्वारा भारतीय सैनिक नरेंद्र के साथ किये गए व्यवहार से देश में भारी आक्रोश था , तमाम सोशल नेटवर्कींग साइटो पर सरकार को जी भरकर गालियाँ दी जा रही थी,ऐसा लगा की सरकार के प्रति लोगो में गुस्सा अपनी चरम सीमा पर पहुँच जायेगा तब तक मीडिया ने अपना रुख राफेल से लेकर गणेश पूजा में परिवर्तित कर दिया और आम जनता में भरे आक्रोश की हवा निकल गई। 

मैंने अक्सर देखा है मीडिया में आने वाले डिबेट ऐसा लगता है जैसे की पूर्व प्रायोजित होते है।  आप इनके सवाल और कार्यक्रम के शीर्षक देखकर ही बता सकते है की ये किसका पक्ष लेने वाले है सरकार का या सत्य का। मीडिया तो वैसे भी आजकल भारत के सूचना प्रसारण मंत्रालय से संचालित हो रही है।  वहा बैठे पेशेवरों की टीम सारे न्यूज़ चैनलों पर चौबीस घंटे आँख गड़ाए बैठे हुए है। और प्रत्येक चैनल को क्या दिखाना है फ़ोन के द्वारा सूचित कर दिया जाता है। यह बात पुण्य प्रसून जोशी ने भी अपने ब्लॉग में कही है की कैसे सरकार अब मीडिया को नियंत्रित करती है। और सत्ता द्वारा लाभ प्राप्ति हेतु ज्यादातर मीडिया संस्थान इनकी अधीनता स्वीकार भी कर लेते है। सुचना प्रसारण मंत्रालय से ही किस चेहरे को ज्यादा दिखाना है और किस तरह की खबरे चलानी है इसका भी निर्धारण हो जाता है,और जो इनके विपरीत जाता है उसको अपने लहजे में  चेताया भी जाता है। 




ऐसे में सोशल मीडिया ही एक ऐसा प्लेटफार्म है जिसे पूर्ण रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता क्योंकि इसका प्रसार व्यापक है। कोशिश तो इसको भी नियंत्रित करने की होती ही रहती है परन्तु कामयाबी अधूरी ही मिलती है। 

30 मिनट के कार्यक्रम में 10-12  मिनट तो इनके प्रचार में ही निकल जाते है।  उसके बाद कभी  सास बहु की खबरे  जो की उन्ही धारावाहिको की ज्यादा दिखाई जाती है जिन्होंने इन्हे पेमेंट किया होता है, सीरियल के प्रचार का यह अनोखा माध्यम है जिसमे आने वाले एपिसोड को लेकर  दर्शको में जिज्ञासा बनाई जाती है और वह सीरियल खबरों में बना रहता है। नहीं तो कई ऐसे बेहतरीन सीरियल है जिन्हे टीआरपी नहीं मिल पाती। 

कभी ज्योतिष की भविष्यवाणी कभी धन प्राप्ति के उपाय तो कभी आस्था के  नाम पर ना जाने क्या - क्या दिखाते रहते है। पता नहीं ये सब हमारे देश में कबसे खबरों की श्रेणी में आने लगे। 
भारतीय क्रिकेट टीम का फैसला भी इनके एक्सपर्ट न्यूज़ रूम में ही बैठे बैठे कर लेते है। लेकिन अन्य खेलो से इनका अलगाव यह सिद्ध करता है की ये भी टीआरपी हेतु खबरों का चुनाव करते है। बिना टीआरपी वाली खबरे इनके लिए खबरे नहीं होती। 

अभी भी समय है अगर इस देश की मीडिया नहीं जागती तो उसकी विश्वसनीयता के साथ ही उसका अस्तित्व भी संकट में आ सकता है और सोशल मीडिया और इंटरनेट को खबरों का  प्रमुख माध्यम बनते देर नहीं लगेगी। 


इन्हे भी पढ़े - भारतीय मीडिया                   न्यूज़ चैनल डिबेट  


lajja karo sarkar


लज्जा करो सरकार 

lajja karo sarkar


रोक सको तो रोक लो बंधु
ये सरकार तुम्हारी है
जनमत की आवाज है अब तो
बिना काम की  चौकीदारी है

उड़ना - उड़ना छोड़के अब तो
कुछ तो  ढंग का काम करो

क्या रक्खा है जुमलों में अब

जब जनता जान रही है सब
फेंकी थी जो विकास की बातें
बोलो अब करोगे कब

देश - विदेश की रबड़ी खाई
फ़्रांस की खाई रसमलाई
पाक ने दागी सीने पे गोली
निकल सकी ना तुम्हारे मुंह से बोली
अब कितना लहू बहाओगे तुम
पूछे शहीद की माँ हो गुमसुम

56 इंच का सीना लेकर क्या कसमे खाई थी
कुछ तो शर्म करो राजा जी
क्या अपने झूठे वादों पर
तनिक लाज ना आई थी।


इन्हे भी पढ़े - आखिर कब तक ? 

pitrsatta ki utpatti


पितृसत्ता की उत्पत्ति 



यहाँ मैं प्रत्येक तथ्य के विस्तार में न जाकर केवल मूल तथ्य बताने की कोशिश कर रहा हूँ क्योंकि विस्तारित उत्तर कई पृष्ठों का हो सकता है
हम आज समाज में जो भी देखते है , समाज को उस स्वरुप में आने में सदियाँ लग गई।

इसी प्रकार प्रारम्भ में स्त्री पुरुष के बीच रिश्तो का कोई नाम नहीं था , और नाहि सम्बन्धो की कोई सुनिश्चितता । जिससे समाज का कोई स्वरुप निर्धारित नहीं था। इस कारण स्त्री के गर्भवती होने पर कोई पुरुष यह सुनिश्चित नहीं कर पता था की संतान का पिता कौन है ,ऐसी अवस्था में स्त्रियां गर्भावस्था के समय भोजन और अन्य कार्यो हेतु लाचार हो जाया करती थी. क्योंकि उस समय जानवरो का शिकार और कंदमूल का संग्रहण ही आहार के प्रमुख साधन थे। ऐसी अवस्था को देखते हुए और स्वयं की सुरक्षा हेतु स्त्रियों ने पुरुषो का आश्रय लेना शुरू कर दिया और समय व्यतीत होने के साथ इस व्यवस्था को विवाह का नाम दिया गया जिससे पिता की पहचान की जा सके और यहीं से धीरे - धीरे परिवार की अवधारणा ने जन्म लिया।
अब परिवार की देखरेख हेतु पुरुष शिकार हेतु लम्बी आखेट यात्राओं पर कम जाने लगे और उन्होंने अपने आसपास खाली पड़ी जमीन को घेरकर खेती करना प्रारम्भ कर दिया और पशुओ को पालतू बनाना भी। बाहरी जानवरो से सुरक्षा हेतु मनुष्यो ने संगठित होकर झुण्ड में रहना प्रारम्भ कर दिया , ऐसे समय में जब किसी बात पर दो व्यक्तियों में विवाद होता तो झुण्ड से निकलकर एक व्यक्ति उन्हें सुलझाने चला आता इसी व्यक्ति को झुण्ड (जिसे बाद में कबीला कहा जाने लगा) के सरदार की संज्ञा दी गई।
जमीन पर कब्जे को लेकर कबीलो में होने वाले विवादो ने लड़ाइयों का रूप ले लिया और एक कबीला दुसरे पर आक्रमण करके उसे अपनी सीमा में शामिल करता गया जिससे सरदार की ताकत बढ़ने के साथ ही उसे राजा की पदवी दी जाने लगी और इस प्रकार " राज्य" तथा "राजा" शब्द की उत्पत्ति हुई। इस पूरी प्रक्रिया में सत्ता पुरुषो के पास ही रही चाहे वह घर के अंदर हो या बाहर।

इस पूरी प्रक्रिया में स्त्रीयाँ अपनी रक्षा हेतु पुरुषो पर ही निर्भर रही है और उनका कार्य घर की चारदीवारी के अंदर ही रहा । इस कारण प्रारम्भ से ही परुष वर्चस्ववादी मानसिकता बनी रही । बाद के समय में समाज ज्यों - ज्यों विकसित होता गया और परिवार में पुरुष की मृत्यु होने पर या अन्य कारणों से कुछ स्त्रीयो ने घर और परिवार की जिम्मेदारी जिस तरीके से आगे बढ़कर निभाई, परिवार ने आगे चलकर परिस्थितियों को समझते हुए उस स्त्री का नेतृत्व स्वीकार किया।ऐसी जगहों पर मातृसत्तात्मकता समाज का निर्माण हुआ। समाज के सभ्य स्वरुप ने स्त्रियों को कई अधिकार दिए , लेकिन यह अधिकार भी पुरुषो द्वारा ही दिए गए थे जोकि हर काल में समाज में होने वाले धार्मिक और सत्ता के उतार चढ़ाव के कारण घटते बढ़ते रहते थे। यही कारण है की समाज के मूल में पितृसत्तात्मकता बसी हुई है।

आज संसार भर में विभिन्न क्षेत्रो , परिस्थितियों और समाज की मानसिकता के अनुसार कहीं पितृसत्तात्मक समाज है तो चुनिंदा जगहों पर मातृसत्तात्मक भी .

क्वोरा पर लेखक द्वारा दिए गए जवाब से साभार -

akhir kab tak


आखिर कब तक  ?

akhir kab tak



जुमलों के सरकार कुछ तो जुमला बोल दो 


मर रहे है वीर सैनिक 
अब तो जुमला छोड़ दो 
56 इंच में गैस भरा है 
या भरी है दूध मलाई 
हम कैसे अब सब्र करे जब

सीमा पर मर रहा है भाई 

मिल लो गले नापाक के अब 
जिसने आँख निकाली है 
कुछ तो बतला दो झांक के अब 
सीने में कितनी बेशर्मी डाली है 
कैसे कायर हो तुम, कैसे ना कहे तुम्हे निकम्मा 
टुकड़ो में बेटे को पाकर क्या कहेगी तुमको उसकी अम्मा 
नहीं चाहिए ऐसा नेता 
ना मांगे भारत माँ ऐसा बेटा 
जो जुमलों से सरकार चलाये 
और मौका पड़ते ही पीठ दिखाए 


इन्हे भी पढ़े -

राजनीति पे कविता poem on politics 


abki baar nahi chahiye aisi sarkar


अबकी बार नहीं चाहिए ऐसी सरकार 


खेलावन के लइका और खेलावन दोनों ही भन्सारी  की दुकान से एक एक थो पान  चबाते हुए चले आ रहे थे।  सामने मोदी सरकार का एक थो पुराना पोस्टर लगा था जो  की सन 2014 से ही तमाम दुश्वारियाँ सहते हुए राहुल गाँधी की तरह टिका हुआ था।  पोस्टर पर मोदी जी का विनम्र चेहरा और एगो  स्लोगन लिखा था " बहुत हुई महंगाई की मार अबकी बार मोदी सरकार " . और उसीके के नीचे लिखा था " अच्छे दिन आने वाले है ".


                  abki baar nahi chahiye aisi sarkar


खेलावन के लइका   - का बाउ जी मोदी जी को देखे है हमको देखके कितना मुस्कुरा रहे है।
खेलावन - गदहा को देख के मुस्कुरायेंगे नहीं तो का करेंगे बुरबक।  इ मोदी भी पूरा जनता को अपने जादू से बकलोल बनाये है।  जौन  चीज परदे पर  दिखाए है पीछे देखने पर पता चला की जादूगर के हाथ की सफाई की तरह इनके  मुंह की सफाई थी। 

खेलावन के लइका  - का कहते है बाउ जी अब ई पोस्टर देख के कंट्रोल नहीं होता और इ पनवो कही न कही विसर्जित करना है।

खेलावन - रहे द बुरबक अगवा ए से बड़ा पोस्टर है जिसपर लिखा है "बहुत हुआ नारी पर वार  अबकी बार मोदी सरकार  "  उहें  मुंह खाली कर देना।

abki baar nahi chahiye aisi sarkar


खेलावन के लइका -  बाउ जी ई  का हमारे अच्छे दिन आ गए। 

खेलावन - आहि न गए है बुरबक टैक्स पे टैक्स बढ़ा है खेत में पानी देंवे पे डीजल बढ़ा है। यूरिया का दाम बढ़ा है।  बैंक में कम पैसा पे जुर्माना बढ़ा है , इहे न गरीबी का मजाक है। एक रूपये में बीमा है लेकिन बैंक में पैसा कम      होने पे वो से बेसी जुरमाना है। इहे  न खेल है जादूगर का। हम कर्जा ले त खेत नीलाम हो जाई और माल्या ले   त   नाम हो जाइ। 

खेलावन के लइका पोस्टर पर पिचकारी मारते हुए आगे बढ़ता है और कहता है की " हमारे अच्छे दिन ना आये तो 2019 में   उनके भी ना आने देंगे ". 


इन्हे भी पढ़े  - फेंकू चच्चा  


tera yu jana

तेरा यूँ जाना 

tera yu jana


कभी दिल की  गहराइयों में उतर के देखो 
तेरी ही याद बहती है 
तू नहीं है फिर भी 
तेरी ही बात रहती है 
अकेला हूँ तेरे बिन अब तो,बस यही फ़रियाद रहती है 
उसी जन्नत में चला आऊं 
जहाँ तूं मेरा इन्तजार करती है 

तुझ संग दिए दिवाली के, तुझ संग होली की रंगत 
तुझ संग पीड़ा दिल की बाँटू, तुझ संग सुन्दर ये जगत 

बिन तेरे सुना दिल का झरोखा ,तेरे बिन  सुनी दिल की गलियां 

सुना पड़ा है दिल का बागीचा ,खिलने से मना  करती है बिन तेरे कलियाँ 

लाख तसल्ली देता हूँ, इस दिल को लेकिन 
बिन तेरे इसको अब चैन कहाँ 
क्या खुद को तसल्ली दे पाउँगा 
हर पल भींगे है नैन यहाँ 

है लाख समंदर गहरा तो क्या 
बुझा  पाता  प्यास नहीं 
है सारा जग कहने को अपना 
बिन तेरे किसी से अब आस  नहीं 

मैं तो तेरे बिन अधूरा 

खुद को जिन्दा कह पाता नहीं 
कोई कितना भी समझाये 
तुझ बिन रह पाता नहीं 

चल रही है धड़कन न जाने क्यूँ बेवजह  
अब तूँ ही बतला तू  मिलेगी किस जगह  


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